कायम दीन ने अपनी 40 भेड़ों को बेचने का फैसला कर ही लिया था क्योंकि वे अब उसके लिए कमाई का ज़रिया नहीं रह गई थीं। राजस्थान के जोधपुर में रहने वाले 40 वर्षीय कायमदीन खानाबदोश चरवाहों के समुदाय से हैं और लँबे समय से भेड़ों को पाल अपना जीवन यापन करते आ रहे हैं।
लेकिन, 2021 में भेड़ को पालने का सँघर्ष और घटती कमाई से तँग आकर दीन ने इस काम से किनारा कर लेना ही बेहतर समझा।
जोधपुर के नारायणपुरा गाँव के रहने वाले दीन ने गाँव कनेक्शन को बताया, “भेड़ पालने में आने वाला खर्च, चरागाह की कमी और कड़ी मेहनत के बाद भी कम आमदनी ने मुझे अपना भेड़े बेचने पर मजबूर कर दिया था; लेकिन तब मेरी मुलाकात ‘उरमूल’ सँगठन से हुई, उन्होंने मुझे अपनी भेड़ें रखने के लिए राजी कर लिया। उनके सहयोग की वजह से पिछले दो सालों में मेरी आमदनी लगभग तीन गुना हो गई है। ”
दीन जोधपुर जिले के उन सैकड़ों खानाबदोश चरवाहों में से एक हैं, जिनकी आय बीकानेर स्थित गैर-लाभकारी सँगठन ‘उरमूल सीमाँत समिति’ के कदम उठाने के बाद से बढ़ गई है। उरमूल ने जोधपुर जिले के नारायणपुरा और लूना गाँवों में दो कॉमन फैसिलिटी सेंटर (सीएफसी) खोले हैं।
कैसे काम करता है कॉमन फैसिलिटी सेंटर
इन केंद्रों पर इस समुदायों के लोगों को तमाम तरह की सेवाएं और तकनीकी सहायता दी जाती है, ताकि उन्हें भेड़ पालने में किसी तरह की समस्या न आए। यहाँ भेड़ की ऊन निकालने से लेकर, भेड़ों के टीकाकरण, स्वास्थ्य जाँच, डी वार्मिंग और उन्हें नहलाने जैसी सुविधाएँ दी गई हैं।
दीन ने कहा, “पहले, हमें ऊन की कीमत 15 रुपये से 20 रुपये प्रति किलोग्राम मिलती थी, लेकिन जब से उरमूल ने हमें इस काम में तकनीकी तौर पर माहिर किया है, तब से हमें 50 से 100 रुपये कीमत मिलने लगी है।’
बीकानेर स्थित एनजीओ की शुरुआत 1994 में पश्चिमी राजस्थान के ग्रामीण निवासियों के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए एक सुरक्षित और बेहतर माहौल तैयार करने के लिए की गई थी। चरवाहों की मदद के लिए सीएफसी प्रोजेक्ट इन इलाकों में आजीविका सहायता मुहैया कराने के प्रयासों का हिस्सा है।
उरमूल में प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर सूरज सिंह ने गाँव कनेक्शन को बताया, “उरमूल दो गाँवों में चरवाहों के लिए पीने के पानी, चारा उगाने, टीकाकरण शिविर और बाज़ार की बुनियादी सहायता सेवाएँ मुहैया करता है, जो उन्हें जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों से निपटने में मदद करती हैं।”
उरमूल उन 11 संगठनों में से एक है जिसे दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी सँस्था ‘सस्टेनेबल एनवायरनमेंट एंड इकोलॉजिकल डेवलपमेंट सोसाइटी’ (SEEDS) ने अपने एक अभियान ‘फ्लिप द नेशन’ के लिए चुना है। यह इनोवेशन के जरिए जलवायु परिवर्तन से निपटने की एक पहल है।
