बिहार के कोसी क्षेत्र में नदी के किनारे इन दिनों तरबूज, लौकी, खीरा, ककड़ी जैसी फसलों की भरमार है, लेकिन इसकी खेती यहाँ के स्थानीय किसान नहीं करते हैं, बल्कि उत्तर प्रदेश के अलग-अलग जिलों से किसान आकर यहाँ खेती करते हैं। कुछ महीनों के लिए इन किसानों का यही ठिकाना बन जाता है।
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर के मो जुबैर भी पिछले पाँच सालों से कोसी इलाके में आकर खेती करते हैं। इस बार वो 100 एकड़ में खेती कर रहे हैं। वह खुद के साथ अपने परिवार के सात सदस्य को लेकर आए हैं। जिनमें उनका भाई, पत्नी, बेटा और भतीजा है। मो जुबेर गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “शुरू में यहाँ कठिनाई होती थी, अब दिक्कत ना के बराबर होती है; यहाँ के लोगों का पूरा सहयोग मिल रहा है, दिसंबर महीने में ही मैं आ गया था; यहाँ के लोग हमें वक्त पर खाद पानी उधार देते हैं, हमें इधर आकर खेती बाड़ी करने में कोई परेशानी नहीं होती है ।”
कोसी क्षेत्र में दियारा इलाका काफी ज़्यादा है, क्योंकि यहाँ नदी का प्रवाह आसानी से ज़मीन को अपने भीतर समा लेता है। कोसी नदी अपनी धारा को बदलने के लिए जाना जाती है, इसलिए कोसी इलाका के आसपास दियारा क्षेत्र फैला हुआ है। बिहार में दियारा क्षेत्र के बारे में लोगों की आम राय है कि इसे अपराधियों का गढ़ माना जाता है। सड़क मार्ग नहीं होने की वजह से प्रशासन भी यहाँ जल्दी नहीं आ पाता है। ऐसे में कोसी इलाके में फैली रेत के दियारा क्षेत्र में जहाँ आम लोग जाने से बचते हैं, वहाँ आजकल उत्तर प्रदेश से आए किसानों ने सब्जी, फल के पौधों का कालीन बिछा दिया है।
वहीं उत्तर प्रदेश के ही फरीदाबाद के अरबा गाँव के मोहम्मद जाकिर बताते हैं, “दोस्त के कहने पर मैं यहाँ पर खेती करने आया हूँ, वह लगभग पिछले 2 साल से आ रहा है, इस बार मैं 10 बीघा खेत में खेती कर रहा हूँ; सब कुछ मिलाकर करीब पाँच लाख रुपया खर्च हो जाता है जिसमें 30 हज़ार रुपए बीज खरीदने में लगा था और मजदूर को देना पड़ा था।”
वो आगे कहते हैं, “देखिए कितना लाभ होता है, उम्मीद है तीन चार लाख रुपया कमाई हो जाएगी; मेरे साथ मेरी पत्नी और मेरा भाई है, गाँव के भी चार मजदूर को हमने काम पर रखा है; गाँव के ही लोग से पंपसेट लेकर पानी पटवन कर रहा हूँ।”
क्या है किसानों के पलायन की वजह
बालू और गाद में लगातार वृद्धि होने की वजह से कोसी अपनी प्रकृति के अनुरूप अपनी धारा बदलती रही है। काफी मात्रा में बालू और गाद के आने के कारण उसकी तलहटी उंची हो जाती है और वह अपनी धारा बदल देती है। ऐसे में कोसी क्षेत्र के स्थानीय किसान उसे धरती को बेकार समझ किसी और रोज़गार में लग जाते हैं।
इस क्षेत्र में पलायन भी इसी वजह से लगातार बढ़ रहा है। वहीं दूसरी तरफ कोसी के बालू पर खीरा और तरबूज की खेती उत्तर प्रदेश और तटबंध के अंदर के कुछ किसानों की किस्मत बदल रही है।
कोसी नवनिर्माण मंच के संस्थापक महेंद्र यादव कहते हैं, “बहुत लोग सैकड़ों वर्ष पहले यूपी से आकर यहीं बस गए है इसलिए यह सिलसिला सदियों पुराना भी है, गर्मी में कोसी के सफेद तपते बालू पर अपनी मेहनत से हरियाली लाने वाले ये किसान यहां के किसानों के लिए भी अनुकरणीय है।”
यूपी से आकर तटबंध के भीतर बालू भरी ज़मीन में तरबूज की खेती करने वाले किसानों को स्थानीय लोग ‘चैया’ के नाम से बुलाते हैं। उत्तर प्रदेश के आमीर अपने ही गाँव के मो जुबेर के साथ हर साल मजदूरी करने आते है। वह बताते हैं, “पहले उत्तर प्रदेश में यमुना नदी के किनारे हम लोग इस तरह की खेती करते थे, लेकिन कोसी इलाके में इसका उपज ज़्यादा होता है, इसलिए दिसंबर या जनवरी महीने में हम लोग आते हैं और जुलाई महीने तक वापस उत्तर प्रदेश चले जाते है।”
वो आगे कहते हैं, “पहले राउंड में एक बीघा में 15 से 20 तक फल हो जाता है वहीं दूसरे राउंड में फल कम होता है, हम लोग कदीमा खीरा और तरबूज की खेती करते हैं; हमारा माल हरियाणा दिल्ली, उत्तर प्रदेश के साथ-साथ पश्चिम बंगाल भी जाता है; बिहार के भी कई इलाकों में हमारा फल जाता है।”
क्या तरबूज में इंजेक्शन लगाकर बड़ा करते हैं?
