देश के किसानों की दशा और दिशा पर निर्भर करेगा प्राकृतिक खेती का भविष्य

आज देश में प्राकृतिक खेती एक विकल्प बनकर उभर रही है। केंद्र और राज्य सरकारों से लेकर कृषि वैज्ञानिकों व किसानों द्वारा इस दिशा में अपने कदम बढ़ा दिये गये हैं। माना जा रहा है कि आने वाले कुछ वर्षों में प्राकृतिक खेती के सुखद परिणाम देश के सामने होंगे।
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स्वस्थ व्यक्ति, स्वस्थ खेती, स्वस्थ माटी और स्वस्थ भारत आज प्राकृतिक खेती से ही संभव हो सकता है। स्वस्थ भारत, आत्मनिर्भर भारत और श्रेष्ठ भारत के लिए प्राकृतिक खेती जरूरी हो गई है। प्राकृतिक खेती बिना देशी गाय के संभव नहीं हैं। एक देशी गाय से 30 एकड़ भूमि पर आसानी से प्राकृतिक खेती की जा सकती है। पहले किसान गाय छोड़ते थे गौशाला जाती थी अब देशी गाय को गौशाला से गाँव में लाने की जरूरत है। आज प्राकृतिक खेती को खुशहाल किसान की गारंटी माना जा रहा है। लेकिन आने वाले समय में प्राकृतिक खेती का भविष्य देश के किसानों की दशा और दिशा पर निर्भर करेगा।

सम्पूर्ण देश में प्राकृतिक खेती का आगाज हो गया है। प्राकृतिक खेती को भविष्य की खेती कहा जा रहा है। जिस तेजी से जमीन की उर्वरा शक्ति क्षीण हो रही है, उसको देखते हुए प्राकृतिक खेती को इसे बचाने के लिए आवश्यक माना जा रहा है। वहीं रासायनिक उर्वरकों और जहरीले कीटनाशकों के अंधाधुध प्रयोग के चलते मानव स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा चुनौती बनकर खड़ा हो गया है।

कैंसर जैसी प्राणघातक बीमारियों के अलावा दर्जनों घातक बीमारियों के पीछे कीटनाशकों के दुष्प्रभावों का ही असर देखा जा रहा है। इसके चलते आज देश में प्राकृतिक खेती एक विकल्प बनकर उभर रही है। केंद्र और राज्य सरकारों से लेकर कृषि वैज्ञानिकों व किसानों द्वारा इस दिशा में अपने कदम बढ़ा दिये गये हैं। माना जा रहा है कि आने वाले कुछ वर्षों में प्राकृतिक खेती के सुखद परिणाम देश के सामने होंगे।

अथर्ववेद के भूमि सूक्त में कहा गया है कि माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्याः अर्थात धरती हमारी माता है और हम सब उसके पुत्र हैं। अथर्ववेद का यह मंत्र माँ की महिमा से जोड़कर धरती की गरिमा का गुणगान करता है। लेकिन आज हम लोगों ने जल्दी और अधिक लाभ कमाने, ज्यादा से ज्यादा उत्पादन लेने के चक्कर में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का बिना आवश्यकता के अत्यधिक अधांधुध प्रयोग करके धरती माता को बीमार बना दिया है।

इसके चलते भूमि के अंदर ऑरर्गेनिक कार्बन अर्थात जीवाष्म जोकि किसी भी खेत की जान होता है, वह अपनी निर्धारित मात्रा से अत्यधिक नीचे चला गया है। जमीन के अंदर जीवाष्म की मात्रा कम से कम 0.8 प्रतिशत तक होनी चाहिए लेकिन अधिकांशतः यह 0.4 से लेकर 0.2 और कहीं-कहीं शूंय प्रतिशत तक पर आ गई है। खेतिहर जमीन के लिये यह स्थिति अत्यंत घातक ही नहीं अपितु विस्फोटक है। इस दिशा में प्राकृतिक खेती बेहतर विकल्प बन सकती है। यदि किसान प्राकृतिक खेती की दिशा में उन्मुख होते हैं तो आने वाले वर्षों में भूमि एवं मानव स्वास्थ्य की दशा और दिशा दोनों में ही आमूलचूल बदलाव देखने को मिल सकता है।

