पहाड़ी क्षेत्रों में आलू की फसल पर सिस्ट निमेटोड का खतरा

दुनिया भर में इस निमेटोड के कारण तीस प्रतिशत तक आलू की फसल प्रभावित हो जाती है।
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देश के ज्यादातर हिस्सों में आलू की खेती होती है, हर बार कई तरह रोग और कीटों की वजह से आलू की फसल प्रभावित होती है। ऐसा ही एक कीट है कवचधारी सूत्रकृमि (पोटेटो सिस्ट निमेटोड), जिससे पूरे देश में आलू की फसल प्रभावित होती है, खासकर के पहाड़ी क्षेत्रों की फसलों में इसका प्रकोप होता है। इसकी वजह से पूरी दुनिया में तीस प्रतिशत तक आलू का नुकसान होता है।

हिमाचल प्रदेश के शिमला में स्थित केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ संजय शर्मा बताते हैं, “यह भारत ही नहीं दुनिया भर के कई देशों में आलू के लिए खतरनाक कीट होता है। ये मिट्टी में लंबे समय तक रहता है। यहां कुफरी (शिमला) में इसका बहुत प्रकोप है, केंद्र सरकार की तरफ से एक टीम आयी थी, जिसने यहां से आलू भेजने का बैन कर दिया है। इसलिए अभी यहां से कहीं भी आलू भेजना प्रतिबंधित कर दिया गया है।

आज के समय में आलू के घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय के लिए कवचधारी सूत्रकृमि एक गंभीर खतरा बन गया है। साल 1961 में इंग्लैंड के वैज्ञानिक डॉ. एफजीडब्ल्यू जोन्स, तमिलनाडु के उदामंडलम, नीलगिरी जिले में आए थे। उस दौरान उन्हें पहली बार समुद्र तल से 7000 फीट की ऊंचाई पर तमिलनाडु के विजयनगरम क्षेत्रा में आलू की पीली फसल दिखाई दी और पौधे की जड़ों पर गोल सुनहरे रंग के सिस्ट मिले। इस तरह जोन्स को कवचधारी सूत्रकृमि के होने का पता चला। इसके बाद तमिलनाडु की कोडाईकनाल पहाड़ियों में वर्ष 1983 तथा तमिलनाडु की सीमा से जुड़े केरल के पश्चिमी घाट के सर्वेक्षण के दौरान, आलू के कई खेतों में कवचधारी सूत्रकृमि के व्यापक प्रसार के बारे में जानकारी मिली। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और तमिलनाडु सरकार द्वारा संयुक्त रूप से वित्तपोषित ‘गोल्डन नेमोटोड स्कीम’ की शुरूआत अक्टूबर 1963 में की गई। इसके तहत आलू के गोदामों और खेतों का बड़े पैमाने पर निरीक्षण किया गया। इस निरीक्षण के बाद यह पता चला कि कवचधारी सूत्रकृमि मुख्य रूप से तमिलनाडु की नीलगिरी और कोडाईकनाल की पहाड़ियों तक ही सीमित है।

इन पहाड़ियों से कवचधारी सूत्रकृमि के नए क्षेत्रों में प्रसार को रोकने के लिए वर्ष 1971 में तमिलनाडु राज्य के बाहर अन्य दूसरे राज्यों के लिए आलू निर्यात करने पर रोक लगा दी गई थी।

अभी जल्द ही पोटेटो सिस्ट निमेटोड को हिमाचल प्रदेश के शिमला (खदराला, उमलदवर, सारपानी, खारापानी, टूटूपानी, हंसतारी तीर, पोनिधर, देवरीघाट, खड़ा पत्थर, केंद्रीय आलू अनुसंधान केंद्र, कुफरी और फागू, रोहडू ब्लॉक, चोपाल ब्लॉक, जुब्बल ब्लॉक), सिरमौर (खेड़ाधर), मंडी (फुलाधर), चंबा (अहला), कुल्लू (छोवाई) और कांगड़ा जिले के (राजगुंडा) में। जम्मू एवं कश्मीर राज्य के रामबान (नाथ टोप), राजौरी (कांडी बुड्डाल), शोपिया (सिड्यू), जम्मू (आलू बीज फार्म, नाथा टोप और कांडी बुड्डाल) में और उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़़ (बलाती, मुंश्यारी, तिकसैन), टिहरी (रानी चैरी, धनुलटी), चमोली (रामानी), अल्मोड़ा (पटोरिया), नैनीताल (माला रामगढ़ फार्म) की पहाड़ियों में आलू उगाने वाले क्षेत्रों से उपस्थिति मिली है। इसलिए भारत सरकार ने 2018 में इन क्षेत्रों से आलू के बीज की आवाजाही को प्रतिबंधित कर दिया है।

दक्षिण अमेरिका का एंडिस पर्वत आलू और कवचधारी की उत्पत्ति का स्थान माना जाता है। साल 1850 में कवचधारी सूत्रकृमि, आलू की ब्लाइट प्रतिरोधक किस्मों के साथ दक्षिण अमेरिका से यूरोप में फैला था। यूरोप से बीजकंद और प्रजनन सामग्री के साथ दुनिया के अन्य देशों में फैलने के कारण यूरोप को कवचधारी सूत्रकृमि का द्वितीयक वितरण केंद्र माना जाता है। यह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मानव भोजन और सैन्य उपकरणों के प्रवेश के साथ एशियाई देशों के कई हिस्सों में फैल गया था।