एसटीएस ग्लोबल के सह-सँस्थापक अँशू शर्मा के मुताबिक, चरवाहे परँपरागत रूप से बदलते मौसम से निपटना जानते हैं। मौसम को ध्यान में रखते हुए वे अपने पशुओं के साथ प्रवास के लिए निकल जाते हैं। शर्मा ने कहा “अपने मवेशियों के साथ दूसरे इलाकों की तरफ जाने की इस परँपरा के पीछे शुष्क मौसम में पानी और चारे की भारी कमी है; इसका नतीजा यह है कि स्थानीय मवेशी आबादी तेज़ी से पलायन कर रही है, कभी-कभी तो चारे की कमी के चलते ये समुदाय साल भर खानाबदोश की तरह अपनी ज़िन्दगी गुजार देता है।”
उन्होंने कहा, “सूखे और कम बारिश के चलते इस समुदाय का अपने मवेशियों के साथ अस्थायी प्रवास सर्दी के अंत और गर्मी की शुरुआत तक चलता है; वे मानसून की शुरुआत तक लौट आते हैं।”
उरमूल इस समुदायों को बदलते मौसम से निपटने में मदद कर रहा है और उनकी कमाई भी बढ़ा रहा है।
नारायणपुरा गाँव के यारू खान 2019 से उरमूल से जुड़े हुए हैं। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “पहले, गाँव में पानी की कमी की वजह से हमें काफी परेशानी उठानी पड़ती थी; हम अपनी भेड़ों को नियमित रूप से नहला कर साफ नहीं रख पाते थे, मवेशियों को बीमारियाँ लग जाती और अक्सर उनकी मौत हो जाया करती थी।”
54 वर्षीय खान ने कहा, “लेकिन सामुदायिक केंद्र हमारी भेड़ों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाए रखने और मशीन से ऊन निकालने में हमारी मदद करता है।”
उन्होंने कहा कि मशीन से भेड़ की ऊन निकालने से चरवाहा समुदाय की कमाई बढ़ गई है।
खान ने कहा, “हमने ऊन को कैंची से काटा करते थे और एक भेड़ से ऊन निकालने में कम से कम एक घँटा लग जाता था; लेकिन अब केंद्र पर मशीनीकृत फ्लीसिंग में सिर्फ 10 मिनट लगते हैं। इसके अलावा कैंची से ऊन निकालते समय अक्सर कट लग जाने से भेड़े घायल हो जाया करती थीं, अब हमारा समय भी बचता है और भेड़ों के कटने-फटने का डर भी नहीं रहता।”
नारायणपुरा के एक युवा चरवाहे अब्दुल गनी ने कहा, अगर मैं कहूँ कि उरमूल ने भेड़ों की देखभाल के व्यवसाय को सुव्यवस्थित कर दिया है, तो गलत नहीं होगा।” 24 साल के गनी आगे कहते हैं, “उरमूल ने हमें ऊन निकालने से पहले भेड़ों को शैम्पू से साफ करना सिखाया और इससे हमें बेहतर कीमत मिलने लगी।”
सीड्स के सह-सँस्थापक शर्मा ने चिंता जताते हुए कहा कि सामान्य चरागाह सिकुड़ रहे हैं। “बढ़ते औद्योगीकरण, खेती और बागवानी के विस्तार, नित नए अस्पतालों और स्कूलों जैसे निजी संस्थानों का बनना, चरगाहे की ज़मीन को कम कर रहा है; न तो अच्छी गुणवत्ता वाला चारा है और न ही पशुओं के पीने के पानी के लिए नदी या तालाब, मवेशियों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं और दवाओं की भी कमी है, किसान अपनी परती भूमि और कटे हुए खेतों में भी भेड़ों को चराई नहीं करने देते हैं।”
उन्होंने कहा, “लेकिन प्रवासी पशुओं का आस-पास की खाली ज़मीन या खेतों में चरना दुनिया भर में आजीविका की एक प्रणाली है, मवेशियों के झुँड आम चरागाहों और परती खेतों में चरते हैं, उनका एक जगह से दूसरी जगह जाना न सिर्फ अत्यधिक चराई को रोकता है, बल्कि इससे चारे को वापस बढ़ने के लिए भी काफी समय मिल जाता है, खराब हो चुकी ज़मीन को फिर से हरा-भरा करने के लिए एक यह एक बेहतर तरीका भी है।”