सीरीज का दूसरा भाग- देश की मिट्टी में रचे बसे देसी बीज ही बचाएंगे खेती, बढ़ाएंगे किसान की आमदनी
लखनऊ। मध्य प्रदेश में नरसिंहपुर के किसान राकेश दुबे ने अपनी किसानी के पिछले 20 सालों की खेती से सबक लेते हुए 2010 में जैविक खेती शुरू की और उनके पास अब अपने उत्पाद निर्यात करने का लाइसेंस भी है। तो यूपी में मेरठ के नितिन काजला बहुराष्ट्रीय कंपनी की नौकरी छोड़ जैविक खेती करते हैं, उनके साथ करीब 10 हजार किसान जुड़े हैं।
नरसिंहपुर में करताज के राकेश दुबे और मेरठ में भट्टीपुरा के नितिन काजला के बीच भले ही करीब 900 किलोमीटर का फासला हो, लेकिन इनमें ये समानताएं हैं कि ये उर्वरक और कीटनाशक मुक्त खेती करते हैं और दूसरे किसानों को भी जैविक खेती के लिए प्रेरित करते हैं। दोनों किसान सालाना प्रति एकड़ औसतन 2 लाख रुपए सिर्फ जैविक गुड़ से कमाते हैं। राकेश और नितिन भारत में आ रही नई तरह की कृषि क्रांति का आइना कहे जा सकते हैं।
भारत में रासायनिक खादें, यूरिया-डीएपी और कीटनाशक झोंक-झोंक कर खेती करने वाले किसानों से अलग तेजी से उन किसानों की संख्या बढ़ी है, जो बिना कैमिकल और पेस्टीसाइड के खेती कर रहे हैं। अच्छी बात ये है कि जहर मुक्त अनाज और उत्पाद खाने वाले लोगों की भी संख्या बढ़ी है, जो ज्यादा पैसा खर्च करने को तैयार हैं।
जहरीला खाना खाकर कब तक जिएंगे?
“जहरीला खाना खाकर कब तक जिएंगे। अगर कीटनाशक और उर्वरकों से दूरी नहीं बनाई तो भारत नहीं बचेगा। खेती को बंजर और खुद को बीमार होने से बचाने के लिए जरूरी है जैव-विविधता वाली खेती हो। जलवायु परिवर्तन से बचाने का कोई उपाय है तो है देसी तरीकों से खेती।” वंदना शिवा, पर्यावरणविद और ‘प्वाइजन इन आवर फूड’ नामक पुस्तक की लेखिका कहती हैं। इस किताब में समझाया गया है खेती में इस्तेमाल हो रहे रासायनिक कीटनाशक के चलते कैंसर, मधुमेह और दिल से जुड़ी घातक बीमारियां लोगों को हो रही हैं।
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हरित क्रांति के बाद ज्यादा उत्पादन और खेतों में टनों कैमिकल फर्टिलाइजर और पेस्टीसाइड डाला गया। जिसके चलते न सिर्फ खाना और आबोहवा दूषित हुई, बल्कि देश की मिट्टी में जैविक तत्वों की कमी हो गई और पीएच अंसतुलित हो गया। सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से जमीन खुद बीमार हो गई। जिसका असर हुआ कि एक समय के बाद खेतों में ज्यादा उर्वरक डालने के बाद भी उपज कम होती गई।
“साल 2010 में हमें होश तब आया जब तमाम कोशिशों के बाद सोयाबीन जैसी फसल की पैदावार घटने लगी। शुरू में तब सिर्फ खेत के एक कोने में अपने लिए जैविक तरीकों से हरी सब्जियां उगाते थे, फायदा दिखा तो अब पूरी 42 एकड़ जमीन जैविक कर दी। जैविक खेती में कुछ समस्याएं हैं, रासानयिक खेती के मुकाबले उत्पादन थोड़ा बहुत कम जरूर रहता है लेकिन बाजार में भाव अच्छा मिलता है।” मध्य प्रदेश में नरसिंहपुर जिले के करताज के प्रगतिशील किसान राकेश दुबे बताते हैं। राकेश के कृषि फार्म पर साल में करीब 2000 किसान देश भर से जैविक खेती के तरीके सीखने आते हैं।
पूरे देश में करीब 23.2 लाख हेक्टेयर में जैविक खेती
मानसून सत्र के दौरान लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने कहा, “परंपरागत कृषि विकास योजना (पीकेवीआई), पूर्वोत्तर क्षेत्र जैविक मूल्य श्रृंखला विकास मिशन, (एमओवीसीडीएनईआर) और राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम (एनपीओपी) के तहत पूरे देश में करीब 23.2 लाख हेक्टेयर में जैविक खेती हो रही है।”
भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान, मोदीपुरम, मेरठ के निदेशक डॉ. एएस पंवार बताते हैं, “भारत में खेती के सामने दो चुनौतियां हैं। खाने में कीटनाशक न हों और बढ़ रही जनसंख्या के लिए पर्याप्त भोजन भी उपलब्ध हो। मैं ये तो नहीं कहता है तुरंत पूरी खेती को 100 फीसदी जैविक में बदल दिया जाए लेकिन आने वाले एक दशक में खेती का स्वरूप जरूर बदल जाएगा।”
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डॉ. पंवार आगे बताते हैं, “देश में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार 2004 से काम कर रही है। हम लोगों ने 13 राज्यों के लिए 42 क्रापिंग सिस्टम (जैविक खेती के लिए कब क्या बोया जाए) तैयार किया है। आने वाले दिनों में इसे 50 क्रापिंग सिस्टम तक पहुंचाएंगे।”
नौकरी के बाद अब जैविक खेती का सहारा
मोदीपुरम के पास ही मेरठ के भट्टीपुरा गाँव के युवा प्रगतिशील किसान नितिन काजला 2014 से पहले एक फार्मा कंपनी में बड़े पद पर थे, लेकिन अब वो जैविक खेती करते हैं और साकेत नाम की संस्था बनाकर देश भर में जैविक खेती को बढ़ावा दे रहे हैं।
“भारत की खेती बदलाव के दौर में है। ज्यादा लागत के चलते जो खेती नुकसान का धंधा हुआ करती थी वो जैविक के चलते मुनाफा का सौदा बनी है। लाखों रुपए महीने की नौकरी करने वाले युवा किसान बन रहे हैं। मेरे जैसा किसान साढ़े तीन लाख रुपए एक एकड़ गुड़ से कमाता है।” नितिन कहते हैं।
भारत में खेती के सामने दो चुनौतियां हैं। खाने में कीटनाशक न हों और बढ़ रही जनसंख्या के लिए पर्याप्त भोजन भी उपलब्ध हो। मैं ये तो नहीं कहता है तुरंत पूरी खेती को 100 फीसदी जैविक में बदल दिया जाए लेकिन आने वाले एक दशक में खेती का स्वरूप जरूर बदल जाएगा। – डॉ. एएस पंवार, निदेशक, भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान, मोदीपुरम, मेरठ
वहीं, मुंबई और दिल्ली जैसे शहर में 11 साल तक एक बैंक में वरिष्ठ पद पर काम कर चुके प्रतीक शर्मा का नया ठिकाना मध्य प्रदेश में होशंगाबाद जिले के ढाबाखुर्द गाँव है। जहां वो कैमिकल मुक्त खेती करते हैं। प्रतीक के मुताबिक खेती का नया दौर शुरू हो चुका है।
“जैविक खेती समय की मांग और जरूरत दोनों हैं। लेकिन अभी ये वैसी है जैसे पहले ‘मेरू’ टैक्सी हुआ करती थी, एक किलोमीटर के 28 रुपए लेती थी अब ओला-ऊबर 6-8 रुपए लेती हैं। जैविक खेती के खर्च को कम करना है। किसान को चाहिए कि शुरुआत में पोषण और फसल सुरक्षा जैसे चीजों को लेकर 70 फीसदी चीजें घर पर बनाएं और 30 फीसदी बाजार पर निर्भर रहे। बाद में ये आंकड़ा 95-05 फीसदी तक पहुंचाना होगा।” प्रतीक बताते हैं।
लेकिन जैविक खेती की राह इतनी आसान नहीं। कीट पतंगों से लेकर खरपतवार तक को रसायनिक कीटनाशकों से खत्म करने या काबू करने को अभ्यस्त हो चुके किसान के पास जैविक तौर पर ऐसे विकल्प नहीं हैं।
जैविक खेती की राह में तीन बड़ी समस्याएं
“जैविक खेती की राहत में तीन बड़ी समस्याएं थीं, उत्पादन, रोग और खरपतवार। कीटनाशकों पर हम लोगों ने काफी हद तक काम कर लिया है, लेकिन खरपतवार में बड़ी सफलता नहीं मिल पाई है। कोशिश है कि आने वाले 2-3 वर्षों में ऐसे हर्बल तत्व खोज पाएंगे तो खरपतवार की बाढ़ रोक पाएंगे।” डॉ. एएस पंवार, निदेशक, भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान (आईआईएफएसआर), मोदीपुरम, मेरठ बताते हैं।
जैविक खेती करने वाले ज्यादातर किसानों ने माना कि वो जो कुछ कर रहे हैं वो अपने बल पर है। न तो उन्हें अलग से कोई सहयोग मिलता है न ही बाजार दिलाने में मदद की जाती है।
