केले की खेती के लिए कोविड वायरस से कम नहीं है यह बीमारी, देखते ही देखते बर्बाद हो जाती है पूरी फ़सल

इस रोग के कारण बिहार के कोशी क्षेत्र के किसान केले की खेती छोड़कर अन्य फसलों की ओर रुख कर रहे हैं। इस बीमारी की तुलना कोविड-19 से की जा सकती है, क्योंकि अब तक इसका कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं मिल पाया है।

जलवायु परिवर्तन और विभिन्न कारणों की वजह से भारत में बौनी प्रजाति के केले में पनामा विल्ट रोग सर्वप्रथम 2015 में बिहार के कटिहार जिले में पाया गया। पनामा विल्ट केले की एक प्रमुख बीमारी है, जो इसकी उपज को प्रभावित करती है। इस रोग के कारण बिहार के कोशी क्षेत्र के किसान केले की खेती छोड़कर अन्य फसलों की ओर रुख कर रहे हैं। इस बीमारी की तुलना कोविड-19 से की जा सकती है, क्योंकि अब तक इसका कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं मिल पाया है।

आइए जानते हैं इस रोग के बारे में विस्तार से

फ्यूजारियम विल्ट (मुरझान) को समझ लीजिए

फ्यूजारियम मुरझान रोग, जिसे पनामा रोग भी कहा जाता है, मृदाजनित कवक रोग फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम फा. स्पि. क्यूवेन्स नामक फफूंद के कारण होता है। यह रोग भारत सहित पूरी दुनिया में केले की लगभग सभी किस्मों को प्रभावित करता है और इसे केले का सबसे विध्वंसकारी रोग माना जाता है। एक बार अगर खेत इस रोग से संक्रमित हो जाता है, तो इसके रोगाणु मिट्टी में 35-40 वर्षों तक जीवित रह सकते हैं और पूरे पौधे की मृत्यु का कारण बन सकते हैं। यह रोग तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, केरल, बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, और उत्तर पूर्वी राज्यों में बड़े पैमाने पर फैला हुआ है। इस रोग के कारण बिहार की प्रमुख प्रजाति मालभोग लुप्तप्राय हो चुकी है।

रोगकारक (फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम फा. स्पि. क्यूवेन्स)

इस फ्यूजेरियम की चार मुख्य नस्लें हैं, जो केवल कुछ विशेष प्रजातियों को ही प्रभावित करती हैं।

  1. रेस-1: यह सिल्क समूह जैसे मालभोग और ग्रो मिशेल, कारपुरावाल्ली (पिसांग अवाक), विरूपाक्षी (पोम) को प्रभावित करता है।
  2. रेस-2: ब्लूगो प्रजातियों जैसे मोन्थन, कोठिया को प्रभावित करता है।
  3. रेस-3: हेलिकोनिया प्रजाति को प्रभावित करता है, जो अब तक केवल मध्य अमेरिका में पाया गया है।
  4. रेस-4: ड्वार्फ कैवेंडिश सहित सभी केला प्रजातियों को प्रभावित करता है।

ट्रॉपिकल रेस-4 क्या है?

फ्यूजारियम रेस-4 फ्यूजेरियम की ही एक नस्ल है, जो केले के कैवेंडिश समूह को संक्रमित करती है। यह भारत के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगाए जाने वाले सभी किस्मों को प्रभावित कर सकती है। इस रोग के कारण भारतीय केला उद्योग को गंभीर नुकसान हो सकता है, क्योंकि यह उद्योग मुख्यतः कैवेंडिश क्लोनों (बसराय, रोबस्टा, हरिछाल, ग्रैंड नैने) पर निर्भर है।

फ्यूजेरियम टीआर-4: दुनिया भर में मचाही है तबाही

इस खतरनाक नस्ल की जानकारी ताइवान, मलेशिया, इंडोनेशिया, चीन, ऑस्ट्रेलिया, ओमान, जॉर्डन, मोज़ाम्बिक, लेबनान, पाकिस्तान, लाओस, और वियतनाम में मिली है।

फ्यूजेरियम टीआर-4: भारत में तेजी से पसार रही है पैर

डॉ. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा और आईसीएआर-एनआरसीबी द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, बिहार के कटिहार और पूर्णिया, उत्तर प्रदेश के फैजाबाद और बाराबंकी, गुजरात के सूरत, और मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिलों में ट्रॉपिकल रेस-4 की उपस्थिति दर्ज की गई है।

रोग के लक्षण

  • बाहरी लक्षण: यह लक्षण पौधे के 4-5 माह बाद दिखाई देते हैं। पुरानी पत्तियों का सीमांत क्षेत्र पीला हो जाता है और यह पीलापन बाद में पूरे पौधे में फैल जाता है।
  • आंतरिक लक्षण: प्रकंद में पीली या लाल धारीदार लकीरें दिखाई देती हैं और आभासी तने में काले या भूरे धब्बे दिखते हैं।

रोग का प्रसार और प्रबंधन

इस रोग का कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं खोजा जा सका है, लेकिन इसे नियंत्रित करने के कुछ उपाय किए जा सकते हैं:

  1. संक्रमित खेतों पर साइन बोर्ड लगाएं।
  2. संक्रमित पौधों को चिन्हित करें और उन्हें हटाकर जला दें।
  3. कार्बेडाजिम का घोल पौधों पर छिड़काव करें।
  4. साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें और खेतों में प्रवेश से पहले उपकरणों को रोगाणुमुक्त करें।

इसके अलावा, ऊतक संवर्धित पौधों का उपयोग, जैविक कीटाणुशोधन, और फसल चक्र (जैसे धान, मक्का) का पालन करने से इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।

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