लखनऊ। किसानों को मेंथा की खेती अब पारम्परिक तरीकों से करने की जरूरत नहीं है। किसान अगेती मिंट (मेंथा) की वैज्ञानिक विधि से खेती कर कम समय में अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं।
मेन्थाल मिन्ट के उत्पादन की दृष्टि से भारत विश्व का अग्रणी देश है। इस फसल की खेती उत्तर भारत के मैदानी भागों में ग्रीष्मकालीन फसल के रूप में की जाती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षो में पारम्परिक विधि से मेन्थाल मिन्ट की खेती और व्यापार से सम्बंधित कई कठिनाइयां उत्पन्न हो गयी हैं जिनके निदान के लिए उन्नत कृषि तकनीकी का विकास बहुत ही महत्वपूर्ण हो गया है।
पारम्परिक विधि द्वारा मिंट की खेती की चुनौतियां
- वर्षा और शरद ऋतु में अधिकतर पारम्परिक फसलें जैसे कि धान, मटर, सरसों, आलू, गेहूं आदि को किसान अपने खेतो में लगाते हैं। इसके अलावा बारिश शुरू होने से पहले और पारम्परिक फसलों की किसानी के बीच बचे हुए समय का उपयोग ही मिंट की खेती के लिए किया जा सकता है, जिसके कारण मिन्ट की फसल के लिए बहुत काम समय बच पाता है।
- मिन्ट के फसल की दूसरी कटाई, जोकि अधिक लाभकारी हो सकती है, उसकी सम्भावना न के बराबर बचती है जिसके कारण उत्पादकता में उल्लेखनीय कमी रह जाती है।
- फसल की सिंचाई के लिए पानी की अत्यधिक मांग होने के कारण इसकी खेती वाले क्षेत्रों में भूजलस्तर गिरना जिससे क्षेत्र में पानी की कमी हो जाती है और फसल की लागत बढ़ जाती है।
- असमय वर्षा और अत्यधिक जल भराव की समस्या की वजह से फसल ख़राब हो जाने का अंदेशा रहता है।
- फसल मे होने वाले खरपतवारों के नियन्त्रण पर अधिक खर्च। जल भराव वाले क्षेत्रों में पौध सामग्री (जड़ें/सकर्स) के उत्पादन में कठिनाई।
- बाजार में कृत्रिम मेन्थाल की उपलब्धता से बाजार भाव में गिरावट हो जाती है, जिसके कारण किसानों को फसल से आय कम हो जाती है फलस्वरूप प्राकृतिक मेन्थाल मिन्ट व्यवसाय पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
- सभी परिस्थितियों की वजह से यह अति आवश्यक हो गया है कि मिंट उत्पादन की ऐसी कृषि पद्धति का विकास किया जाए, जिसके द्वारा इन सभी समस्याओ का निराकरण प्रभावी रूप से किया जा सके।
नवीन कृषि तकनीकी को विकसित करने के लिए प्रमुख उद्देश्य
- फसल काल में उल्लेखनीय कमी करना
- फसल की दूसरी कटाई लेने की सम्भावना को बढ़ाना और दूसरी कटाई से भी अच्छी गुणवत्ता का तेल अधिक मात्रा में उत्पादित करना।
- फसल की सिंचाई के लिए जरूरी पानी की कुल मांग में कमी लाना।
- असमय वर्षा या अन्य कारणवश खड़ी फसल मे जल भराव से होने वाली हानि को कम करना।
- फसल के साथ उगने वाले खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण और इस पर होने वाले खर्च को भी कम करना।
- मेन्थाल मिन्ट से तेल निकालने की लागत को प्रभावी रूप से कम करना जिससे कि कृत्रिम मेन्थाल उत्पादन से होने वाली व्यापारिक चुनौती का सामना किया जा सके।
- उपरोक्त सभी बातों को ध्यान में रखते हुए सीएसआईआर.सीमैप लखनऊ ने “अगेती मिन्ट तकनीकी” का विकास किया है, जिसके द्वारा मेंथॉल मिंट की खेती करने वाले किसानो को उपर्युक्त बताई गयी लगभग सारी समस्यायों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया है।
