लखनऊ। फ़सल बरबाद करने वाला मौसम आ गया। अधिकारियों की हीलाहवाली, भ्रष्टाचार और किसानों को ठगने का मौसम आ गया।
वर्ष 2013 के बाद लगातार तीसरी बार रबी की फसल बेमौसम बारिश, आंधी और फिर ओले गिरने से बर्बाद हो गयी। बेमौसम बारिश से उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड के जि़ले हमीरपुर, जालौन और बांदा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिले मेरठ, आगरा, मुजफ्फरनगर सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। उत्तर प्रदेश के अलावा पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे मैदानी राज्यों में फसलों को हानि पहुंची।
कमाई के लिहाज़ से साल की सबसे ज़रूरी फसल आंखों के सामने गंवा चुके किसान किसी मदद के इंतज़ार में हैं। नियमों के अनुसार 33 प्रतिशत नुकसान होने पर ही सरकार से राहत मिलती है, लेकिन किसानों के अनुसार ज़मीनी राजस्व अधिकारी नुकसान को कम ही दिखाते हैं। यदि सही दिखाया भी तो बाद में राहत देने के लिए घूस का मोल-भाव चलता है।
“सर्वे करने वाला मुख्य आदमी लेखपाल होता है, जो कि इतना टेढ़ा व्यक्ति होता है कि उस पर डीएम की भी नहीं चलती।” बुंदेलखण्ड किसान यूनियन के अध्यक्ष गौरी शंकर बिधुआ ने बताया।
“हर खेत पर जाने के बजाए लेखपाल प्रधान के घर जाकर, उससे रुपए लेकर उसके समर्थकों का नाम चढ़ा देता है, या अंदाजे से सब तय हो जाता है। जब राहत का चेक आए तो वो सौंपने के लिए भी घूस दो,” बिधुआ ने गाँव कनेक्शन से बताया।
नुकसान जांचने की मौजूदा प्रणाली के अनुसार तहसील स्तर पर लेखपाल अपने तहत आने वाले गाँवों के हर खेत में जाकर वहां का सर्वे करके नुकसान की रिपोर्ट तैयार करते हैं।
“भ्रष्टाचार नुकसान जांचने और फिर मुआवज़ा बांटने के स्तर पर ही होता है, तो सबसे आसान यह है कि नुकसान के सर्वे में गाँव वालों को शामिल करके वीडियोग्राफी की जाए, जो कि फोन से भी हो सकती है, और फिर मुआवज़ा पूरे गाँव की बैठक बुलाकर बांटा जाए, क्योंकि अगर किसी को ग़लत मुआवज़ा मिलेगा तो गाँव के लोग विरोध करेंगे,” उत्तर प्रदेश योजना आयोग के सदस्य प्रोफेसर सुधीर पंवार ने गाँव कनेक्शन से कहा। प्रोफेसर पंवार पुरानी राजस्व व्यवस्था को ही सही मानते हुए उसमें नई तकनीक के समायोजन के पक्षधर हैं। “लेखपालों की संख्या बहुत कम है, अतिरिक्त काम भी हैं, ऐसे में उसके सर्वे की सत्यता पर सवाल जायज़ हैं। इसलिए अब जब आपदाएं कभी-कभी नहीं, हर साल ही आ रही हैं, तो नई तकनीकी को अपनाने पर हमें विचार ज़रूर करना चाहिए,” प्रोफेसर पंवार ने बताया।
अमेरिका और कई यूरोपिय देश फ़सल नुकसान के आंकलन के लिए ड्रोन तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। ड्रोन दरअसल छोटे आकार के मानव रहित विमान होते हैं जिन्हें रिमोट के ज़रिए संचालित किया जाता है। इन ड्रोन्स के माध्यम से कैमरे पर सीधे नुकसान की तस्वीरें और डाटा जुटाया जा सकता है।
लखनऊ के युवा इंजीनियरों ने बनाया ख़ास ड्रोन कैमरा
लखनऊ के ऐरोनॉटिकल इंजीनियरिंग के छात्र अमनदीप पंवार और उनके दोस्तों ने मिलकर एक ड्रोन कैमरा विकसित किया है जिसका इस्तेमान एक दिन में 100 एकड़ फसल के सर्वे के लिए किया जा सकता है। ड्रोन छोटे आकार के मानव रहित विमान होते हैं जिन्हें रिमोट के ज़रिए संचालित किया जाता है। इन पर कैमरा लगा कर ड्रोन्स के माध्यम से सीधे नुकसान की तस्वीरें और डाटा जुटाया जा सकता है।
“हमने पचास लाख रुपए की लागत से एक ड्रोन तैयार किया है, जिसके ख़ास तरह के लैंस से एक बार में हम मिट्टी, फसल की स्थिति, यदि वो गिर गई है तो उसमें बची नमी, या कोई कीड़ा-रोग सबका एक साथ डाटा जुटाकर पता लगा सकते हैं,” अमनदीप ने गाँव कनेक्शन को बताया।
उन्होंने ‘भारत रोहन’ नामक खुद की संस्था पंजीकृत कराई हैं, जिसके तहत ये लोग ड्रोन तकनीक पर शोध करते हैं। खेती में ड्रोन की उपयोगिता को देखकर ही केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान (सीमैप) ने भारत रोहन के साथ मेंथा फसल के पायलट सर्वे के लिए करार किया है, जो जल्द ही शुरू हो जाएगा।
“आपदा की स्थिति में सर्वे के लिए ड्रोन तकनीक इसलिए बेहतर है क्योंकि जब सरकार सैटेलाइट का प्रयेाग करती है तो उसका रेसोल्यूशन कम होता है जबकि ड्रोन के ज़रिए आप फसल का 40 मीटर ऊंचाई से सर्वे कर सकते हैं,” अमनदीप बताते हैं. “हमारे यहां छोटे से इलाके में कई तरह की फसलें होती हैं, जिन्हें पहचानने की क्षमता भी ड्रोन में सैटेलाइट के मुकाबले ज्यादा होती है।” अमनदीप के अनुसार सरकार या बीमा कंपनियां पहले सैटेलाइट की मदद से बहुत बड़े स्तर पर यह पता लगा सकते हैं कि किन राज्यों और किन जि़लों में नुकसान हुआ है, फिर इस नुकसान को जांचने के लिए ड्रोन से खेतों का सर्वे एक दम सही-सही कर सकते हैं।
वर्ष 2015 में केंद्र सरकार ने भी पिछले साल्र भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की मदद से ड्रोन के ज़रिए खेती के आंकड़े जुटाने का पायलट चलाने पर समझौता किया था।