2015 में सरकार ने 412 करोड़ रुपये की लागत से परंपरागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) शुरू की। इसका मकसद था परंपरागत संसाधनों के इस्तेमाल से देश भर में जैविक खेती को बढ़ावा देना। लेकिन विडंबना यह है कि जैविक खेती का सबसे अहम तत्व गाय के गोबर से बनी खाद खेतों से ही गायब है। वहीं रोजाना, गाय का हजारों टन गोबर खेतों में जैविक खाद के रूप इस्तेमाल होने की जगह, कंडे बनाने में प्रयोग हो रहा है।
हरित क्रांति के दौरान सघन खेती में टनों केमिकल फर्टिलाइजर डाला गया। परिणामस्वरूप देश की मिट्टी जैविक तत्वों की कमी, पीएच के असंतुलन और सूक्ष्म पोषक तत्वों से खाली होकर बीमार सी हो गई है। इसे देखते हुए ऐसे उपाय खोजने को प्राथमिकता देनी चाहिए थी जिनके जरिए गाय के गोबर का खेती में अधिक से अधिक इस्तेमाल हो सके। गाय का गोबर जैविक कार्बन तत्व का अहम स्रोत है जिससे मृदा का स्वास्थ्य संवरता है, फसलों की उत्पादकता बढ़ती है और फसलों के उत्पादन की स्थिरता सुनिश्चित होती है, जोकि वर्तमान समय में भारतीय कृषि की असल चुनौती है।
लेकिन गलत कृषि नीति की वजह से किसान को हो रहे आर्थिक नुकसान की परवाह किसी को नहीं है। कृषि मंत्रालय खाद्यान्नों के रिकॉर्ड उत्पादन का डंका पीटने के लिए दशकों पुराने चावल-चावल या चावल-गेहूं फसल चक्र से ही खुश है भले ही वे सड़ते रहें। लेकिन इसके बाद भी वह इस फसल चक्र में फली वाली दलहन या तिलहन फसलों की शुरूआत नहीं करता, जबकि ऐसा करने से मिट्टी की सेहत सुधरती और सूक्ष्म पोषक तत्वों का संतुलन बेहतर होता।
अब ऑर्गेनिक या जैविक का नारा लगाकर भारतीय खेती में क्रांति लाने और किसानों की आय दोगुनी करने की बातें की जा रही हैं। आज देश भर में करोड़ों रुपये खर्च करके जैविक खेती के प्रमाणन की योजनाएं चलाई जा रही हैं। लेकिन सबसे विरोधाभासी बात यह है कि जिस क्षण सरकारी पैसा खर्च करके किसी राज्य की हजारों हेक्टेयर जमीन को जैविक खेती के तहत होने का दर्जा मिलता है, उसी क्षण वह किसानों के भरोसे छोड़ दी जाती है। ये निपट अकेले किसान अपनी व्यक्तिगत क्षमता में जैविक खेती और जैविक उत्पाद की मार्केटिंग का प्रबंधन करने में सक्षम नहीं हैं, धीरे-धीरे वे फिर से रासायनिक खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल करने लगते हैं। अधिकांश राज्यों की यही हकीकत है, वहां यही हो रहा है।
इसके अलावा, बाजार में इस समय जैविक खाद जैसे जैविक आदानों की क्वॉलिटी कंट्रोल के नाम पर कोई व्यवस्था नजर नहीं आती। बायो-फर्टिलाइजर के नाम पर मिट्टी बेची जा रही है। इन जैविक आदानों में जरूरी फायदेमंद सूक्ष्मजीव, बैक्टीरिया वगैरह निर्धारित मात्रा में नहीं पाए जाते। यह जैविक खेती करने वाले किसानों का शोषण ही तो है।
आखिर में, जैविक उत्पादों को बाजार में बेहतर कीमत मिले इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार या कॉरपोरेट जगत का कोई भी प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण नहीं है। इसका नतीजा यह होता है कि कई बार बाजार में जैविक उत्पाद को सामान्य उत्पादों से भी कम रेट मिलते हैं। मसलन, सिक्किम के जैविक उत्पाद पास के सिलिगुड़ी मार्केट में बिकते हैं वह भी लगभग उसी रेट में जिस पर सामान्य उत्पाद। ऐसी स्थिति में यह सोचना कि जैविक खेती में बढ़ोतरी हो या उससे मुनाफा हो, दूर की कौड़ी लगता है।
(लेखक आईसीएआर, गुजरात के निदेशक रह चुके हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)