सोशल मीडिया पर लगातार वीडियो वायरल हो रहा कि इंजेक्शन लगाकर तरबूज को लाल किया जाता है। इस सवाल के जवाब पर मो जुबैर कहते हैं, “इस इलाके में ऐसा कुछ नहीं होता है, हम लोग अधिक उत्पादन के लिए खाद जरूर ज़्यादा देते हैं; कभी-कभी मौसम साथ नहीं देता है तो खाद देनी पड़ती है, क्योंकि पूरी फसल पानी पर ही निर्भर है।”
वहीं उत्तर प्रदेश के शामली जिले के कैराना के रहने वाले सत्तार मियां कहते हैं, “सबसे खराब तब लगता है जब हमारा तरबूज चोरी हो जाता है, कुछ स्थानीय लोग सहयोग नहीं भी करते है।”
किसानों के मुताबिक धारी वाले तरबूज का बीज 20 हज़ार रूपये किलो और हरे/काले तरबूज का बीज 30 हज़ार रुपये किलो मिलता है।
स्थानीय किसान खेती क्यों नहीं सीख रहे?
बिहार का कोसी क्षेत्र यानी सुपौल, सहरसा मधेपुरा और कोसी नदी से सटा अन्य कुछ जिला पलायन का गढ़ माना जाता है। यहाँ के अधिकांश लोग देश के साथ-साथ विदेश खासकर सऊदी अरब में भी मजदूरी करने जाते हैं।
कोसी इलाके के किसान भी यूपी के किसानों से इस तरह की बेहतरीन वैकल्पिक कृषि के गुर सीख रहे हैं। कई किसान छोटे स्तर पर इसकी खेती करने लगे हैं। हालाँकि आज भी बहुत कम किसान इस तरह की खेती करने में दिलचस्पी दिखाते हैं।
स्थानीय किसानों के मुताबिक सुपौल जिला में लगभग 1600 एकड़ ज़मीन पर तरबूज की खेती हो रही है। हालाँकि सरकार के द्वारा कोई भी आंकड़ा जारी नहीं किया गया है। तरबूज की खेती में स्थानीय लोगों की भागीदारी न के बराबर है।
रतनपुर पंचायत के चंदन मंडल के मुताबिक कोसी इलाकों के लोगों के पास पूंजी की कमी है और वो ज़्यादा मेहनत नहीं करना चाहते हैं। वहीं रतनपुर पंचायत के ही राजकुमार बताते हैं, “पूरा-पूरा दिन इस तरह की खेती में समय देना पड़ता है, उन लोगों की तरह हम लोग मेहनत नहीं कर पाएंगे, ना ही खेती का असली गुर पता है कि खेती कैसे की जाएगी? हम लोग दिल्ली-पंजाब जाकर ही कमाने में बेहतर है।”
उत्तर प्रदेश से आए किसानों के मुताबिक इस इलाके में कई बार कृषि विभाग की टीम निरीक्षण के लिए आती है। वह उनसे खेती करने के तरीके के बारे में पता भी करती है।
कृषि विभाग से जुड़े कृषि अधिकारी कुंदन कुमार बताते हैं, “स्थानीय किसान को हम लोग तरबूज की खेती करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, थोड़ा वक्त लगेगा लेकिन उन्हें इस खेती के लाभ का पता चलेगा।”
हालाँकि प्रशासन की तरफ से स्थानीय किसानों को किसी भी तरह की ट्रेनिंग नहीं दी जाती है।