चौदह हज़ार किलोमीटर से भी दूर मेक्सिको और मध्य अमेरिका से आया एक फल अब हिंदुस्तान के बाज़ारों में अपनी माँग बढ़ा रहा है। नाम है एवोकाडो। जी हाँ, ये वही फल है जो देखने में तो नाशपाती जैसा है लेकिन दाम में बड़े बड़े फलों को मात दे रहा है।
इसकी पहचान बेशक एक विदेशी फल की है लेकिन इसके चाहने वाले हिंदुस्तान में भी अब कम नहीं है। वजह है इसका अधिक पौष्टिक होना। इसमें पोटेशियम केले से भी अधिक है।
भारत में अभी एवोकाडो की खेती कम क्षेत्रफल में हो रही है। लेकिन दक्षिण भारत में इसकी खेती व्यापारिक रूप से हो रही है। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक के कुछ हिस्सों में किसान अब इसकी खेती कर रहे हैं।
हिमाचल और सिक्किम में तकरीबन 800 से 1600 मीटर की ऊंचाई पर एवोकाडो की खेती सफलतापूर्वक हो रही है।
कहाँ कर सकते है इसकी खेती
एवोकाडो दक्षिण अमरीकी उपमहाद्वीप का पौधा है, जिस वजह से इसके पौधों को उष्णकटिबंधीय जलवायु की आवश्यकता होती है। 20 से 35 डिग्री सेल्सियस तापमान वाले क्षेत्र जहाँ पर 60 से 70 प्रतिशत तक नमी होती है, वहाँ इसकी पैदावार अच्छी होती है। इसके पौधे सर्दियों में 5 डिग्री तक के तापमान को आसानी से सहन कर लेते हैं, लेकिन 5 डिग्री से कम तापमान होने पर पौधा प्रभावित होता है। इसके अलावा 40 डिग्री से अधिक तापमान होने पर फल और फूल दोनों ही मुरझाकर गिरने लगते हैं। यानी जिन क्षेत्रों में लीची की खेती होती है उन क्षेत्रों में इसकी खेती की जा सकती है।
एवोकैडो की खेती के लिए उपयुक्त मृदा
दोमट और बलुई दोमट मृदा इसके लिए सही मानी जाती है। (पृथ्वी के ऊपरी सतह पर मोटे, मध्यम और बारीक कार्बनिक तथा अकार्बनिक मिश्रित कणों को ‘मृदा’ मिट्टी कहते हैं। ) भारत के ज्यादातर भागों में लाल मिट्टी है, और लाल मिट्टी को उत्पादन के लिहाज से अच्छा नहीं माना जाता है। क्योंकि लाल मिट्टी में पानी का रुकाव नहीं होता है, जिससे मिट्टी में कम चिकनाई होती है। लैटेराइट मिट्टी में अधिक मात्रा में चिकनाई पायी जाती है, जिस वजह से लेटेराइट भूमि एवोकैडो की खेती के लिए सही होती है। पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, केरल, तमिलनाडु के कुछ भाग और हरियाणा, पंजाब के ऊपरी भाग में इसकी खेती आसानी से की जा सकती है।
इसके पौधों को 50-70 प्रतिशत नमी की जरूरत होती है। जिस वजह से हरियाणा, पंजाब और उत्तर पूर्वी राज्य व दक्षिण भारत के पश्चिमी तट से पूर्वी क्षेत्र तक इसकी खेती की जा सकती है।
एवोकाडो की उन्नत किस्में
भारत में एवोकैडो की उगाई जाने वाली किस्मों में फुएर्टे, पिंकर्टन, हैस, पर्पल, पोलक, ग्रीन, पेराडेनिया पर्पल और हाइब्रिड ट्रैप प्रमुख है। एवोकाडो का वैज्ञानिक नाम पर्सिया अमरीकाना है। कहते हैं ये खास तरह का फल सबसे पहले करीब 7 हज़ार साल पहले दक्षिणी मैक्सिको और कोलंबिया शहर में हुआ था। यह बेरी की तरह दिखने वाला बड़े आकार का गूदेदार फल होता है, जिसके अंदर एक बड़ा बीज होता है। जिस वजह से इसे एलीगेटर पियर्स या बटर फ्रूट नाम से भी जानते हैं। पूरी दुनिया में इसकी कई किस्मों को उगाया जाता है, जिसमें हास एवोकाडो सबसे लोकप्रिय किस्म है।
एवोकाडो फसल में भूमि की तैयारी
एवोकाडो के बीज से पौध को तैयार कर उनकी रोपाई की जाती है, इसके लिए बीज को 5 डिग्री तापमान या फिर सूखे पीट में भंडारित कर तैयार किया जाता है। इसके फलों से लिए गए बीजों को पॉलीथिन बैग या नर्सरी बेड पर सीधे तौर पर बुवाई के लिए इस्तेमाल करते है। नर्सरी में बीजों को 6 माह तक उगाने के बाद खेत में लगाने के लिए निकाल लेते हैं। सबसे पहले खेत की गहरी जुताई कर खरपतवार को निकाल दिया जाता है। इसके बाद खेत में हल्की सिंचाई कर देते हैं, हल्की सिंचाई करने से खेत की मिट्टी नम हो जाती है, नम भूमि में रोटावेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरी कर लेते हैं। भुरभुरी मिट्टी को पाटा लगाकर समतल करने के बाद खेत में पौध रोपाई के लिए 90X90 सेमी आकार वाले गड्ढों को तैयार कर लेते हैं।
