कृषि वैज्ञानिकों की दुनिया में डॉ. रमेश रलिया का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वे दुनिया में ‛नैनो टेक्नोलॉजी’के जाने माने साइंटिस्ट्स में शुमार हैं।
जोधपुर के समीप छोटे से गाँव खारिया खंगार से निकले इस युवा का लोहा आज पूरी दुनिया मान रही है। वे अब तक 60 से अधिक देशों की विभिन्न संस्थाओं के प्रतिनिधियों के साथ काम कर चुके हैं। कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से नवाज़े गए डॉ. रलिया इन दिनों वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में वैज्ञानिक हैं । बीते दिनों अमेरिका में उनसे लम्बी बात हुई। प्रस्तुत है यह लेख…
मेरा बचपन और मेरे माता-पिता…
डॉ. रमेश बताते हैं,”मां भंवरी देवी और बाऊजी पारसराम दोनों किसान हैं। गाँव में आज भी पारम्परिक विरासत के रूप में खेती करते- सहेजते हैं। मां 5वीं तक पढ़ी हैं। बाऊजी इंटर पढ़ने के बाद राजस्थान रोड़वेज में कुछ महीनों तक नौकरी पर रहे। बाद में दादी जी के कहने पर खेड़ी-बाड़ी से जुड़ गए। आज मां-बाऊजी दोनों कंप्यूटर का इस्तेमाल करते हैं। अब, जब मैं अमेरिका में हूं, मुझे ईमेल भेज देते हैं। वेबसाइट पर जाकर हिंदी-इंग्लिश दोनों भाषाओं के न्यूज़ पेपर पढ़ लेते हैं। मां चाहती हैं कि उनकी तरह ही खेतों में काम करने वाले सभी कृषक कंप्यूटर सीखें, जिससे वो देश दुनिया से सीधे जुड़ सकें।”
साल 2006 तक कृषि वैज्ञानिक बनने का कोई सपना नहीं था…
वे बताते हैं, “मैंने कृषि वैज्ञानिक बनने के बारे में वर्ष 2006 तक तो सोचा ही नहीं था, मन में यही सपना रहता था कि किसान और खेतों में जान झोंकने वाले लोगों के जीवनस्तर में सुधार कैसे लाया जाए। सही मायनों में मेरा कृषि वैज्ञानिक होना तब कारगर साबित हो पाएगा, जब मेरे ज्ञान का फायदा भारत और अमेरिका सहित सहित देश-विदेश के सभी किसानों तक पहुंचेगा और उनके जीवनस्तर में उत्थान लाएगा।”
बीएससी में आने पर साइकिल मिली…
अपने बचपन और अभावों की बात करते हुए उन्होंने बताया, “साल 2001 में कक्षा 10वीं तक घर से करीब पांच किलोमीटर दूर गाँव के सरकारी माध्यमिक विद्यालय में पढ़ने पैदल जाया करता। फिर साल 2003 में विज्ञान विषय से 12वीं गाँव रतकुडिया के सरकारी स्कूल से पास की। साइकल भी पहली बार कॉलेज में आने पर बीएससी फर्स्ट ईयर के दौरान मिली। पहली बार कंप्यूटर भी बीएससी सेकंड ईयर में प्रयोग किया। यह सब आज इसलिए बता रहा हूं कि इस धरती पर जीवन को सार्थक बनाने की सभी जरूरी सुविधाएं आप के पास पहले से मौजूद हों, जरूरी नहीं। ” वह आगे कहते हैं, “अब परिस्थितियों ने करवट ली है, 2013 से वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत हूं और अभी एंटरप्रेन्योर रहते हुए करीब दो साल से अमेरिका में अपना स्टार्टअप भी चला रहा हूं।”
…और हुआ काजरी में चयन
डॉ. रलिया बताते हैं, “साल 2009 में भारत में विश्व बैंक द्वारा कृषि नैनो टेक्नोलाजी के पहले प्रोजेक्ट में रिसर्च एसोसिएट के रूप में काजरी में चयन हुआ। सौभाग्य से जिस लैब में काम किया, वहां काम करने की पूरी स्वंतत्रता मिली। उस समय के मेरे इमीडियेट सुपरवाइजर डॉ. जेसी तरफ़दार, काजरी निदेशकों डॉ. केपीआर विट्ठल, डॉ. एमएम रॉय का आभारी हूं, जिनके प्रशानिक सहयोग की वजह से 4 साल में ही 4 पेटेंट फाइल हुए और पीएचडी के दौरान ही नैनो टेक्नोलॉजी पर करीब 20 पब्लिकेशन और एक किताब पब्लिश की।”
और अमेरिका से बुलावा आया…
अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि के बारे में बताते हुए डॉ. रलिया कहते हैं,”पीएचडी के दौरान वाशिंगटन यूनिवर्सिटी, अमेरिका से वहां के डिपार्टमेंट हेड ने मेरी काजरी की लैब विजिट की, हमारा रिसर्च वर्क देखा। उनके साथ खाना खाते वक़्त रिसर्च की बातें हुईं। जब उन्हें गेस्ट हाउस तक छोड़ने गया तो उन्होंने कहा कि यदि तुम वाशिंगटन यूनिवर्सिटी ज्वाइन करना चाहो तो मैं तुम्हें पोजीशन ऑफर कर सकता हूं। लेकिन मैंने पीएचडी पूरी करने एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद में कृषि वैज्ञानिक चयन मंडल की परीक्षा देकर जाने का निर्णय लिया, जिसे वाशिंगटन यूनिवर्सिटी ने स्वीकार कर लिया।”
आखिर नैनो टेक्नोलॉजी है क्या?
