पपीते में 20 से अधिक रोगों को ख़त्म कर सकते हैं इन उपायों से

पपीते की सफ़ल खेती के लिए प्रभावी रोग प्रबंधन ज़रूरी होता है। पपीते में 20 से अधिक रोगों का आक्रमण होता है, जिनमें कवक और विषाणु जनित रोग प्रमुख हैं।
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पपीता सदा बहार वन का फल है जो विभिन्न बीमारियों के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं, इससे उपज और फल की गुणवत्ता दोनों को प्रभावित होती है।

बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सबसे अधिक समस्या विषाणु जनित रोगों की थी, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इसमें एक फफूंद जनित बीमारी जिसे जड़ गलन रोग कहते है को प्रबंधित करना मुश्किल हो गया है। इस बीमारी के कारण किसान पपीते की खेती में कम दिलचस्पी ले रहे हैं।

आइए जानते है पपीता में लगने वाली प्रमुख फफूंद जनित और विषाणु जनित बीमारियों के लक्षण और उनके प्रबंधन के बारे में।

पपीते के कवक जनित रोग

1. आर्द्र गलन (डैम्पिंग ऑफ)

यह नर्सरी में लगने वाला एक प्रमुख रोग है, जिससे काफी नुकसान होता है। इसका कारक कवक पीथियम एफैनिडरमेटम है जिसका प्रभाव नये अंकुरित पौधों पर होता है। इस रोग में पौधे का तना प्रारम्भिक अवस्था में ही गल जाता है और पौधा ज़मीन की सतह से ही मुरझाकर गिर जाता है।

प्रबंधन के उपाय

पौधशाला में जल निकास का उचित प्रबंध होना चाहिए और इसके लिए पौधशाला की ऊँचाई आस-पास की सतह से कम से कम 5 सेंटीमीटर उपर होनी चाहिए, जिससे जल जमाव न हो। नर्सरी की मिट्टी का उपचार फार्मेल्डिहाइड के 2.5 प्रतिशत घोल से करने के बाद 48 घंटे तक पॉलीथीन सीट से ढ़क देना चाहिए।

बीजोपचार कार्बेन्डाजिम अथवा मेटालैक्सिल + मेन्कोजेब के मिश्रण से 2 ग्राम/किलो बीज की दर से करना चाहिए। पौधशाला में लक्षण दिखते ही मेटालैक्सिल + मेन्कोजेब के मिश्रण का 2 ग्राम/लीटर पानी से छिड़काव करें।

2. तना तथा जड़ सड़न रोग (कालर रॉट)

पपीते में तना और जड़ गलन यानी कॉलर रॉट रोग में तने के निचले हिस्से के छाल पर जलीय (गीले) चकत्ते बनते हैं जो बाद में बढ़कर तनों को चारो तरफ से घेर लेते हैं। तने का उपरी छिलका पतला होकर गलने लगता है।

ऊपरी पत्तियाँ मुरझाकर पीली हो जाती है और पत्तियाँ गिर जाती हैं। रोगी पौधे में फल नहीं बनते हैं और अगर बन जाते हैं तो गिर पड़ते हैं।

तने का आधार सड़ जाने के कारण पूरा पौधा टूटकर गिर जाता है। इस कारण ज़मीन के नीचे जड़े गलने लगती है। पौधे की पत्तियाँ पीली पड़ने लगती है और असमय ही नीचे गिरना आरम्भ कर देती है। बाद में सारी पत्तियाँ गिर जाती है और पौधा गलकर ज़मीन पर गिर जाती हैं।

तना तथा जड़ सड़न रोग (कालर रॉट) को कैसे करें प्रबंधित?

पपीता के बाग में जल निकास का उचित प्रबंधन होना चाहिए। रोग से आक्रांत पौधों को जड़ सहित उखाड़कर जला देना चाहिए, और रोगी पौधों के स्थान पर दूसरे नये पौधे नही लगाना चाहिए। बरसात के मौसम में (जून, जुलाई और अगस्त) पौधों पर आधार से 50 से.मी. की ऊँचाई तक बोर्डो पेस्ट लगाने से रोग से बचा जा सकता है।

अगर तने में धब्बे दिखाई देते हों तो (मेटालैक्सिल + मेन्कोजेब) का घोल बनाकर 2 ग्राम/लीटर पानी की दर से पौधे के तने के पास मिट्टी में छिड़काव करना चाहिए। ऊंची बेड पर पपीता की खेती करने से भी इस रोग की उग्रता में भारी कमी आती है।

3. फल सड़न रोग

यह पपीते के फल का प्रमुख रोग है। इस रोग में कई कवक रोगकारक हैं, जिसमें कोलेटोट्राइकम ग्लियोस्पोराइड्स प्रमुख है। अध पके और पके फल रोगी होते है। इस रोग में फलों के उपर छोटे गोल गीले धसे हुए धब्बे बनते हैं।

बाद में ये बढ़कर आपस में मिल जाते हैं और इनका रंग भूरा या काला हो जाता हैं। यह रोग फल लगने से लेकर पकने तक लगता है, जिसके कारण फल पकने से पहले ही गिर जाते हैं।

फल सड़न रोग को कैसे करें प्रबंधित?

