गाँव के बीच से होकर एक सड़क गुजरती है, जिसके दोनों तरफ घर बने हुए हैं। गाँव में एक तरफ से लोग अंदर आते हैं और दूसरी तरफ से बाहर जाते हैं, गाँव के हर किसी को इस नियम का पालन करना होता है।
अब आप सोच रहे होंगे कि इस गाँव में इतनी सख्ती क्यों है, तो चलिए आपको बताते हैं बायो-सिक्योर विलेज के बारे में। जहाँ मुर्गियों की सुरक्षा के लिए नियम बनाए गए हैं, ताकि वे बीमारियों से बच सकें।
उड़ीसा के मयूरभंज जिले के मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर दूर स्थित है मधुरिया गाँव। इस गाँव में करीब 19 परिवार रहते हैं, जो मुख्य रूप से संथाल आदिवासी समुदाय से हैं। यहाँ के परिवार मुर्गी पालन से मुनाफा कमा रहे हैं। लेकिन पहले ऐसा नहीं था, क्योंकि ज़्यादातर लोग काम की तलाश में बाहर जाते थे।
जनवरी 2022 में, हेफर इंटरनेशनल द्वारा चलाए जा रहे हैचिंग होप प्रोजेक्ट ने गाँव में बदलाव आया। गाँव की मरांग बुरु स्वयं सहायता समूह की सदस्य, सीता हर्दा, अब मुर्गी पालन के ज़रिए कमाई कर रहीं हैं, और बायो-सिक्योर विलेज बनने से उनकी मुर्गियाँ भी बीमार नहीं होती हैं। संथाल आदिवासी समुदाय की सदस्य सीता हर्दा गाँव कनेक्शन से बताती हैं, “जब भी कोई गाड़ी या लोग हमारे गाँव में आते हैं, तो उन्हें सबसे पहले सैनिटाइज किया जाता है।”

35 वर्षीय सीता के पास दो साल पहले केवल चार-पाँच मुर्गियाँ थीं, जिन्हें उन्होंने अपने कमरे के कोने में पालती थीं। लेकिन बायो-सिक्योर विलेज बनने के बाद, उन्हें बैकयार्ड मुर्गी पालन का प्रशिक्षण मिला है।
अब सीता के पास 32 मुर्गियाँ हैं, और उन्होंने पिछले दो सालों में चार-पाँच बार उन्हें बेचा है। सीता आगे कहती हैं, “पहले हमारे गाँव के लोग 15-20 दिन काम की तलाश में बाहर जाते थे, लेकिन अब अधिकांश लोग मुर्गी पालन करने लगे हैं।”
सीता और दूसरे आदिवासी परिवारों का मानना है कि आने वाले समय में उनके गाँव से कोई भी बाहर काम की तलाश में नहीं जाएगा। इतना ही नहीं, अगर गाँव के बाहर से कोई मुर्गी आती है, तो उसे 14 दिनों के लिए गाँव के बाहर बने क्वारंटाइन सेंटर में रखा जाता है। इससे बीमारियों का गाँव में फैलाव रुकता है।
मुर्गी और अंडे सस्ती और आसानी से उपलब्ध प्रोटीन का स्रोत हैं। हैचिंग होप ग्लोबल पहल मुर्गी पालन के माध्यम से लोगों की आजीविका को सुधारने में मदद कर रही है।
भारत दुनिया में अंडे के उत्पादन में दूसरे स्थान पर है। देश में कुल अनुमानित अंडा उत्पादन 138.38 बिलियन है। वर्ष 2018-19 के दौरान 103.80 बिलियन अंडों के अनुमानित उत्पादन की तुलना में, वर्ष 2022-23 के दौरान पिछले पाँच वर्षों में 33.31 प्रतिशत की वृद्धि दर दर्ज की गई है।

हैचिंग होप प्रोजेक्ट की मदद से समय-समय पर मुर्गी पालकों को प्रशिक्षण भी दिया जाता है। गाँव में नियुक्त की गई केव दीदियाँ समय-समय पर मुर्गियों का टीकाकरण करती हैं। हैचिंग होप परियोजना सरकारों, वित्तीय संस्थानों और किसान उत्पादक संगठनों के साथ सहयोग कर रही है ताकि मुर्गी पालक अपने व्यवसाय को सफल और टिकाऊ बनाने के लिए आवश्यक संसाधनों से जुड़ सकें।
ओडिशा में हैचिंग होप के राज्य समन्वयक अक्षय बिस्वाल गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “हेफर इंटरनेशनल के सहयोग से हैचिंग होप पहल चलाई जा रही है, और हमारा प्रयास है कि इस कार्यक्रम के माध्यम से छोटे किसानों की मदद की जाए। जिनके पास खेती के लिए बहुत कम जमीन है, और खासकर जो आदिवासी इलाकों से हैं। इसलिए इसकी शुरुआत ओडिशा से की गई है।”
“यह परियोजना 2018 में शुरू हुई, और तीन साल से चल रही है। अब तक करीब 30,000 आदिवासी परिवारों को इसका लाभ मिल चुका है, “अक्षय आगे कहते हैं।

