ललितपुर (बुंदेलखंड)। “अगर हमें यहां काम मिलता रहता तो हम गांव छोड़कर क्यों जाते ? हमें इधर लॉकडाउन में सिर्फ 12 दिन का मनरेगा में काम मिला है, इसके 5 साल पहले मनरेगा में काम मिला था। जब काम नहीं मिला तो हमारे जैसे गांव के बहुत से लोग कमाने के लिए शहर चले गए।” उत्तर प्रदेश में ललितपुर जिले के बालाबेहट गांव की गुड्डी बताती हैं।
गुड्डी के गांव के दर्जनों लोगों ने बताया कि उन्हें अपना घर-द्वार इसलिए छोड़ना पड़ा क्योंकि यहां पर कोई रोजगार का जरिया नहीं है। मनरेगा में भी उन्हें काम नहीं मिल रहा था। मनरेगा में काम न मिलने की बात करने वाले ललितपुर दूसरे जिलों के दर्जनों गांव थे।
गुड्डी, कमाने के लिए अपने घर से 500 किलोमीटर दूर इंदौर गई थीं और लॉकडाउन के बाद वापसी में ज्यादातर सफर पैदल और भूखे-प्यासे किया। उनका गांव उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड के ललितपुर जिले के बिरधा ब्लॉक में पड़ता है। पहाड़ी इलाके का ये गांव मध्य प्रदेश सीमा पर स्थित है, जिसके बाद सागर जिला शुरू हो जाता है। पानी की कमी वाले इस इलाके में नाम मात्र की खेती होती है, ज्यादातर लोग पलायन या फिर खदानों में मजदूरी करते हैं।
“अगर आप पहले आए होते तो इस गांव में आपको एक भी आदमी-औरत नहीं मिलती। 500-600 लोग बाहर कमाने जाते हैं। बहुत लोग वापस आ गए हैं, बहुत लोग अभी फंसे हुए हैं शहरों में। हम लोग खुद 4-5 दिन भूखे रहकर यहां पहुंचे हैं। हम इंदौर में ईंट पाथते थे।” गुड्डी अपने सहरिया बाहुल्य गांव की कहानी बताती हैं।
बालाबेहट गांव के राम सिंह सहरिया और उनकी पत्नी कुशुमा बाई को लॉकडाउन में 12-12 दिन का काम मिला। अपना मनरेगा जॉब कार्ड दिखाते हुए राम सिंह कहते हैं, “हमें तो ठीक से याद भी नहीं आखिरी बार मनरेगा में काम कब मिला था, पहले खदान में मजदूरी मिल जाती थी लेकिन 2 साल से वो भी बंद है। अब तो जैसे तैसे दिन कट रहे हैं।”
रामसिंह का जॉब कार्ड 2011 में बना था और 2013 तक उसमें काम का जिक्र है। उसके बाद की कोई एंट्री नहीं मिली। गांव कनेक्शन ने 17 से लेकर 22 मई तक बुंदलेखंड के बांदा, झांसी, ललितपुर, मध्य प्रदेश के अशोक नगर, टीकमगढ़ में बिताए। इस दौरान बहुत सारे ऐसे लोग मिले, जिन्होंने बताया कि उन्हें पिछले कई वर्षों से मनरेगा में काम ही नही मिला, जिसके चलते भी उन्हें काम की तलाश में पलायन करना पड़ा।
“मनरेगा बनी ही इसलिए थी कि गांवों में रोजगार की गारंटी मिले, पलायन रुके। लेकिन ये योजना सिर्फ वर्ष 2006-07 और कुछ कुछ 2008 में सफल हुई, उसके बाद इसमें भी भ्रष्टाचार और लालफीताशाही का घुन लग गया था। आप जिस बुंदेलखंड की बात कर रहे है वहां पिछले 10 वर्षों का आंकड़ा देखिए औसतन व्यक्ति को 30-35 दिन का रोजगार नहीं मिल रहा है। जो इस योजना का मूल था, मनरेगा अपने नाम के अनुसार जमीन पर उतर नहीं पाई।” मनरेगा से ही जुडे केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद के पूर्व सदस्य और सामाजिक कार्यकर्ता संजय दीक्षित बताते हैं।
संजय दीक्षित पिछले 12-13 वर्षों से मनरेगा के मुद्दों (जागरुकता, खामियां, भ्रष्टाचार और रोजगार सेवकों को न्याय दिलाने) पर काम कर रहे हैं। उनके उठाए गए मुद्दों के आधार पर ही मनरेगा में 10 वर्षों से केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की जांच भी चल रही है।