प्राकृतिक खेती कोई नई विद्या नहीं हैं। यह भारतीय पुरातन कृषि का ही एक अभिन्न अंग रही है। लेकिन हरित क्रांति के आगाज के बाद धीरे-धीरे रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ता गया और प्राकृतिक भारतीय कृषि को भुला दिया गया। प्राकृतिक खेती एक गौ-आधारित कृषि है इसमें देशी गाय का गोबर और देशी गाय का मूत्र बहुत महत्वपूर्ण होता है। इसके अलावा गुड़, बेसन, चूना जैसी अनेकों घरेलू और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध चीजों की आवश्यकता होती है। प्राकृतिक खेती के पांच प्रमुख स्तंभ हैं जिसमें- जीवामृत (जीव अमृत), बीजामृत (बीज अमृत), घनजीवामृत, आच्छादन एवं वापसा शामिल हैं। व्यावहारिक रूप से प्राकृतिक खेती की अवधारणा इसी के इर्दगिर्द ही घूमती है। प्राकृतिक खेती के लिए देशी गाय जरूरी हो जाती है।

भारत सरकार के कृषि मंत्रालय से लेकर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और राज्य सरकारों ने इस दिशा में अपने प्रयास तेज कर दिये हैं। प्राकृतिक खेती के लिए किसानों को आर्कषित करने की पहल की जा चुकी है। इसी क्रम में गत् सप्ताह पूर्व हिमाचल प्रदेश के सोलन में स्थिति डॉ. वाईएस परमार हॉट्रीकल्चर एवं फॉरेस्ट्री विश्वविद्यालय में देश के सभी 731 कृषि विज्ञान केन्द्रों का एक दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। सम्मेलन में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, देश के सभी कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि विज्ञान केंन्द्रो के सभी प्रमुख वैज्ञानिकों द्वारा भाग लिया गया।

सम्मेलन का मुख्य विषय ”प्राकृतिक खेती, खुशहाल किसान” रहा। सम्मेलन को भारत सरकार के केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, कृषि राज्यमंत्री कैलाश चौधरी, पशुपालन एवं डेयरी मंत्री पुरूषोत्तम रूपाला, हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर, हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल राजेंद्र आर्लेकर और गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत के अलावा भाकृअप के उच्चाधिकारियों द्वारा संबोधित किया गया। सम्मेलन के मुख्य वक्ता गुजरात के राज्यपाल एवं प्राकृतिक खेती के विशेष जानकार आचार्य देवव्रत रहे। उन्होंने प्राकृतिक खेती के गुणों एवं करने के तरीकों पर विस्तार से सम्पूर्ण देश से आये कृषि वैज्ञानिकों को अवगत करा गया। सम्मेलन से निकली सिफारिशों के बाद तय हुआ कि केवीके के माध्यम से किसानों को प्राकृतिक खेती की सम्पूर्ण जानकार दी जायेगी।

अब देश के सभी केवीके अपने फार्म पर प्राकृतिक खेती के मॉडल तैयार करके किसानों को दिखायेगें। केवीके को अपनी भूमि के लगभग 20 प्रतिशत हिस्से पर प्राकृतिक खेती करनी होगी। इसके बाद किसानों को प्राकृतिक खेती के बारे में जागरूक करना होगा। प्राकृतिक खेती प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रमुख प्राथमिकता में भी है वह स्वयं भी इसके बारे में किसानों और कृषि वैज्ञानिकों से रूबरू हो चुके हैं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, आसाम, सिक्किम, गोवा, उत्तराखण्ड, बिहार आदि राज्य सरकारें इस दिशा में कदम बड़ा चुकी हैं। मध्य प्रदेश सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा प्राकृतिक खेती के लिए प्रत्येक जिले में 100 गांवों को चयनित कर काम शुरू कर दिया गया है। इसी क्रम में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा कृषि, उद्यान, पशुपालन, मछली पालन, केवीके आदि के अधिकारियों एवं कर्मचारियों के अलावा इन विभागों के मैदानी अमले को गुजरात से मास्टर ट्रेनर बुलाकर प्रशिक्षित कराया गया है। अब यह सभी किसानों को प्राकृतिक खेती की बारीकियों को गाँव-गाँव जाकर किसानों को समझाएंगे। 

(डॉ सत्येंद्र पाल सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, शिवपुरी, मध्य प्रदेश के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख हैं, यह उनके निजी विचार हैं।) 

Also Read: प्राकृतिक खेती किसानों के लिए क्यों जरूरी है? गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत से समझिए

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