नैनो टेक्नोलॉजी विज्ञान की वह शाखा है, जिसमें ऐसे इंजीनियर्ड अणुओं का अध्ययन किया जाता है, जिनका आकार उनकी संरचना के किसी एक स्केल पर एक से सौ नैनोमीटर के मध्य होता है। एक मीटर का एक अरबवां हिस्सा एक नैनोपार्टिकल होता है। एक नैनोमीटर तक के छोटे पार्टिकल्स को देखने के लिए इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी की जरूरत होती है। वैसे कुछ नेचुरल नैनोपार्टिकल्स भी होते हैं, जैसे वायरस, डस्ट, साल्ट के कुछ पार्टिकल्स एव कोशिकाओं में पाई जानी वाली सरंचनायें आदि।
भविष्य में कारगर होगी नैनो टेक्नोलॉजी
बहुत छोटा आकार होने के कारण नैनो पार्टिकल्स का वॉल्यूम की तुलना में सरफेस एरिया अपने वृहद पॉर्टिकल्स की तुलना में बहुत अधिक होता है, इस गुण के कारण इसको बहुत से अनुप्रयोगों के लिए उपयोग किया जाता है जैसे कि ऊर्जा उत्पादन एव सरंक्षण, वाटर प्यूरीफिकेशन, कंप्यूटर टेक्नोलॉजी, हेल्थ एव मेडिसिन, पर्यावरण और कृषि।
कृषि और पर्यावरण में रहेगा योगदान
कृषि एवं पर्यावरण का आपस में एक जुड़ाव रहता है। जब एक होलिस्टिक अप्प्रोच से सस्टेनेबल और प्रिसिजन एग्रीकल्चर करते हैं विशेषकर फार्म इनपुट से लेकर पोस्ट हार्वेस्टिंग प्रोसेसिंग तक के सभी स्टेप्स में इस तकनीक के उपयोग हेतु शोध हो रहे हैं। जैसे नैनो फ़र्टिलाइज़र एव आर्गेनिक नैनो पेस्टीसाइड, पोस्ट हार्वेस्टिंग पैकेजिंग स्टोरेज प्रमुख हैं।
वरदान साबित होगी नैनो टेक्नोलॉजी
अभी नए शोध में इसके उपयोग फलों एव खाद्य पदार्थों में पैथोजन, डीएनए एवं केमिकल को डिटेक्ट करने के सेंसर एव नुट्रिशन बढ़ाने के लिए हो रहे हैं। इन सेंसर से आम कस्टमर बड़ी आसानी एवं त्वरित रूप से जेनेटिकली मॉडिफाइड और केमिकल फ़र्टिलाइज़र पेस्टिसाइड की मात्रा एवं नूट्रिएशन की मात्रा को जांच सकेंगे।
‘भारतीय प्रयोगशालाओं में बेहतरीन काम हो रहे हैं’
डॉ. रलिया आगे बताते हैं, “भारत में बहुत सी प्रयोगशालाओं, संस्थानों में बेहतरीन काम हो रहे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि जिस तरह से सिस्टम में विभिन्न स्तर (प्रसाशनिक एवं नीतिगत तौर) पर और अधिक कॉर्डिनेशन, रिकग्निशन, वेलिडेशन एवं समय पर अवसर को पहचान कर उसको उपयोग करने की जरूरत है, विशेषकर नागरिक हो या नौकरीदार सभी को अपनी जिम्मेदारी के प्रति एकाउंटेबिलिटी एव रिस्पांसिबिलिटी को बहुत अधिक बढ़ाना होगा जिससे मेहनतकश, ईमानदार लोग आगे बढ़ सकें, जैसा कि भारत के संविधान में कल्पना की गई है।”
डॉ. रमेश आगे बताते हैं, “आज तक करीब 60 से अधिक देशों एवं संस्थानों के लोगों के साथ विभिन्न स्तर पर काम कर चुका हूं। भारत के लोग बहुत ही मेहनती हैं, बशर्ते उनकी मेहनत का सही मूल्य दे सकें, मूल्यांकन कर सकें। आप विश्व में किसी भी सेक्टर की किसी भी कंपनी के सीनियर मैनेजमेंट को देखिये, उसमें भारतीयों को प्रमुखता देख पाएंगे। कुछ उदाहरण देना चाहूंगा- जिससे पाठक सोच सकें एवं खुद से और अपने नीति निर्धारकों से सवाल पूछ सकें- जब सुंदर पिचाई, सत्य नडेला गूगल एवं माइक्रोसॉफ्ट को अमेरिका में लीड कर सकते हैं तो भारत में क्यों नहीं?”