मनरेगा (महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) की अधिकारिक वेबसाइट के अनुसार ललितपुर में साल 2019-20 में 734,800 रोजगार दिवस का सृजन किया गया और 7,348 परिवारों को 100 दिन का रोजगार मिला। ये संख्या साल 2016-17 में महज 1,090 थी।
अगर पूरे उत्तर प्रदेश की बात करें तो साल 2019-20 में 1,33,13,510 रोजगार दिवस का सृजन हुआ और 1,33,135 परिवारों को 100 दिन का रोजगार मिला। साल 2018-19 में ये 71,992 और साल 2016-17 में 41,362 परिवारों हो ही रोजगार मिला था, और इस दौरान 46,08,856 मानव दिवस का सृजन हुआ था, यानि पिछले 4 वर्ष में 100 दिन रोजगार पाने और रोजगार दिवसों की संख्या लगभग तीन गुना हुई है, लेकिन अगर सभी पूरे देश के जॉब कार्ड का आंकड़ा देखें तो 100 दिन रोजगार पाने वालों की संख्या सवाल खड़े करती है।
उत्तर-प्रदेश के 75 जिलों के 826 ब्लाकों के अंतर्गत 58,906 ग्राम पंचायतें हैं। इन पंचायतों के 189.65 लाख परिवारों के पास मनरेगा के जॉब कार्ड है, इन जॉब कार्डों में से 91.66 लाख एक्टिव (काम करने वाले सक्रिय परिवार) हैं, बाकी 97.99 परिवारों के जॉब कार्ड अनएक्टिव (काम न करने वाले) हैं यानी उत्तर प्रदेश में आधे से ज्यादा कार्ड धारक निष्क्रिय हैं, जिसकी कई वजह हो सकती हैं, जॉब कार्ड धारकों के लिए मनरेगा लाभदायक नहीं, शहर के मुकाबले मजदूरी कम है, काम नहीं है, मजदूर मनरेगा एक्ट के अनुसार पंजीकृत तरीके से काम की मांग नही कर पाते अथवा अनपढ़ मजदूरों को मौखिक काम की मांग को पंचायत के जिम्मेदार दर्ज करके पावती नही देते, पंचायत ने काम नहीं दिया या फिर कार्डधारक पलायन कर गया।
इनका जवाब गुड्डी के गांव बालाबेहट से 9 किलोमीटर दूर बम्हौरीवंसा ग्राम पंचायत के रसोई गांव में अपनी झोपड़ी में बैठे असोईदीन की बातों में भी मिलता है। घास-पूस और पॉलीथीन लगी घर देखकर आसानी से कहा जाता है, सरकारी योजनाएं यहां तक पहुंचते-पहुंचते बिल्कुल वैसे ही सूख जाती होगी, जैसे यहां के कुआं, तालाब और ज्यादातर इंडिया मार्का हैंडपंप सूखे पड़े हैं।
“काम मिला था 2 साल पहले उसके बाद काम नहीं मिला। हमारे घर में पांच लोगों के काम जॉब कार्ड में है लेकिन किसी को काम नहीं मिला।” वो बताते हैं।
फिर घर का गुजारा कैसे होता है? इस सवाल के जवाब में असोईदीन कहते हैं, महुआ के पत्ते तोड़कर, लकड़ी बेचकर गुजारा होता है। थोड़ी जमीन है, लेकिन पहाड़ी की है उसमें थोड़ा बहुत राशन होता है।”
उनके पास ही बैठे बुजुर्ग हक्कन (पुत्र गुमान) बताते हैं, “दो साल पहले उन्हें पत्थर बीनने का काम मिला था, उसके बाद कोई काम नहीं मिला।” अप्रैल में उनका नया मनरेगा कार्ड भी मिला लेकिन काम नहीं मिला, हालांकि उन्हें सरकार का मुफ्त राशन और गैस दोनों मिले थे। उनकी पत्नी के मुताबिक उनके खातों में 500 रुपए भी शायद आए हैं लेकिन बैंक गए थे भगा दिया कि बाद में आना।
ललितपुर में 75 हजार के आसपास सहरिया आदिवासी रहते हैं, जिनकी आजीविका जंगल, पहाड़, खदान, महुआ, तेंदू पत्ता के सहारे चलता है। घर युवा पुरुष और महिलाएं कमाने के लिए इंदौर,अहमदाबाद, सूरत, मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में जाते हैं।
उत्तर प्रदेश सरकार के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान 10 मई तक उत्तर प्रदेश में 35 लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूर और कामगार वापस आए हैं। यूपी में बुंदेलखंड और पूर्वांचल जैसे इलाकों से पलायन करने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। 22 मई तक अकेले ललितपुर में 50 हजार से ज्यादा मजदूर वापस आ चुके थे।
