एक समय था जब गाँवों को पर्यावरण का सबसे बड़ा दोस्त माना जाता था। गाँवों में हरे भरे पेड़-पौधे, लहलहाती फसलें, पशु पक्षियों का कलरव प्रकृति प्रेमियों का ध्यान खींचती थीं,लेकिन आज पर्यावरण के सबसे बड़े मित्र गाँव ही उसके दुश्मन बन गए हैं। हमें प्रकृति से कम से कम लेकर उसे ज़्यादा से ज़्यादा लौटना चाहिए तभी हमारी पृथ्वी और पर्यावरण सुरक्षित रह सकेंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। यही कारण है कि आज पर्यावरण और प्रकृति दोनों खतरे में हैं।
भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसकी ज़्यादातर जनसंख्याँ खेती-किसानी पर निर्भर है। बढ़ती आबादी को देखते हुए कृषि में पर्यावरण का महत्व कई गुना बढ़ जाता है। किसानों द्वारा अधिक उपज और निरोगी फ़सल हासिल करने के लिए असंतुलित मात्रा में अंधाधुंध रासायनिक खादों या कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे खेतों की मिट्टी से लेकर हवा ,पानी, फ़ल, सब्ज़ी, अनाज, दूध, मांस सब ख़राब हो रहा है। गाँवों के तालाबों, नदियों, नहरों पर भी इसका असर पड़ रहा है। ये सेहत के लिए ठीक नहीं है।
कीटनाशकों, खरपतवार नाशकों या रासायनिक खादों की ख़पत पर नज़र डाली जाए तो पिछले दो दशक में इनकी बेतहाशा वृद्धि हुई है। चिंताजनक पहलू यह है कि किसान अपने स्तर से भी कई दवाइयों का इस्तेमाल कर रहे हैं जो घातक हैं। आज सभी का एक ही मकसद है उपज बढ़ाना और अधिक आमदनी । भले इससे लोगों की सेहत ख़राब क्यों न हो। यही कारण है कि आज कृषि वैज्ञानिकों की तरफ से संतुलित उर्वरकों के इस्तेमाल और एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन (आईपीएम) पर ज़ोर दिया जा रहा है, जिससे स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा की जा सके।
कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से जहाँ पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है वहीं खेती में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले किसान के मित्र कीट भी मारे जा रहे हैं। जिसके कारण शत्रु कीटों की सँख्या में बहुत वृद्धि हुई है। जो खेती-बाड़ी के लिए शुभ संकेत नहीं है। अगर खेतों और फसलों में मित्र कीटों की पूरी सँख्या रहेगी तो शत्रु कीटों को पनपने का मौका नहीं मिल पाएगा जिससे फसलों पर कीटों का प्रकोप बहुत कम होगा।
यही नहीं, ऐसे कीटनाशकों के इस्तेमाल से फसलों और किसानों को सहायता करने वाले अनेकों पक्षियों की प्रजातियाँ गायब हो गई हैं। ये पौधों में परागण से लेकर शत्रु कीटों को खाकर पर्यावरण शुद्ध रखने का काम करती हैं। इन पक्षियों में गौरैया, गिद्ध, पहाड़ी बटेर, तोता, बया, कठफोड़वा, सफ़ेद कबूतर, हरियल पक्षी, नीलकंठ, सारस, जल कुकरी तो नाम मात्र के ही रह गए हैं।
खरपतवारों से बचाव के लिए निराई-गुड़ाई और आच्छादन जैसी जैविक क्रियाओं को बढ़ावा देने की ज़रूरत है। रासायनिक उर्वरकों के संतुलित इस्तेमाल के साथ ही गोबर की खाद, कंपोस्ट खाद, वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल करना चाहिए।
गाँवों में भी पॉलीथिन का प्रयोग बहुत है। इसके पीछे प्रमुख कारण पॉलीथिन की थैली का बोलबाला है इसे ‘यूज एंड थ्रो’ की सँस्कृति ने बढ़ावा दिया है। पॉलीथिन पर्यावरण के लिए शत्रु है। पॉलिथीन एक ऐसा तत्व है जिसे ज़मीन में दबा देने पर भी उसके ख़त्म होने में करीब 200 साल का समय लग जाता है। अगर जलाया जाए तो इससे कई विषैली गैसें निकलती हैं, जो न सिर्फ इँसानों के लिए बल्कि पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों के लिए भी हानिकारक है। ज़मीन में प्लास्टिक या पॉलीथिन दबा देने पर उसके आसपास का सतही जल भी ख़राब हो जाता है। क्योंकि इससे ज़मीन के भीतर पानी में ज़हरीले तत्व पहुँच जाते हैं और उसे प्रदूषित कर देते हैं।
गाँवों में जिस अनुपात में पेड़ काटे जा रहे हैं उतनी सँख्या में नए वृक्षों को नहीं लगाया जा रहा है। किसी ज़माने में जहाँ जँगल ही जँगल थे आज वहाँ वृक्षों का नामोनिशान नहीं हैं। इसके चलते अक्सर सामान्य बारिश तक नहीं होती है या सूखा की स्थिति बन जाती है। तापमान बढ़ने की बड़ी वजह ये भी है। बरसात, सर्दी, गर्मी का प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा गया है। इस कारण फसलों में कीटों का प्रकोप बढ़ने के साथ ही उनका उत्पादन भी गिर रहा है।
पर्यावरण संतुलन के बिगड़ने के कारण जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएँ देखने को मिल रही हैं। पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी के कारण हिमखंडों के पिघलने का ख़तरा मंडराने लगा है। जिसके कारण नदियों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। सिंचाई के अभाव में फसलें सूख जाएँगी और बाढ़ जैसी विभीषिका भी पैदा होगी। तापमान बढ़ोतरी में हानिकारक गैसों की भूमिका भी कुछ कम नहीं है जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड और जलवाष्प जैसी गैसों के कारण ओजोन परत में छेद और ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव से पृथ्वी का तापमान बढ़ा है।
मानव जीवन में पर्यावरण की उपयोगिता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना पीने के लिए पानी और खाने के लिए भोजन। स्वस्थ पर्यावरण के बिना प्राणी के जीवन की कल्पना बेमानी है। पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ने में इंसान की भौतिकवादी सोच भी कम ज़िम्मेदार नहीं है। विकास की अंधी दौड़ में आज हर कोई बिना आगे पीछे देखें एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगा है। अगर समय रहते हम अपने पर्यावरण की रक्षा के लिए आगे नहीं आए तो इसका ख़ामियाजा आने वाली पीढ़ियों को उठाना पड़ेगा।
आज समय की माँग है कि गाँव में रहने वाले भी पर्यावरण की ज़रूरत को समझते हुए अधिक से अधिक वृक्षारोपण करें और पॉलिथीन का इस्तेमाल बंद कर दें। कीटनाशकों-खरपतवारनाशकों और रासायनिक खादों का कम से कम इस्तेमाल करें। प्राकृतिक खेती को अपनाने की कोशिश के साथ मोटे अनाज़ों की खेती की ओर बढ़ना चाहिए। इससे सेहत के साथ पर्यावरण की भी रक्षा होगी। प्रकृति के साथ संतुलन बैठाकर अगर खेती की जाए तो इंसान, पशु, पक्षी और पृथ्वी सभी का भला होगा।
(डॉ सत्येंद्र पाल सिंह कृषि विज्ञान केंद्र, लहार (भिंड) मध्य प्रदेश के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख हैं)