खेती की गिरती सेहत और बढ़ती चुनौतियाँ: क्या भविष्य में किसान टिक पाएंगे?

एक तरफ मिट्टी की सेहत खराब है तो वहीं दूसरी तरफ किसानों को उचित समय पर उन्नतशील बीज भी नहीं मिल पा रहे हैं। धीरे-धीरे किसान के हाथ से अपनी फसलों के बीज भी निकलते जा रहे हैं।
farming challenges

बात उन दिनों की है जब मैं एक सुदूर अंचल के गाँव से किशोरवय उम्र में हाई स्कूल तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद महानगर में पढ़ने के लिए आया था। उस समय मेरी उम्र लगभग 14 वर्ष की थी।  जीवन में पहली बार गाँव से सीधे निकलकर आगरा जैसे बड़े शहर में पढ़ने आने का मौका मिला था।  हालांकि इससे पूर्व बचपन में शायद एक दो बार ही आगरा आना हुआ होगा। सीधे गाँव से निकलकर बड़े महानगर में पढ़ने का दबाव और शहर की चकाचौंध दोनों ही बातें ज़ेहन में कौंधती सी रहती थी। एक बात उस दौर में मेरे मन में हमेशा सबसे ज्यादा रह-रह कर विचार में आती थी, वो ये कि शहर में लोगों के पास इतनी बड़ी-बड़ी आलीशान कोठियां और गाड़ियां हैं। 

आखिरकार इनके पास इतना पैसा आता कहाँ से है? क्योंकि इनके पास तो खेत भी नहीं है जिसमें कुछ पैदा होता हो जिससे यह पैसे वाले हो सकें। जबकि हमारे यहाँ तो इतने सारे हैं और उन खेतों में हर फसल पैदा होती है। इसके बावजूद भी हमें एक छोटा सा कमरा किराए पर लेकर रहना पड़ रहा है आखिर हमारा मकान शहर में क्यों नहीं है, शहरों में बड़ी-बड़ी कोठियों में रहने वाले लोगों के पास जब एक भी बीघा खेत नहीं है तो उनके पास पैसा आखिर आता कहाँ से है। बालक मन मैं यह विचार बार-बार आता था। क्योंकि वह बालक मन सिर्फ यही जानता था कि खेतों से ही अनाज, फल-फूल, सब्जी, तिलहन, दलहन यहाँ तक कि दूध, दही, घी सब कुछ गाँवों में ही तो पैदा होता है। फिर यह शहर में रहने वाले एक विशेष वर्ग के लोग इतने पैसे वाले कैसे हैं। लेकिन धीरे-धीरे समय गुजरा और किशोरवय मन के विचारों की गुत्थी अपने आप सुलझती हुई चली गई। जैसे-जैसे कक्षाएं और उम्र बड़ी वैसे-वैसे चीजों को समझने की समझदारी भी विकसित होती चली गई। 

हम सबने बचपन से ही सुना है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत की आत्मा गाँवों में ही बसती है। भारत की खुशहाली का रास्ता खेतों और खलियानों से होता हुआ ही निकलता है, बावजूद इसके भारत के विकास की यात्रा में कृषि विकास पिछड़ रहा है। आज खेती-किसानी लाभ का नहीं बल्कि घाटे का सौदा बनती जा रही है। इसके पीछे अनेकों कारण उभरकर सामने आ रहे हैं। खेती पर आने वाली लागत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। कृषि निवेश महंगा होने के साथ ही फसलों पर लगने वाले रोग, बीमारियां और खरपतवार का प्रबंधन भी महंगा सौदा साबित हो रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि मजदूरों का अभाव और उनकी बढ़ती कीमतें भी खेती में एक प्रमुख समस्या के रूप में सामने आ रही हैं। 

खेती में आज मुझे जो सबसे बड़ी चुनौती दिखाई दे रही है जो कि निकट भविष्य में एक बहुत बड़ा विकराल रूप ले सकती है। प्रमुखता से देखा जाए तो वह समस्या है बढ़ती हुई जनसंख्या और घटती हुई कृषि जोत, जिस अनुपात में परिवार बढ़ रहे हैं उसी अनुपात में कृषि योग्य भूमि घटने के साथ ही प्रति व्यक्ति कृषि जोत भी कम हो रही है। आज पूरे देश में लघु और सीमांत किसानों की संख्या बढ़ी है। आंकड़ों पर गौर फरमाएं तो देश में 85 प्रतिशत से अधिक लघु और सीमांत किसान हैं, यह किसानों का एक ऐसा समूह है जो कि उन्नत कृषि तकनीकी और नवीनतम कृषि यंत्रों का प्रयोग अपने खेतों में करने की क्षमता नहीं रखता है। आखिरकार एक से लेकर दो और तीन एकड़ का किसान आर्थिक रूप से भी इन तकनीकियों को अपनाने में सक्षम नहीं है।