आगे बताते हैं, “खुराना या वैंकी को नोबेल जैसा काम करने के लिए किसी अन्य देश की नागरिकता की क्यों जरूरत क्यों पड़ी? ऐसा नहीं कि यह लोग या ऐसे भारत में काम नहीं करते, उनको समय पर अवसर देने वालों की कमी पहले भी थी, एवं आज भी अधिकतर जगहें हैं, जिससे मेहनत करने वाला अपने आप को असंतुष्ट पाता है। इसका एक ही समाधान है, देश के हर नागरिक को सविंधान में लिखी जिम्मेदारी के प्रति एकाउंटेबिलिटी एव रिस्पांसिबिलिटी को बखूबी निभाना होगा।”
‘यह तकनीक देश के किसानों को लाभ दे सकती है’
डॉ. रमेश बताते हैं, “दो तरीकों से भारत में नैनो फ़र्टिलाइज़र सस्ते दर पर लाया जा सकता है या किसानों को दिया जा सकता है- भारत सरकार अपने उपक्रमों में इसे बनाए या अर्ली स्टेज टेक्नोलॉजी को अडॉप्ट करके उसको इंडिजीनियस तरीके से बढ़ाए।” आगे कहा, “मैंने तीसरा सुझाव बनाया कि हर कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) में आर्गेनिक तरीके से नैनो फ़र्टिलाइज़र और नैनो पेस्टिसाइड यूनिट लगें और किसानों को इसकी ट्रेनिंग दी जाए, जिससे न केवल लोकल स्तर पर लोगों को रोजगार मिलेगा, बल्कि खाद इम्पोर्ट करने के लाखों करोड़ रुपए भी बच सकेंगे। इससे खेती योग्य सस्ता एवं बेहतरीन खाद बनाया जा सकता है, जिससे फसल उत्पादन में कई गुणा वृद्धि होगी, जैसा हमने विभिन्न देशों में किए हमारे परीक्षणों में पाया।”
बात नैनो खाद के मूल्य की…
डॉ. रमेश बताते हैं, “पचास किलो के एक फ़र्टिलाइज़र बैग की कीमत किसान करीब 1200 रुपया (सरकारी सब्सिडी के बाद) देता है एवं इसको करीब एक हेक्टेयर में डालता है। अब यदि आपको एक उत्पाद जो आपने नैनो टेक्नोलॉजी से बनाया, जिसका भार करीब 4-5 किलो है, जिसकी कीमत भी 1200 रुपये है, जिसको आप एक हेक्टेयर के खेत में डालते हैं। जब आप फसल की हार्वेस्टिंग करते हैं, तो पाते हैं कि जिसमें 4-5 किलो नैनो टेक्नोलॉजी वाला खाद डाला वहां, फसल 50 किलो वाली खाद की तुलना 1-3 फीसदी अधिक हुई है, बस यही नैनो टेक्नोलॉजी का कांसेप्ट है।”
डॉ. रमेश आगे बताते हैं, “यह प्रेसिसीज़िन एव सस्टेनेबल एग्रीकल्चर है जो उसके वॉल्यूम की तुलना में अधिक सरफेस एरिया होने का फायदा देती है। यदि कोई किसान भाई या पालिसी मेकर्स इसको पढ़ रहे हैं तो उन्हें यह भी बताना चाहूंगा कि विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत में औसत एक खेत में किसान एक वर्ष में करीब 160-200 किलो खाद प्रति हेक्टेयर की दर से डालता है। भारत सरकार के विभागीय आंकड़ों के मुताबिक सरकार सालाना करीब 70,000 करोड़ से अधिक की सब्सिडी खाद कंपनियों को देती है। हमारे स्टार्टअप के रिसर्च एंड एनालिसिस विंग ने इसका एक प्राइस मॉडल तैयार किया है जो फसल के प्रकार, जमीन की उर्वरा क्षमता तथा क्लाइमेट कंडीशन के आधार पर खाद की मात्रा एव उसके प्रयोग के तरीकों को बताता है, जिससे कम इनपुट से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।”
