देश में बड़े पैमाने पर किसान केले की खेती से जुड़े हुए हैं, कई बार किसान अपने हिसाब से फ़सल में पोषक तत्व तो डालते हैं, फिर भी उत्पादन नहीं मिलता है। इसलिए किसानों के लिए ये जानना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है कि फ़सल में कब कौन सा पोषक तत्व डालना चाहिए।
केला भारी मात्रा में पोषक तत्वों का उपयोग करने वाला पौधा है और इन पोषक तत्वों के प्रति धनात्मक प्रभाव छोड़ता है। कुल फसल उत्पादन का लगभग 30-40 प्रतिशत लागत खाद और उर्वरक के रूप में खर्च होता है। उर्वरकों की मात्रा, प्रयोग का समय, प्रयोग की विधि, प्रजाति, खेती करने का ढ़ंग और स्थान विशेष की जलवायु द्वारा निर्धारित होती है।
केला की सफल खेती के लिए सभी प्रधान और सूक्ष्म पोषक तत्वों की ज़रूरत होती है, जबकि उनकी मात्रा उनके काम और उपलब्धता के अनुसार निर्धारित होती है। प्रमुख पोषक तत्वों में नाइट्रोजन सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण पोषक तत्व है। केला का पूरा जीवन काल दो भागों में बांटते हैं, वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था मृदा में उपलब्ध नाइट्रोजन और किस्म के अनुसार केला की सामान्य वानस्पतिक वृद्धि के लिए 200-250 ग्राम प्रति पौधा देना चाहिए।
नाइट्रोजन की आपूर्ति आमतौर पर यूरिया के रूप में करते हैं। इसे 2-3 हिस्सों में देना चाहिए। वानस्पतिक वृद्धि की मुख्य चार अवस्थाएं हैं जैसे, रोपण के 30, 75, 120 और 165 दिन बाद। प्रजननकारी अवस्था की भी मुख्य तीन अवस्था होती हैं जैसे, 210, 255 और 300 दिन बाद रोपण के लगभग 150 ग्राम नत्रजन को चार बराबर भाग में बाँटकर वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था में प्रयोग करना चाहिए। इसी प्रकार से 50 ग्राम नाइट्रोजन को तीन भाग में बांटकर प्रति पौधा की दर से प्रजननकारी अवस्था में देना चाहिए। बेहतर होता कि नाइट्रोजन का 25 प्रतिशत सड़ी हुई कम्पोस्ट के रूप में या खल्ली के रूप में प्रयोग किया जाए।
केला में फास्फोरस के प्रयोग की कम आवश्यक होती है। सुपर फास्फेट के रूप में 50-95 ग्राम प्रति पौधे की दर से फास्फोरस देना चाहिए। फास्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा को रोपण के समय ही दे देना चाहिए।
पोटैशियम की भूमिका केला की खेती में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके विविध प्रभाव है। इसे खेत में सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है और इसकी उपलब्धता तापक्रम द्वारा प्रभावित होती है। फल लगते समय पोटाश की लगातार आपूर्ति आवश्यक है, क्योंकि घार में फल लगने की प्रक्रिया में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
केला की वानस्पतिक वृद्धि के दौरान 100 ग्राम पोटैशियम को दो टुकड़ो में फल बनते समय देना चाहिए। 300 ग्राम पोटैशियम तक की संस्तुति प्रजाति के अनुसार किया गया है। म्यूरेट आफ पोटाश के रूप में पोटैशियम देते हैं। प्लांटेशन में ज्यादा पोटाश प्रयोग किया जाता है। 7.5 पीएच. मान वाली मृदा में और टपक सिंचाई में पोटेशियम सल्फेट के रूप में पोटैशियम देना लाभदायक होता है।
कैल्सियम, नाईट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश के साथ प्रतिक्रिया करके अपना प्रभाव छोड़ता है। अम्लीय मृदा में भूमि सुधारक के रूप में डोलोमाइट एवं चूना पत्थर प्रयोग किया जाता है।
मैग्नीशियम, पौधों के क्लोरोफिल बनने में और सामान्य वृद्धि की अवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, इसलिए इसकी कमी पौधों की सामान्य बढ़वार को प्रभावित करती है। पौधों में इसकी अत्याधिक कमी की अवस्था में मैग्नीशियम सल्फेट का प्रयोग करने से पौधों में कमी के लक्षण समाप्त हो जाते है। हालाँकि मृदा में सल्फर की कमी पाई जाती है, लेकिन केला की खेती में इसकी कोइ अहम भूमिका नहीं हैं।
सूक्ष्म पोषक तत्वों में जिंक, आयरन, बोरान, कॉपर और मैग्नीज पौधों की सामान्य वृद्धि और विकास में अहम भूमिका अदा करते है। जिंक सल्फेट 0.1 प्रतिशत, बोरान 0.005 प्रतिशत और मैग्नीशियम 0.1 प्रतिशत व 0.5 प्रतिशत फेरस सल्फेट छिड़काव करने से अधिक उपज प्राप्त होती है।
एजोस्पाइरीलियम और माइकोराइजा का भी प्रयेाग फायदेमन्द साबित हुआ है। इसलिए समन्वित पोषण प्रबन्धन पर ध्यान देना चाहिए। पोषण उपयोग क्षमता को टपक सिंचाई विधि द्वारा कई गुना बढ़ाया जा सकता है। प्रभावी पोषण प्रबंधन के लिए आवश्यक है कि किसान केला में उत्पन्न प्रमुख सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से उत्पन्न होने वाले लक्षणों को भी जान लें।
प्रोफेसर (डॉ) एसके सिंह, सह निदेशक, अनुसंधान, विभागाध्यक्ष,पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी एवं प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय समन्वित फल अनुसंधान परियोजना , डॉ राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर बिहार