लखनऊ। तरबूज गर्मियों में खाया जाने पसंदीदा फल है। पानी से भरपूर तरबूज लोगों को तरोताजा तो रखता ही है, किसानों के लिए यह फायदे की खेती है। तरबूज कम दिन की फसल है और मुनाफा भी होता है लेकिन इसमें कीट और रोगों का प्रकोप भी खूब होता है। किसान और कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक जो किसान तरबूज की फसल को शुरुआती एक महीने संभाल ले जाते हैं, उनके मुनाफा कमाने के अवसर बढ़ जाते हैं।
तरबूज की बुवाई और रोपाई जनवरी से मार्च तक होती है। जबकि संरक्षित माहौल (यानि पॉलीहाउस लो-टनल, ग्रीन हाउस आदि) में किसान नवंबर-दिसंबर में भी बुवाई कर देते हैं। ज्यादातर किसान तरबूज के बीजों की सीधे बुवाई फरवरी में करते हैं, जबकि कुछ किसान जनवरी में पौध तैयार करके जनवरी के आखिर या फिर फरवरी में पौध लगाते हैं। तरबूज 75 से 90 दिन में तैयार होता है।
दुनिया में चीन, देश में यूपी तरबूज उत्पादन में आगे
कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के तीसरे अग्रिम अनुमानों के आंकड़ों के मुताबिक साल 2020-21 में 115 हजार हेक्टेयर में तरबूज की खेती हुई है और अनुमानित उत्पादन 3205 हजार मीट्रिक टन है। वहीं खरबूजे की साल 2020-21 में 69 हजार हेक्टेयर में खेती हुई है और 1346 हजार मीट्रिक टन उत्पादन अनुमानित है। सामान्य परिस्थितियों में 20-30 टन प्रति हेक्टेयर का उत्पादन होता है लेकिन ये बीज, वैरायटी, जलवायु, किसान की कृषि पद्धति आदि के हिसाब से कम और ज्यादा हो सकता है।
कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण के मुताबिक भारत में सबसे ज्यादा तरबूज का उत्पादन यूपी में होता है। साल 2017-18 की रिपोर्ट में कहा गया है कि यूपी में करीब 619.65 मिलियन टन तरबूज का उत्पादन होता है जो, देश के कुल उत्पादन का 24 फीसदी है। दूसरे नंबर पर नंबर पर आंध्र प्रदेश था, जहां 360.08 मिलियन टन का उत्पादन हुआ, तीसरे नंबर पर कर्नाटक (336.85 MT), चौथे पर पश्चिम बंगाल (234.30 MT) पांचवें पर ओडिशा (226.98 MT) था।
तरबूज भारत ही नहीं कई देशों में चाव से खाया जाता है। पूरी दुनिया की बात को तरबूज का सबसे ज्यादा त्पादन चीन में होता है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (FAO) के मुताबिक साल 2019 में चीन की पूरी दुनिया में हुए तरबूज उत्पादन में 67.78 फीसदी की भागीदारी थी, जिसके बाद दौरान टर्की दूसरे और भारत तीसरे नंबर पर था, जिसकी पूरी दुनिया के उत्पादन में भागीदारी मात्र 2.78 फीसदी थी। यानि तरबूज उत्पादन में अभी बहुत संभावनाएं हैं।
तरबूज की खेती में शुरुआती एक महीना नाजुक
तरबूज “कुकुरबिटेसी” परिवार की फसल है। तरबूज की तरह ही कद्दूवर्गीय कुल की सभी फसलों (कद्दू, तरबूज, लौकी, तोरई, खबहा, खरबूज आदि) में शुरुआती एक महीना बहुत नाजुक होता है। क्योंकि इनमें तना गलक समेत कई रोग लग जाते हैं और कीट हमला करते हैं। जिसमें देखते हुई देखते पौधे सूख जाते हैं। ऐसे में जरूरी है कि शुरुआती दिनों में किसान ज्यादा सावधानी बरतें।
