अप्रैल-मई महीने में लीची के पेड़ों पर फल लग जाते हैं, ऐसे में लीची के बाग में कई तरह के रोगों का प्रकोप भी बढ़ जाता है। इस समय बागवान कुछ बातों का ध्यान रखकर नुकसान से बच सकते हैं।
किसानों को लीची में समय-समय पर लगने वाले रोगों के बारे में जानकारी होना चाहिए ताकि समय पर लीची में समय से रोकथाम की जा सके और नुकसान से बचा जा सकते हैं।
लीची फसल की फसल में लगने प्रमुख रोग और उनसे बचने के उपाय
श्यामवर्ण रोग ‘एन्थ्रेकनोज’
लक्षण: यह रोग कोलेटोट्रीकम ग्लियोस्पोराइडिस (colletotrichum gloeosporioides) नाम के कवक के संक्रमण से होता है। इस रोग के लक्षण लीची में फलों पर दिखाई देते हैं। रोग के संक्रमण की शुरुआत फल पकने के 15 से 20 दिन पहले होती है पर कभी-कभी लक्षण दृष्टिगोचर फल तुड़ाई के बाद तक हो सकते हैं। फलों के छिलकों पर छोटे-छोटे ;0.2 से 0.4 सेमी गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जो आगे चलकर एक दूसरे से मिलकर काले और बड़े आकर के ;0.5 से 1.5 सेमी धब्बों में परिवर्तित हो जाते हैं। रोग तीव्रता की स्थिति में काले घब्बों का फैलाव फल के छिलकों पर आधे हिस्से तक हो सकता है। उच्च तापमान और आर्द्रता रहने पर रोग का संक्रमण और फैलाव बड़ी तेजी से होता है। अक्सर रोग के कारण फलों के छिलके ही प्रभावित होते हैं, पर इस वजह से ऐसे फलों का बाजार मूल्य गिर जाता है।
रोकथाम: बचाव के लिए मैन्कोजेब या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल ;0.2 प्रतिशत का छिड़काव करें।
रोग की तीव्रता ज्यादा हो तो रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्ल्यू पी या क्लोरोथैलोनिल 75 प्रतिशत डब्ल्यू पी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
पत्ती और कोपल झुलसा
लक्षण: यह रोग लीची में कवक की कई प्रजातियों से हो सकता है। इस रोग से पौधों की नई पत्तियां और कोपलें झुलस जाती हैं। रोग की शुरुआत पत्ती के सिरे पर उत्तकों के मृत होने से भूरे धब्बे के रूप में होती है। जिसका फैलाव धीरे-धीरे पूरी पत्ती पर हो जाता है। रोग की तीव्रता की स्थिति में टहनियों के ऊपरी हिस्से झुलसे दिखते हैं।
रोकथाम: बचाव के लिए मैन्कोजेब या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल (0.2 प्रतिशत) का छिड़काव करें।
रोग की तीव्रता ज्यादा हो तो रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्ल्यू पी या क्लोरोथैलोनिल 75 प्रतिशत डब्ल्यू पी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
फल विगलन
लीची फलों का विगलन रोग कई प्रकार के कवकों जैसे. एस्परजिलस स्पीसीज, कोलेटोटाइकम ग्लिओस्पोराइडिस, अल्टरनेरिया अल्टरनाटा आदि द्वारा होता है। इस रोग का प्रकोप उस समय होता है, जब फल परिपक्व होने लगता है। सर्वप्रथम रोग के प्रकोप से छिलका मुलायम हो जाता है और फल सड़ने लगते हैं। फल के छिलके भूरे से काले रंग के हो जाते हैं। फलों के यातायात और भंडारण के समय इस रोग के प्रकोप की संभावना ज्यादा होती है।
रोकथाम: फल तुड़ाई के 15 से 20 दिन पहले पौधों पर कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू पी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें।
फल तुड़ाई के दौरान फलों को यांत्रिक क्षति होने से बचाएं।
फलों को तोड़ने के शीघ्र बाद पूर्वशीतलन उपचार (तापमान 4 डिग्री सेंटीग्रेट नमी 85 से 90 प्रतिशत) करें।
फलों की पैकेजिंग 10 से 15 प्रतिशत कार्बन डायऑक्साइड गैस वाले वातावरण के साथ करें।
असामयिक फल झड़न
लीची में फल झड़ने कि अधिक समस्या तो नहीं है, लेकिन फल बनने के बाद सिंचाई कि कमी होना अथवा गर्म हवाओ का प्रकोप होने से लीची के फल झड़ने लगते है, जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि फल बनने के बाद बाग में लगातार आद्रता बनाये रखने के लिए बराबर सिंचाई करते रहना। चाहिए 50 क्विंटल गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद खेत में समान रूप से बखेर देनी चाहिए। 50 किलो गोबर की खाद में 2 किलो ट्राईकोडरमा मिला कर जड़ के पास मिट्टी में मिला देनी चाहिए और साथ ही साथ 4 मिली प्लानोफिक्स नामक दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