किसानों को खेती किसानी से जुड़ी सूचनाएं देकर उन्हें जागरूक करने वाली हरियाणा की संस्था किसान संचार की टीम ने पिछले दिनों 7 राज्यों में 38 दिनों तक यात्रा की। इस दौरान टीम के सदस्यों ने करीब 1500 किसानों से मुलाकात की। किसान संचार के निदेशक कमलजीत गाँव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं,”शोध यात्रा के दौरान हम लोगों ने करीब 55 बैठकें की। हमें वो किसान ज्यादा सुखी नजर आए तो जैविक तरीकों से खेती कर रहे थे। खेती कैसी करनी है और उसके उत्पाद कहां बेचने हैं ये किसान का काम है। किसानों को बाजारू माल प्रैक्टिस के कुचक्र से निकलने के रास्ते खुद ही निकालने होंगे और आर्थिक तौर पर संगठित होना होगा।”
कमलजीत ने अपनी यात्रा के दौरान राजस्थान से लेकर जम्मू-कश्मीर तक के प्रगतिशील और अपने स्तर पर बेहतर काम करने वाले किसानों के कार्यों को संकलित किया है।
“हमें वो किसान ज्यादा सुखी नजर आए तो जैविक तरीकों से खेती कर रहे थे। खेती कैसी करनी है और उसके उत्पाद कहां बेचने हैं ये किसान का काम है। किसानों को बाजारू माल प्रैक्टिस के कुचक्र से निकलने के रास्ते खुद ही निकालने होंगे और आर्थिक तौर पर संगठित होना होगा।” कमलजीत, निदेशक, किसान संचार
जैविक खेती, जीरो बजट खेती और प्राकृतिक खेती
बिना रासायनिक खादों और कीटनाशकों की खेती भारत में मुख्य रूप से तीन तरह से प्रचलित है, जैविक खेती, देसी गाय पर आधारित जीरो बजट और प्रकृति के साथ मिलकर प्राकृतिक खेती। पद्मश्री सुभाष पालेकर को जीरो बजट खेती का जन्मदाता कहा जाता है। आंध्र प्रदेश की चंद्रबाबू नायडू सरकार ने उन्हें अपना सलाहकार भी बनाया है। यूपी में बुलंदशहर के भारत भूषण त्यागी प्रकृति के साथ सहफसली और मिश्रित खेती के तरीके सिखाते हैं।
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सेहत को लेकर बढ़ती लोगों की जागरुकता ने जहर मुक्त खेती को बाजार देने का काम किया है। दिल्ली समेत कई शहरों में जैविक उत्पादों की अलग से बाजार लगने शुरू हुए हैं तो मॉल कल्चर में भी इनकी मांग तेजी से बढ़ी है। हालांकि ऐसी खेती करने वाले किसानों का ज्यादातर बाजार उनके नेटवर्क पर निर्भर है।
जहरीला खाना खाकर कब तक जिएंगे। अगर कीटनाशक और उर्वरकों से दूरी नहीं बनाई तो भारत नहीं बचेगा। खेती को बंजर और खुद को बीमार होने से बचाने के लिए जरूरी है जैव-विविधता वाली खेती हो। जलवायु परिवर्तन से बचाने का कोई उपाय है तो है देसी तरीकों से खेती। – वंदना शिवा, पर्यावरणविद
देश के खेती और कृषि उत्पादों की बढ़ती मांग और बदलते पैटर्न पर राकुश दुबे कहते हैं, “मैं ये नहीं कहता कि सभी किसान जैविक की तरफ जाना चाहते हैं, लेकिन ये तय है कि वो रासायनिक खेती से मुक्ति जरूर चाहते हैं।”
ताकि कम हो सके खेती की लागत
केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री पुरुषोत्तम रुपाला अपने सवाल के जवाब में आगे बताते हैं, “वर्मी कंपोस्ट, जैविक, जैव उर्वरक, सिटी उर्वरक और वेस्ट डीकंपोजर के जरिए इन योजनाओं को बढ़ावा देकर किसानों को प्रेरित किया जा रहा है, जिससे खेती की लागत कम होती है।” उन्होंने आगे कहा, “परंपरागत कृषि विकास योजना 2014 में राष्ट्रीय स्तर पर लागू की गई थी। योजना के तहत 2015-18 के लिए कुल आवंटित राशि 947 करोड़ रुपए है, जिसके तहत कुल 11,891 कलस्टरों के लिए 582.47 रुपए की धनराशि जारी की जा चुकी है। योजना के तहत 2,37,820 हेक्टेयर भूमि को जैविक खेती भमि में बदला गया है और 3,94,550 किसान लाभान्वित हुए हैं। इन योजनाओं का जोर उत्तर पूर्व और पहाड़ी राज्यों में है।”