इसके बाद इन गड्ढों में मिट्टी के साथ 1:1 के अनुपात में खाद को मिट्टी में मिलाकर मई जून माह में भर दिया जाता है। यूपी-बिहार की कृषि जलवायु में इसे जुलाई अगस्त में लगाना अच्छा रहेगा। पौधों को 8 से 10 मीटर की दूरी पर लगाया जाता है।
एवोकाडो में सिंचाई
एवोकाडो के फलों को नमी की ज़रूरत होती है। इसलिए खेत की पहली सिंचाई पौध रोपाई के तुरंत बाद की जाती है। इसके बाद शुष्क और गर्म जलवायु में पौधों को 3 से 4 सप्ताह में पानी देना होता है। सर्दियों के मौसम में मल्चिंग विधि का इस्तेमाल क़र नमी की कमी से बचाव किया जाता है। बारिश के मौसम में ज़रूरत पड़ने पर ही पौधों को पानी दें और जलभराव होने पर खेत से पानी निकाल दें। ज़्यादा बेहतर होगा की फसल की सिंचाई के लिए ड्रिप विधि का प्रयोग किया जाए।
एवोकाडो में खरपतवार प्रबंधन
एवोकैडो की फसल को खरपतवार से बचाने के लिए निराई-गुड़ाई की जाती है, इसके अलावा जब पौधे छोटे होते हैं, तब रासायनिक तरीके से खरपतवार को नष्ट करते हैं, इसके लिए खरपतवार नाशक दवाइयों का इस्तेमाल किया जाता है।
एवोकाडो में लगने वाले रोग और कीट
एवोकाडो की फसल में स्केल्स, मिली बग्स और माइट्स जैसे सामान्य कीट आक्रमण करते हैं, इसके बचाव के लिए कीटनाशक जैसे डायमिथोएट 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव किया जा सकता है। एवोकाडो के खेत में फसल पर पत्ती का धब्बा, जड़ सड़न और फलों का धब्बा रोग आक्रमण करते हैं, जिसमें जड़ सड़न रोग से बचाव के लिए पौध रोपाई से पहले मिट्टी में रोको एम 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर मिट्टी को खूब अच्छी तरह से भीगा देना चाहिए।
एवोकाडो फल की तुड़ाई
एवोकाडो का फल पौध रोपाई के 5 से 6 साल के बाद तुड़ाई के लिए तैयार हो जाता है। इस दौरान आपको एवोकाडो के खेत से दो तरह के फल प्राप्त हो जाते हैं, जो हरे और बैगनी रंग के होते है। इसमें बैंगनी किस्म वाले फल का रंग बैंगनी से मरून में परिवर्तित हो जाता है, और हरे रंग वाले फल हरे से पीले रंग में बदल जाते हैं।
पूर्ण रूप से तैयार एवोकाडो के फल का बीज पीले-सफेद से गहरे भूरे रंग का हो जाता है। कटाई के बाद भी इसके फल नरम होते है, जिन्हें पकने में 5 से 10 दिन का समय लगता है।
एवोकाडो की कीमत
एवोकाडो की पैदावार उन्नत किस्म, खेत प्रबंधन और पेड़ की उम्र पर निर्भर करती है। सामान्य तौर पर एक पेड़ 250 से 500 फल प्राप्त किए जा सकते हैं, जबकि 10 से 12 वर्ष पुराने पेड़ से 350 से 550 फल प्राप्त हो सकते हैं। इस समय महानगरों में एवोकाडो का बाज़ार मूल्य गुणवत्ता के अनुसार 350 से लेकर 550 रूपए प्रति किलो है। इसकी खेती करके किसान फसल से अधिक मुनाफा कमा सकते हैं।
दक्षिण अमेरिका और लेटिन के बहुत से पकवानों व्यंजनों जैसे – चिपोटले चिलीस, गुया कमले, चोरीज़ों ब्रेकफास्ट और टोमाटिल्लो सूप में एवोकैडो फल का उपयोग अधिक किया जाता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षो से भारत में भी इस फल का इस्तेमाल तरह-तरह के व्यंजनों को बनाने के लिए किया जाने लगा है। इसके फलों में स्वास्थ्य संबंधित पोषक तत्व जैसे ओमेगा-3, फैटी एसिड, एवोकैडो फाइबर, विटामिन ए, बी, सी, ई और पोटेशियम युक्त पोषक तत्व मौजूद होते हैं, जो हमें तनाव से लड़ने में मदद करते हैं।