पारम्परिक विधि की तुलना में अगेती मिंट तकनीकी के प्रयोग से होने वाले लाभ
अगेती मिंट तकनीकी में जड़ या सकर्र्स की अधिक उपज, अच्छी गुणवत्ता, कम लागत और कम समय में प्राप्त की जा सकती है। इसके अलावा उपरी शाक का आसवन करके 50-60 किग्रा/हेक्टेयर अतिरिक्त तेल भी पैदा किया जा सकता है। इस विधि में जड़ें 15 दिसम्बर तक पूरी तरह से परिपक्व हो जाती हैं।
अगेती मिंट तकनीकी में जड़ या सकर्र्स सें रोपाई योग्य पौध सामग्री जनवरी के अन्तिम या फरवरी के प्रथम सप्ताह मे ही उपलब्ध हो जाती हैंए जिसके द्वारा किसान पहले से तैयार पौध के द्वारा पूर्ववर्ती फसल की कटाई के तुरंत बाद ही मिंट की रोपाई कर के परंपरागत फसल की तुलना में 30-40 दिन की बचत कर सकेंगे तथा अधिक समय उपलब्ध होने के चलते ही किसान वर्षा से पहले फसल की दो कटाईयां कर बेहतर उत्पादन व लाभ कमा सकते हैं।
खेत मे पौध रोपण की नवीन विधि का विकास द्वारा प्रचलित विधि की तुलना मे लगभग तीन-चालीस दिन की बचत की जा सकती है।
रोपाई की नवीन विधि द्वारा फसल की दूसरी कटाई लेने की सम्भावना प्रबल हो जाती है, जोकि शुद्व लाभ की दृष्टि से लाभदायक है।महत्वपूर्ण बात ये है कि जहां प्रचलित विधि में दूसरी कटाई से मिलने वाली उपज पहली कटाई की तुलना में काफी कम हो जाती है, वहीं नवीन पद्धति में दूसरी कटाई की उपज पहली कटाई की तुलना मे काफी अच्छी मिलती है।
पौध रोपण की नई विधि मे सिंचाई मे पानी की आवश्यकता लगभग 30 प्रतिशत कम हो जाती है, और खड़ी फसल मे किसी कारण जल भराव की स्थिति मे होने वाला जोखिम बहुत कम हो जाता है।
नवीन रोपण विधि मे फसल की वृद्धि बहुत तेजी से होने के कारण खरपतवारों की वृद्धि कम होती हैं, जिसके कारण बाद में फसल द्वारा ही स्वतः दबा दिए जाते हैं। इस प्रकार खरपतवार नियंत्रण पर होने वाला खर्च प्रथम कटाई के दौरान लगभग 30 प्रतिशत और दूसरी कटाई के दौरान लगभग 60 प्रतिशत तक कम हो जाता है।
अगेती मिंट तकनीकी से ही सम्बंधित एक कविता किसान भाइयों के लिए
अगेती मिन्ट तकनीकी “ईएमटी”
जबसे ईएमटी आई है, किसानो के घर खुशियां लाई।
दोगुना लाभ मिला है हमको, जब से विधि है ये अपनाई।
खाद्य सामग्री को खेतों में मात्रानुसार हैं देते।
माह अगस्त में पौधों को मेंड़ो के दोनों ओर लगाते।
तुरंत बाद मेंड़ो को पानी से आधा-आधा हैं भर देते।
फिर स्वस्थ्य पौधे पूरे खेतों में हैं लहलहाते।
बच गये खरपतवार से हम जब से विधि है ये अपनाई।
माह दिसम्बर में मेंड़ो पर दोगुनी जड़ है मिलती।
समतल की तुलना में इसमें भूमि भी है कम लगती।
करके जड़ के छोटे टुकड़े, इसकी नर्सरी है पड़ती।
फिर पालीथीन से ढककर इसको कृत्रिम गर्मी मिलती।
मात्र चालीस दिन के भीतर, तैयार पौध है मिलती।
बच गये अत्यधिक सिंचाई, समय से, जब से विधि है ये अपनाई।
माह फरवरी में पौधे, 10 इंच पर हैं रोपे जाते।
इसी माह में पौधो को मेंड़ों के बीचों बीच लगाते।
फिर माह मार्च में पौधे, 12 इंच पर हैं रोपे जाते।
किन्तु यहाँ पर पौधों को मेंड़ो के दोनो ओर लगाते।
माह अप्रैल में पौधे 10 इंच पे हैं रोपे जाते।
फिर से यहां पौधों को मेंड़ो के दोनो ओर लगाते।
मिल गया दोगुना लाभ है हमको, जब से विधि है ये अपनाई।
स्रोत –
देवेंद्र कुमार, डॉ. अनिल कुमार सिंह और डॉ. सौदान सिंह