उत्पादन पर असर

इस सूत्रकृमि के 20 अंडे अगर प्रति ग्राम मिट्टी में होते हैं, तो ये नुकसान दायक होते हैं। इस कृमि के कारण वैश्विक स्तर पर अकेले आलू की फसल को 30 प्रतिशत तक नुकसान होता है। भारत में कवचधारी सूत्रकृमि के द्वारा कंद की उपज का नुकसान 5 से 80 प्रतिशत तक पाया गया है।

ऐसे फैलता है ये सूत्रकृमि

यह निमेटोड प्रभावित क्षेत्रों के आलू के बीजों की नए क्षेत्रों में बुवाई से फैलता है। प्रभावित क्षेत्रों में कृषि उपकरणों के प्रयोग के बाद बिना साफ किए दूसरे क्षेत्रों में प्रयोग किए बिना भी फैल सकता है। साथ ही पशुओं के खुरों से भी ये फैलता है।

सूत्रकृमि के लक्षण

शुरूआत में हल्के पीले रंग के संक्रमित पौधे दिखते हैं, पौधों में यह लक्षण पोषण तत्वों की कमी से होने वाले लक्षणों की तरह दिखते हैं। दिन की गर्मी में संक्रमित पौधे अस्थाई रूप से कमजोर और सूखने लगते हैं। कवचधारी के शुरूआत में निचली पत्तियां पीले और भूरे रंग में बदल जाती हैं और धीरे-धीरे पूरा पौधा सूख जाता है। संक्रमित पौधे छोटे, समय से पूर्व पीले और कमजोर जड़ संरचना वाले होते हैं, जिन पर कम मात्रा में छोटे कंद लगते हैं। आलू कंद के रोपण के 55-60 दिनों बाद संक्रमित पौधे को जमीन से बाहर निकालने पर जड़ों के साथ चिपके सरसों के बीज के आकार के पीले या सफेद रंग के कवचधारी सूत्राकृमि दिखाई देते हैं। ये 70 दिनों बाद भूरे कवच में परिवर्तित हो जाते हैं। जमीन के नीचे संक्रमित पौधों की जड़ प्रणाली खराब विकसित होती है। इसके कारण कंद के आकार और उपज में काफी कमी आ जाती है।

ऐसे कर सकते हैं बचाव

सबसे पहले कवचधारी सूत्रकृमि की प्रतिरोधी किस्मों जैसे- कुफरी नीलिमा, कुफरी स्वर्णा, कुफरी सह्याद्री का चयन करना चाहिए। ये सभी किस्में कवचधारी सूत्रकृमि और झुलसा रोग के लिए प्रतिरोधी होती हैं।

केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एनके पांडेय इससे बचाव के बारे में बताते हैं, “आलू सोलेनेसी कुल का पौधा होता है, इसके साथ ही टमाटर, बैंगन जैसी फसलें भी इसी कुल की होती हैं, जो इस सूत्रकृमि की परपोषी होती हैं। इसके लिए दूसरे कुल के पौधे लगाकर इन्हें कम किया जा सकता है। गैर-सोलेनेसी पफसलें जैसे-मूली, बंदगोभी, पफूलगोभी, शलजम, लहसुन, गाजर आदि को आलू के साथ तीन-चार साल तक फसलचक्र में लगाने और हरी खाद फसल आदि के उपयोग से कवचधारी सूत्राकृमि की संख्या में 50 प्रतिशत से अधिक कमी के साथ उपज में भी वृद्धि होती है।”

आलू को फ्रेंच बीन्स के साथ (तीन पंक्तियां आलू और दो पंक्तिया फ्रेंच बीन्स की) और मूली के साथ (दो पंक्तियां आलू की और एक पंक्ति मूली की) के अनुपात में सहरोपण करने से कवचधारी सूत्राकृमि की संख्या में धीरे-धीरे कमी आती है। कवचधारी सूत्राकृमि के लिए अति संवेदनशील आलू की किस्म कुफरी ज्योति को ट्रैप क्रॉप की तरह लगाकर 45 दिनों के अंदर फसल को नष्ट करने से सूत्राकृमि का जीवनचक्र पूरा नहीं हो पाता है और कवचधारी सूत्राकृमि की आबादी में कमी होने लगती है।

जैविक नियंत्रण प्रतिनिधियों, जैसे स्यूडोमोनास फ्रलूयोरोसेनस या पैसिलोमाइसीस लीलासीनस के 10 कि.ग्रा./हेक्टेयर पर प्रयोग करने पर 8 से 10 प्रतिशत तक कवचधारी सूत्रकृमियों की संख्या में कमी आती है।

ट्राइकोडर्मा विरडी (5 किग्रा./हेक्टेयर) को नीम की खली (5 टन/हेक्टेयर) के साथ मिश्रित कर कवचधारी सूत्रकृमि संक्रमित क्षेत्रों में उपयोग करने से कृमि संख्या में कमी आती है। कार्बोफ्रयूरॉन 3 जी/65 किग्रा./हेक्टेयर को बुवाई समय मृदा में मिलाने से कृमि की संख्या में कमी आती है।

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