सेंटर ऑफ एक्सीलेंस फॉर वेजिटेबल, कन्नौज, यूपी के वैज्ञानिक और सेंटर इंचार्ज डॉ. डीएस यादव कहते हैं, “तरबूज समेत कद्दूवर्गीय सभी फसलों को रोग बचाने के लिए पानी की उचित मात्रा जरूरी है। इसलिए पौधे नाली में न लगाकर मेड़ (बेड) पर लगाएं। ताकि पानी सिर्फ जड़ों को मिलें। अगर तना गलक रोग लग गया है तो मैंकोजेब और कार्बेन्डाज़िम की 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर जड़ों के पास ड्रिंचिंग करें। अगर भुनके और छोटे कीटों का प्रकोप हो तो नीम ऑयल (1500 पीपीएम) का 5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।”
कृषि वैज्ञानिक किसानों को सलाह देते हैं कि रासायनिक दवाओं, प्राकृतिक और यांत्रिक सभी तरह उपायों का प्रयोग करें।
पादप रक्षा वैज्ञानिक और कृषि विज्ञान केंद्र कटिया सीतापुर के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. डीएस श्रीवास्तव कहते हैं, “तरबूज समेत सभी कद्दू वर्गीय फसलों के शुरुआती दिनों में तीन समस्याएं आती हैं। सबसे पहले तना गलन (Damping off Disease) का अटैक होता है। ये फफूंद से होने वाला रोग है, जिसमें जड़े पतली होकर पौधे सूख जाते हैं। दूसरी समस्या होती है व्हाइट ग्रब (सफेद गिडार) या दीमक की होती है। तीसरी समस्या तब होती है जब तरबूज आदि के पौधों में इसके बाद जब तरबूज में 2 से 5 पत्तियां तक हो जाती हैं तो नर्म कोमल पत्तियों पर रस चूसने वाले छोटे और महीन कीट हमला करते हैं। इसमें थ्रिप्स, एफिड (चेपा या माहू) और जैसिड (लीफ हॉपर प्रमुख हैं।”
डॉ. श्रीवास्तव नर्सरी से लेकर फल आने तक सारे रोग और उससे बचने के लिए जैविक, प्राकृतिक और यांत्रिक उपाय भी बताते हैं।
तरबूज में जड़ से संबंधित रोग और उपचार
वो कहते हैं, “ज्यादातर किसान ऊपर पत्तियां देखते रहते हैं, लेकिन जड़ की तरफ ध्यान नहीं दे पाते। जबकि सबसे ज्यादा खतरा वहीं रहता है। ऐसे में अगर तना (जड़) गलन रोग लगा है तो उसके प्रबंधन के लिए जैविक विधियों में ट्राइकोडर्मा और स्यूडोमोनास का घोल 5-5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर पौधों की जड़ों के पास डालें। लेकिन उसमें थोड़ा गुड़ का घोल जरुर मिला लें। गुड़ से ये जैविक बैक्टीरिया जल्दी बढ़ते हैं।”
वो आगे कहते हैं अगर इससे समधान नहीं होता है तो रासायनिक कीटनाशकों में कार्बेन्डाज़िम (Carbendazim) थिरम (Thiram) 2 ग्राम प्रति लीटर का उपयोग करें।”
तरबूज की खेती ज्यादातर बलुई मिट्टी, बलुई दोमट और दोमट मिट्टी में होती है। जिसमे कई बार जड़ में दीमक या व्हाइट ग्रब (सफेद गिडार) जैसे कीट का प्रकोप हो सकता है। डॉ श्रीवास्तव ऐसा होने पर जैविक कीटनाशक में बेबेरिया और मेटाराइडिमय का 5-5 मिलीलीटर का मिश्रण प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव की सलाह देते हैं, इसमें भी गुड़ का थोड़ा घोल मिलाने से फायदे होता है। जबकि रासायनिक पेस्टीसाइड में वो ईमिडा क्लोपिड और फिप्रोनिल 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव की सलाह देते हैं।
तरबूज के पौधे पर रस चूसक कीड़ों का हमला और बचाव