‘तो किसान की मानसिकता और अर्थव्यवस्था भी बदलेगी’
डॉ. रलिया आगे बताते हैं, “विश्व में खेती करने वाले प्रमुख देशों में किसानों की संख्या लगातार घटती जा रही है, लेकिन ज्यादातर ऐसे प्रमुख देशों में खाद्यान्न की आत्मनिर्भरता है। इसके प्रमुख कारणों में मशीनीकरण, वैज्ञानिक सोच एवं वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग आदि है। भारत की दृष्टि से यदि में कहूं तो अभी भी जमीन की उपलब्धता के हिसाब से पर्याप्त संख्या में किसान मौजूद हैं, लेकिन भारत के किसानों में अधिकतर किसान कम या बिलकुल पढ़े लिखे नहीं हैं, अधिकतर किसान आज भी उसी तरीके से खेती करते हैं जो तरीका उनके पूर्वज 30-40 वर्ष पूर्व इस्तेमाल करते थे।”
डॉ. रमेश ने आगे बताया, “आज की परिस्थितियों में वैज्ञानिक, इकोलॉजिकल एंड एनवायर्नमेंटल अंतर आया है। मृदा की क्षमता तथा पानी की उपलब्धता की दर बदल चुकी है, इसलिए भारत एव राज्यों की सरकारें पढ़े लिखे युवा किसानों को खेती के लिए आकर्षित करें, जैसा अमेरिका और यूरोप में होता है। लेकिन इसके लिए सरकार को कुछ नीतिगत बदलाव करने पड़ेंगे, जिससे युवाओं को लगे की खेती एक सिक्योर फ्यूचर एव लाभदायक तथा सम्मान का धंधा है क्योंकि अभी इसी के कारण युवा पलायन कर रहे हैं। वो खेती से आधा कमाएगा पर फैक्ट्री का मजदूर बनना पसंद करेगा, लेकिन खेती नहीं करेगा। इस मानसिकता को अवसर पैदा करके बदलने की जरूरत है।”
मान सम्मान…
● टैलेंट सर्च स्कॉलरशिप 1999-2003
● आईसीएआर द्वारा रिसर्च एसोसिएट फेलोशिप 2009-2013
● आनरेरी फेलो अवार्ड (सोसाइटी फ़ॉर एप्लाइड बायोलॉजी एंड बायोटेक्नोलॉजी) 2012
● एग्रीकल्चरल रिसर्च सर्विस- नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट- एग्रीकल्चरल बायोटेक्नोलॉजी 2013
● भारत ज्योति अवार्ड एंड सर्टिफिकेट ऑफ एक्सीलेंस 2013
● गॉर्डोन रिसर्च कॉन्फ्रेंस चेयर अवार्ड 2015
● लीप इन्वेंटर चैलेंज अवार्ड, वाशिंगटन यूनिवर्सिटी द्वारा, 2016, 2017
● ग्लोबल बायोटेक्नोलॉजी अवार्ड (फाइनलिस्ट), यूके 2017
● डॉ एपीजे अब्दुल कलाम गोल्ड मैडल 2017
● ग्लोबल इम्पेक्ट अवार्ड (फाइनलिस्ट) डब्ल्यूयूएसटीएल- 2017, 2018
संपर्क करें– डॉ रमेश रलिया, वैज्ञानिक, वाशिंगटन यूनिवर्सिटी, अमेरिका
ईमेल rameshraliya@wustl.edu
वेबसाइट https://sites.wustl.edu/rameshraliya/
( मोईनुद्दीन चिश्ती, लेखक कृषि और पर्यावरण पत्रकार हैं)