बायो-सिक्योर विलेज के बारे में बात करते हुए अक्षय कहते हैं, “हमने कुछ गाँवों को बायो-सिक्योर विलेज के रूप में विकसित किया है, जहाँ मुर्गियों को सुरक्षित तरीके से रखा जाता है।”
देश के कुल अंडा उत्पादन में सबसे बड़ा योगदान आंध्र प्रदेश का है, जिसकी हिस्सेदारी कुल अंडा उत्पादन में 20.13 प्रतिशत है। इसके बाद तमिलनाडु (15.58 प्रतिशत), तेलंगाना (12.77 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल (9.94 प्रतिशत) और कर्नाटक (6.51 प्रतिशत) का स्थान है।
ओडिशा में कई गैर-सरकारी संगठन भी हैचिंग होप परियोजना को बढ़ावा देने में मदद कर रहे हैं। उनमें से एक है ‘उन्नयन’। ‘उन्नयन‘ की कार्यकारी निदेशक रश्मि मोहंती गाँव कनेक्शन से कहती हैं, “हम पिछले 15 वर्षों से आदिवासी परिवारों के साथ काम कर रहे हैं। कई परिवार पशुपालन और मुर्गी पालन से जुड़े हुए हैं।”

वो आगे कहती हैं, “हमने हैचिंग होप परियोजना के साथ भी काम करना शुरू किया है। इसमें हम आदिवासी महिलाओं को उद्यमी बनने का प्रशिक्षण देते हैं। उन्हें मुर्गी पालन, टीकाकरण, और मार्केटिंग के बारे में बताया जाता है। हमने बायो-सिक्योरिटी विलेज भी शुरू किया है, जहाँ मुर्गी पालन के नियम बनाए गए हैं। अब आदिवासी परिवार खुद ही सब कुछ देखभाल कर रहे हैं।”
मयूरभंज जिले के सात गाँव पूरी तरह से बायो-सिक्योर विलेज में बदल दिए गए हैं, और दूसरे गाँवों में भी यह काम जारी है।
बायो-सिक्योर क्यों है ज़रूरी
इंसानों में कई बीमारियाँ पशु-पक्षियों से फैलती हैं, क्योंकि ये कई बीमारियों के वायरस के वाहक होते हैं; ऐसे में बायो-सिक्योर गाँव बनाने से दोनों को सुरक्षित रखा जा सकता है।
खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार इंसानों में कई तरह की जुनोटिक बीमारियाँ होती हैं। मांस की खपत दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। एएफओ के एक सर्वे के अनुसार, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के 39% लोगों के खाने में जंगली जानवरों के मांस की खपत बढ़ी है। जोकि जुनोटिक बीमारियों के प्रमुख वाहक होते हैं।
पूरे विश्व की तरह ही भारत में भी जुनोटिक बीमारियों के संक्रमण की घटनाएँ बढ़ रहीं हैं। लगभग 816 ऐसी जूनोटिक बीमारियां हैं, जो इंसानों को प्रभावित करती हैं। ये बीमारियाँ पशु-पक्षियों से इंसानों में आसानी से प्रसारित हो जाती हैं। इनमें से 538 बीमारियाँ बैक्टीरिया से, 317 कवक से, 208 वायरस से, 287 हेल्मिन्थस से और 57 प्रोटोजोआ के जरिए पशुओं-पक्षियों से इंसानों में फैलती हैं। इनमें से कई लंबी दूरी तय करने और दुनिया को प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं। इनमें रेबीज, ब्रूसेलोसिस, टॉक्सोप्लाज़मोसिज़, जापानी एन्सेफलाइटिस (जेई), प्लेग, निपाह, जैसी कई बीमारियाँ हैं।
राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) की रिपोर्ट के अनुसार, प्लेग से देश के अलग-अलग हिस्सों में लगभग 12 लाख लोगों की मौत हुई है। हर साल लगभग 18 लाख लोगों को एंटी रेबीज का इंजेक्शन लगता है और लगभग 20 हजार लोगों की मौत रेबीज से हो जाती है। इसी तरह ब्रूसीलोसिस से भी लोग प्रभावित होते हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में जापानी एन्सेफलाइटिस से लोग प्रभावित होते हैं।