तरबूज-खरबूज, कद्दू लौकी जैसी फसलों में रस चूसक कीट बड़ी समस्या बनते हैं। जब पौधे में 2-5 पत्तियां होती हैं, रस चूसक कीट हमला करते हैं, इनमें थ्रिप्स, एफिड (चेपा या माहू), लीफ हॉपर (जैसिड) प्रमुख हैं। माहू ज्यादातर सरसों में लगता है, लेकिन अगर पास में उसका खेत है तो प्रकोप हो सकता है। पादप रक्षा वैज्ञानिक डॉ श्रीवास्तव रस चूसक से बचने के लिए किसानों को अपनी फसल में कई घरेलू कीटनाशक और नियंत्रक अपनाने की सलाह देते हैं। “रस चूसक कीटों से पौधों को बचाने सबसे आसान तरीका है कि येलो स्टिकी ट्रैप लगाए जाएं। पौधों पर कंडी (उपलों) की राख का छिड़काव करें। नीम के तेल में गोमूत्र मिलाकर छिड़काव कर सकते हैं। पौधों का स्वाद अटपटा होने पर वो कीट उन पर हमला नहीं करेंगे।” डॉ. श्रीवास्तव कहते हैं। इसके साथ ही जैविक उत्पादन के लिए किसान क्रॉप नेट कवर भी लगा सकते हैं। इससे कीट अंदर प्रवेश नहीं कर पाएंगे और पौधे सुरक्षित रहेंगे।
लाल गुजिया का प्रकोप
तरबूज के पौधे बड़े होने पर लाल गुजिया का भी प्रकोप होता है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक किसान घर पर नीम, धतूरा, लहसुन मिर्च का जैविक कीटनाशक बनाकर नियंत्रण कर सकते हैं। इसके अलावा विषाणु जनित रोगों को से बचाने के लिए डॉ दया किसानों को प्रति टंकी (20 लीटर) में 3-4 लीटर मट्ठे के छिड़काव की भी सलाह देते हैं।
फल आने पर फ्रूट फ्लाई ट्रैप का करें प्रयोग
तरबूज, खीरा, लौकी, कद्दू आदि में किसानों को फल छेदक मक्खी फ्रूट फ्लाई (Fruit Fly) नुकसान पहुंचाती है। ये एक छोटी सी मक्खी तरबूज की बतिया (शुरुआती फल) पर ही डंक मारती हैं। जिससे फल या तो सड़ जाता है या फिर वहां पर दाग पड़ जाता है। फल सड़ा तो नुकसान होता ही है फल बचने पर उसका आकार बदल जाता है और मार्केट में उसका भाव नहीं मिलता है।
कृषि वैज्ञानिक इससे बचाव के लिए फ्रूट फ्लाई ट्रैप के इस्तेमाल की सलाह देते हैं। फ्रूट फ्लाई ट्रैप प्लास्टिक का एक कवर होता है, जिसके अंदर मादा मक्खी की गंध वाला एक कैप्सूल होता है, जिसकी गंध से नर मक्खियां उसमें आ जाती हैं और दोबारा निकल नहीं पाती है। कीट पतंगों से अपनी फसलों को बचाने के लिए किसान फेरोमेन ट्रैप, सोलर ट्रैप आदि का भी इस्तेमाल कर सकते हैं जो कीटों को नियंत्रित करते हैं।
केवीके कटिया के वैज्ञानिक डॉक्टर डीएस श्रीवास्तव कहते हैं, “किसानों को कम खर्च में अच्छा उत्पादन लेने के लिए समेकित जीव नाशी प्रबंधन प्रणालियां अपनानी चाहिए। जैविक उपाय, जैविक कीटनाशक, यांत्रिक उपाय और आखिर में रासायनिक कीटनाशक डालने चाहिए।”
वो आगे कहते हैं, “किसानों को चाहिए जैसे ही फल-सब्जी वाली फसल लगाएं। खेत में किनारे पर गेंदा और सूरजमुखी के पौधे लगा दें। इससे मित्र कीट ज्यादा आएंगे तो शत्रु कीट की संख्या नियंत्रित रहेगी।”
नोट – फसलों में किसी तरह के रसायन का छिड़काव करने से पहले अपने जिले के पादप रक्षा अधिकारी, स्थानीय केवीके के वैज्ञानिक या कृषि अधिकारियों से सलाह जरुर लें।