कॉपरआक्सीक्लोराईड 2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में या मेन्कोजेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से रोग से रोग की उग्रता में भारी कमी आती है। बगीचे में जल निकास का उचित प्रबंध होना चाहिए। रोगी पौधों को जड़ सहित उखाड़कर जला देना चाहिए, और रोगी पौधों के स्थान पर दूसरे नये पौधे नहीं लगाना चाहिए।

4. कली और फल के डंठल का सड़ना

यह रोग फ्यूजैरियम सोलनाई कवक से होता है। शुरु में इस रोग के कारण फल और कलिका के पास का तना पीला हो जाता है जो बाद में पूरे तने पर फैल जाता है, जिसके कारण फल सिकुड़ जाते है और बाद में झड़ जाते है।

कली और फल के डंठल सड़न रोग को कैसे करें प्रबंधित?

इस रोग के प्रबंधन के लिए कॉपरआक्सीक्लोराइड (2 ग्राम प्रति लीटर पानी मे) का छिड़काव करना चाहिए। रोगी पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए। पपीते के बगीचे के आस-पास कद्दू वर्गीय पौधे नहीं लगाना चाहिए।

5. चूर्णी फफूंद

यह रोग उत्तर भारत में अभी तक कहीं से रिपोर्ट नहीं हुआ है। यह रोग ओडियम कैरिकी नामक कवक से होता है। इससे प्रभावित पत्तियों पर सफेद चूर्ण जैसा जमाव हो जाता है जो बाद में सूख जाती हैं।

चूर्णी फफूंद रोग को कैसे करें प्रबंधित?

उचित दूरी पर पपीता के पौधे लगाएँ और ऊपरी सिंचाई से परहेज करें। इस रोग की रोकथाम के लिए घुलनशील सल्फर (2 ग्राम प्रति लीटर पानी में) का शाम के समय छिड़काव करना चाहिए। रोगी पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए। पपीते के बगीचे के आस-पास कद्दू वर्गीय पौधे नहीं लगाना चाहिए।

6. रिंग स्पॉट रोग

यह एक विषाणु जनित बीमारी है। इस रोग में सात विभिन्न तरीके के रोग के लक्षण दिखाई देते है। इस रोग में पपीते की पत्तियाँ कटी फटी सी दिखाई देती हैं और हर गाँठ पर कटे फटे पत्ते निकलते हैं।

पत्तियों के तने और फलों पर छोटे गोलाकार धब्बे बन जाते हैं और पौधे की वृद्धि रूक जाती है। पत्ती का डंठल छोटा हो जाता है और पुरानी पत्तियाँ गिर पड़ती है। पत्तियाँ छोटी खुरदरी और फफोलेदार हो जाती है। फूल काफी कम लगते हैं, और फल का आकार स्वस्थ पौधों की तुलना में काफी कम हो जाता है।

इस रोग की वजह से बिहार में पपीते की खेती काम होते जा रही है। इस रोग की वजह से अब केवल एक फसल लेते है ।

अगर इस रोग का लक्षण फूल निकलने के पहले दिखाई दे तो उस फसल से संतोषप्रद उपज प्राप्त करना बहुत मुश्किल है।

रिंग स्पॉट रोग को कैसे करें प्रबंधित?

वायरस-मुक्त पौधों का रोपण के लिए प्रयोग करें, एफिड्स (वेक्टर) जो इस रोग के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार है को नियंत्रित करें और फसल चक्र अपनाएँ। रोगी पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए।

इस रोग के वेक्टर प्रबंधन के लिए डाइमेथेएट एक मिली प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। पपीते के बगीचे के आस-पास कद्दू कुल के पौधे नहीं होने चाहिए। नीम की खली और नीम के तेल का प्रयोग करने से भी रोग में कमी आती है। पपीता को छोटी छोटी क्यारियों में लगाना चाहिए और मेड़ों पर बॉर्डर फसल जैसे सनई, ढैचा या मक्का में से किसी एक को लगाना चाहिए जिससे वेक्टर के आने जाने में बाधा उत्पन्न होने से रोग का प्रसार कम होता है।

जिंक और बोरान की सही मात्रा एक एक महीने के अंतराल पर पहले महीने से लेकर आठवें महीने तक प्रयोग करने से पपीता के अंदर रोग प्रतिरोधक छमता में भारी वृद्धि होती है और फल की गुणवत्ता में भारी वृद्धि होती है। बिहार में पपीता कभी भी वर्षा ऋतु में न लगाए, बारिश के बाद अक्टूबर में या मार्च में पपीता का बाग लगाने पर यह रोग कम दिखाई देता है ।

7. पर्ण कुंचन रोग

यह पपीते का एक कम महत्वपूर्ण विषाणु जनित रोग है। इस रोग के कारण शुरु में पौधों का विकास रुक जाता है और पत्तियाँ गुच्छा नुमा हो जाती है और पत्तियों का आकार छोटा हो जाता है। पत्तियों का ऊपरी सिरा अन्दर की ओर मुड़ जाता है। प्रभावित पौधे में फूल और फल नहीं लगते हैं।

पर्ण कुंचन रोग को कैसे करें प्रबंधित?

सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिए डाइमेथेएट 1 मिली प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।रोगी पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए।

8. ब्लैक स्पॉट रोग

इस रोग में पत्तियों पर गोलाकार काले धब्बे बनते है जिससे पत्तियाँ गहरे पीले रंग की होकर झड़ जाती हैं।

ब्लैक स्पॉट रोग को कैसे करें प्रबंधित?

इस रोग के प्रबंधन के लिए ब्लाइटाक्स 50 कवकनाशी की 2 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर 10 दिन के अंतराल पर दो छिड़काव करने से रोग की उग्रता में भारी कमी आती है। प्रभावित पत्तियों की छंटाई करके खेत से बाहर ले जाकर जला दें और वायु प्रवाह के लिए उचित दूरी बनाए। 

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