फलों का फटना
उन स्थानों में जहां का मौसम अधिक गर्म और सूखा रहता है फल फटने कि समस्या आती है। बिभिन्न प्रजातियों में भी फल फटने कि क्षमता अलग-अलग होने के साथ-साथ दिन और रात्रि के तापक्रम में अधिक उतार चढ़ाव होने पर भारी सिंचाई करने से समस्या उत्पन्न हो जाती है। अगेती किस्म के फलों में फटने कि समस्या पछेती किस्म से अधिक है। इसलिए उन क्षेत्रो में जहां से 38 तापक्रम सेंटीग्रेड से अधिक होता है। पछेती किस्म ही लगानी चाहिए और में बाग लगातार आद्रता बनाये रखने के लिए बराबर समय समय पर सिंचाई करते रहना चाहिए, जिससे भूमि सूखने न पाए हवा अवरोधक पौधे भी फलों को झड़ने और फटने से बचने में मदद करते है इसके लिए मैग्नीशियम का छिड़काव करने से फलों को रुकने में काफी सफलता मिलती है। फलों के फटने व रंग का विकास के लिए बोरेक्स (बोरोन 1% 1 किग्रा/100 लीटर पानी) का जड़ के पास रिंग में प्रयोग व पर्ण छिडकाव करने से फलों का फटना रुक जाता है और 40 से 50 % उत्पादन बढ़ भी जाता है।
रोकथाम: लीची के नये पौधे लगाने के समय ट्राइकोडर्मा संवर्धित वर्मीकम्पोस्ट या सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग करें। इसके लिए 50 किलोग्राम वर्मीकम्पोस्ट या सड़ी गोबर की खाद में 2 किग्रा ट्राइकोडर्मा का व्यावसायिक फार्मुलेशन मिलाएं। अगर ये मिश्रण सूखी लगे तो थोड़ा पानी का छिड़काव कर दें और मिश्रण को छाव में कम से कम एक हफ्ते के लिए रख दें।
लीची में मंजर या फूल खिलने से लेकर फल के दाने बन जाने तक कोई भी रासायनिक दवाओं का प्रयोग न करें, क्योंकि इससे मधुमक्खियों का भ्रमण प्रभावित होता है। जो लीची में परागण के लिये जरूरी है। जब भी रासायनिक दवाओं का छिड़काव करें तो घोल में स्टीकर (एक चम्मच प्रति 15 लीटर घोल) जरूर डालें। सर्फ़ या डिटर्जेंट का प्रयोग न करे। यह फार्मूलेशन का पीएच गड़बड़ कर देता है।
रासायनिक कीटनाशकों का छिड़काव अपराह्न में करना बेहतर होता हैं। रोकथाम वाली रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग के संबंध में ध्यान रखें कि एक ही कीटनाशक का प्रयोग बार-बार न करें। इससे नाशीकीट और रोगकारक जीवों में कीटनाशक के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का विकास होने से बचा जा सकता है।
पर्ण चित्ती रोग
यह रोग लीची में कवक की मुख्यतया दो प्रजातियों से होता है। पर्ण चित्ती जुलाई में अक्सर दिखने शुरू होते हैं और अगले 3 से 4 महीनों में प्रभावित पत्तियों की संख्या बढ़ती जाती है। पत्तों पर भूरे या गहरे चॉकलेट रंग की चित्ती सामान्यतया पुरानी पत्तियों के ऊपर दिखायी देते हैं। चित्तियों की शुरूआत पत्तियों के सिरे से होती है। यह धीरे-धीरे नीचे के तरफ बढ़ती हुई पत्ती के किनारे और बीच के हिस्से में फैलती जाती है। इन चित्तियों के किनारे अनियमित दिखते हैं। रोगकारक कवक वर्ष भर पत्तियों में निष्क्रिय पड़े रहते हैं।
रोकथाम: लीची में प्रभावित भाग की कटाई-छंटाई करें, जमीन पर गिरी हुई पत्तियों के साथ समय-समय पर जला देना चाहिए।
लीची में बचाव के लिए मैन्कोजेब या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल (0.2 प्रतिशत) का छिड़काव करें।
रोग की तीव्रता ज्यादा हो तो रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्ल्यू पी या क्लोरोथैलोनिल 75 प्रतिशत डब्ल्यू पी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
नीम काढ़ा या गौमूत्र का छिड़काव सितम्बर से अक्तूबर तक पर्णीय या सम्पूर्ण पौधों पर किया जाना चाहिए।
(संकलन: राजीव कुमार और डॉ. मुकेश बाबू, वनस्पति संगरोध केंद्र संगरोध भवन, जोगबनी, अररिया, बिहार)