सहारनपुर (उत्तर प्रदेश)। लकड़ी के झरोखे, शीशे, दराज़, सन्दूकें और आलमारी जैसे तमाम नक्काशे हुए सामान नज़र आने लगते हैं जब सहारनपुर शहर के ‘बंजारों का पुंल’ की ओर बढ़ते हैं। मुगलों के आगमन के साथ शुरू हुई काष्ठ कला, सहारनपुर की पहचान बन चुकी है और देश, विदेश तक लोकप्रिय है।
आज भी सहारनपुर में कई परिवार सिर्फ़ इसी काम के भरोसे अपना जीवन यापन कर रहे हैं। हालाँकि ज़्यादा मेहनत और काम आमदनी के वजह से कारीगर कोई ख़ास खुश नहीं नज़र आते।
‘बंजारों का पुल’ पर दोनों ओर दुकानें होती हैं और उसी के बाद कुछ दूर और चलने पर छोटे-छोटे कारखाने जिनमें सफ़ेद टोपी वाले ढेरों सर और लकड़ी के मामूली टुकड़ों को सुन्दर शक्ल देते हाथ दिखाई देते हैं। वुड कार्विंग मैन्युफैक्चरिंग असोसिएशन के उपाध्यक्ष साबिर अली खान लगभग 50 वर्षों से शहर में काष्ठकला का काम कर रहे हैं। “एक वक़्त आया था कि ये सब हैंडक्राफ्ट एकदम डाउन हो गया था। हमने फिर लोकल इंडस्ट्री की तरफ़ ध्यान दिया… क्योंकि हमारा कारीगर सिर्फ़ कार्विंग जानता है… दूसरा काम वो कर नहीं सकता। उनको ज़िंदा रखने के लिए, इन हाथों को बचाने के लिए हम लोगों ने लोकल फर्नीचर शरू कर दिया और पूरे इंडिया में इसको पॉपुलाइज़ करा… एग्जीबीशन वगैरह लगा के,” साबिर ने बताया।
सहारनपुर की काष्ठकला को इस मुकाम तक पहुंचने के पीछे ईस्ट इण्डिया कम्पनी का भी योगदान है जिसके वजह से कलाकृतियां, उस वक़्त के राजधानी- कलकत्ता तक ले जाकर बेचीं जाने लगी और फिर दुसरे देशों में भी। साबीर आगे बताते हैं, “ये वुड कार्विंग इंडस्ट्री… जो मुग़ल के लास्ट पीरियड से शुरू हुई। दस्तकारी में यहाँ, सबसे पहले कंघी बनती थी। उसके बाद में यहाँ ब्रिटिशर्स का राज हो गया और जब ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज हुआ तो उसका मेन बस रहा, कलकत्ता। फ़िर डेवलपमेंट और उस कंघी से ये लोग बॉक्स बनाने पर आये। सेंट बॉक्स बनाते थे जिसमे सेंट की शीशी रखते थे।”
“फ़िर यहाँ से सारा सामान कलकत्ता में ले जाकर इसको…सबको बेचते थे। वहां से ही शुरुआत ह्युई है हमारे काम की। कोई भी मुल्क ऐसा बचा हुआ नहीं है जो लकड़ी के इस काम को देखकर…मतलब…वो खुश न हुआ हो और उसने परचेज़िंग शुरू न करी हो,” साबिर ने कहा।