एक तरफ लागत बढ़ रही है और किसान तकनीकी भी अपनाने की और उन्मुख हुआ है। इसके इतर पूरे देश में मिट्टी की सेहत गड़बड़ा रही है। साल दर साल मृदा स्वास्थ्य खराब हो रहा है। मिट्टी की सेहत खराब करने में रासायनिक उर्वरकों की भूमिका भी कम नहीं रही है। रासायनिक उर्वरकों के आने के बाद किसानों द्वारा जैविक और कार्बनिक खादों को लगभग भुला ही दिया गया है। कम ही किसान अब खेतों में सड़ी हुई गोबर की खाद, हरी खाद आदि का प्रयोग कर रहे हैं। इसके चलते भूमि में जीवाश्म की मात्रा खत्म होती चली जा रही है और खेत रेत बन रहे हैं। 

मिट्टी की जलधारण क्षमता कम होने के साथ ही जमीन के अंदर वायु भी प्रवेश नहीं कर पा रही है, इसके चलते फसलों की सिचाई माँग भी बढ़ी है। रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग के चलते खेतों में पाये जाने वाले प्राकृतिक रूप से केंचुए अब पूरी तरह से खत्म हो चुके हैं। विस्ठा को कुछ ही घंटे में खाकर मिट्टी बना देने वाला गुबरेला भी अब जमीन से पूरी तरह से खत्म हो चुका है, अब जरूरत मिट्टी की सेहत को सुधारने की है। जब तक मिट्टी की सेहत नहीं सुधरेगी तब तक कृषि उत्पादन भी नहीं बढ़ पाएगा।

एक तरफ मिट्टी की सेहत खराब है तो वहीं दूसरी तरफ किसानों को उचित समय पर उन्नतशील बीज भी नहीं मिल पा रहे हैं। धीरे-धीरे किसान के हाथ से अपनी फसलों के बीच भी निकलते जा रहे हैं। गेहूं, धान, चना, जौ, सरसों, मटर जैसे कुछ बीजों को छोड़ दें तो अधिकांश बीजों पर अब कंपनियों का आधिपत्य होता चला जा रहा है। सरकारी संस्थाएं भी किसानों को बीज उपलब्ध नहीं करा पा रही हैं। इस वर्ष उत्तर भारत के कई क्षेत्रों में गेहूं तक के बीज की भारी कमी देखी गई थी।

यह सब इस बात की और इंगित करता है कि किसान के हाथ से धीरे-धीरे ही सही परंतु उसका स्वयं का अपना बीज बैंक पूरी तरह से खत्म होता चला जा रहा है। विभिन्न खाद्यान्न, तिलहन, सब्जी फल-फूल आदि फसलों के बीजों में हाइब्रिडाइजेशन भी एक प्रमुख समस्या है, जिसके कारण किसान को बाजार से हर साल नया बीज खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। यही हाल रहा तो आने वाले ही कुछ ही वर्षों में किसान पूरी तरह से बीज को लेकर प्राइवेट कंपनियों पर निर्भर होकर रह जाएंगे। उत्पादन बढ़ाने के लिए हाइब्रिड बीज जरूरी हैं, लेकिन किसान का अपना ही बीज खत्म हो जाए इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता है। भारतीय कृषि के लिए यह स्थिति किसी भी दृष्टिकोण से सुखद नहीं कही जा सकती है।

इन सब बातों के पीछे सच्चाई यह है कि जब तक हम अपनी मिट्टी की सेहत का ध्यान नहीं रखेंगे और अपने परंपरागत बीजों को सहेजकर नहीं रख पाएंगे, तब तक खेती बचा पाना मुश्किल होगा। इसलिए आज ज़रूरत इस बात की है कि हमें अपने मृदा स्वास्थ्य के साथ ही भूमि में जीवाश्म और पोषक तत्वों को भी सहेज कर रखना होगा। इसके साथ ही हमें स्वयं के बीजों पर आत्मनिर्भरता बढ़ानी होगी, तब कहीं जाकर हम खेती किसानी को बचा पाने में सफल हो पाएंगे। 

यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि आखिरकार हम कितनी भी शहरी संपन्नता क्यों ना बढ़ा लें। राष्ट्र कितनी भी आर्थिक, सामाजिक और औद्योगिक तरक्की क्यों न करले. लेकिन पेट भरने के लिए जो अनाज, फल, सब्जी, तिलहन, दलहन, दूध, दही, मांस, अंडा आदि पैदा तो खेतों और किसानों के माध्यम से ही होगा। इसलिए बालक मन में जो विचार मेरे मन में बार-बार आता था आज की मेरी परिपक्व समझ यह कहती है कि उसका कोई विकल्प न कल था, ना आज भी हमारे पास है और न आने वाले भविष्य में हमारे पास होगा। क्योंकि आखिरकार भोजन तो हमें खेतों से ही मिल पाएगा। इसके लिए हमें अपनी फसलों से दोस्ती और खेतों से प्यार करना ही होगा।

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