लॉकडाउन के दौरान लोगों को मनरेगा में कई गुना ज्यादा काम भी मिल रहा है, जैसा गुड्डी और दूसरे लोग बता रहे थे कि उन्हें 2 से 5 वर्ष बाद मनरेगा में काम मिला।
हक्कन का गांव रसोई बम्हौरीवंसा ग्राम पंचायत में आता है, जिसमें रसोई जैसे 6 गांव है। गांव की प्रधान सूरजमती बताती हैं, हमारे पास जब काम आता है सबको देते हैं। जब काम खूब (टार्गेट) आता है तो ज्यादा काम कराते हैं। पिछले साल भर से एक दो ही काम आए तो सबको काम कैसे देते है।”
गुड्डी के गांव से 13 किमी दूर धौर्रा ग्राम पंचायत के पूर्व प्रधान और वर्तमान प्रधान के प्रतिनिधि रामेश्वर प्रसाद मिश्रा कुछ ऐसा ही कहते हैं, “मनरेगा योजना बीच में फेल हो गई थी, तीन-तीन महीने पेमेंट नहीं आता था। ये बुंदेलखंड का सबसे पिछड़ा इलाका है। यहां खेती न के बराबर है। यहां के लोगों को रोज पैसा चाहिए होता है, कई बार वो एडवांस भी ले लेते हैं। तो वो मनरेगा की बजाए या तो खनन में काम करते थे, या फिर पलायन कर जाते थे, लेकिन अब शहरों से वापस आए हैं और काम मांग रहे हैं।’
रामेश्वर मिश्रा आगे जोड़ते हैं कि पिछले कुछ समय से मनरेगा में काफी सुधार हुआ है और लॉकडाउन में तो 10-7 दिन में पैसा लोगों के खातों में पहुंच रहा है।
ललितपुर में ही मनरेगा के सोशल अडिट से जुड़े मनरेगा विशेषज्ञ धनीराम बताते हैं, ” मनरेगा में काम और पेमेंट को लेकर कई खामियां थीं, जिन्हें पारदर्शी बनाने का 2-3 वर्षों से काम चल रहा था। पैसा आने में काफी देरी होती थी, लेकिन अब आधार बेस भुगतान है और 15 दिन के अंदर पैसा आ रहा है।”
एक्टिव जॉब कार्ड धारक एक अनएक्टिव कैसे हो जाते हैं?
गांव कनेक्शन ने इस सवाल के जवाब के लिए अलग-अलग लोगों से बात की है,जिनके मुताबिक एक बड़ी वजह स्थानीय स्तर की राजनीति भी है। धनीराम बताते है, ” मनरेगा निश्चित रूप से काम पर आधारित योजना है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में बड़ी आबादी निरक्षर है, वो मांग की प्रोसेज नहीं समझता है, न लिखित मांग दे पाते न पावती मिल पाती है, लोकतांत्रिक व्यवस्था है। कुछ प्रधान के पक्ष में होते हैं कुछ विपक्ष में। कई बार जीतने वाला प्रधान विरोधी लोगो को काम नहीं देता तो कई बार स्वाभिमान के चलते मजदूर भी काम मांगने नहीं जाते।”
मनरेगा का मास्टररोल देखिए या फिर किसी गांव में जाकर लोगों के जॉब कार्ड देखिए, ग्राम पंचायत में चुनाव होने के बाद एक बड़ी संख्या में लोगों को मनरेगा में काम मिलना बंद हो जाता है और कुछ नए नाम जुड़ जाते हैं। ललितपुर में ग्रामीणों से बात करते पता चलता है पिछले पांच वर्षों में एक बड़ी संख्या है, जिसने पहली बार शहरों की ओर पलायन किया था, उसकी वजहों में सूखा, ओलावृष्टि, खदानों का बंद होना और मनरेगा में काम मिलना जैसी कई पहलू हो सकते हैं।
लेकिन क्या मनरेगा लोगों को गांव मे रोककर नहीं रख सकती ? आखिर योजना बनी भी तो पलायन रोकने के लिए थी?
इसके जवाब में केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद के पूर्व सदस्य और मनरेगा कार्यकर्ता संजय दीक्षित बताते हैं, “मनरेगा के तहत काम क्या होगा इसकी वार्षिक कार्ययोजना ग्राम सभा में तय होना चाहिए, यानि ग्राम पंचायत या प्रधान नहीं, लेकिन पूरे देश में कहीं ग्राम सभा नहीं होती, प्रधान, बीडियो और सचिव तय करते हैं। इसलिए मनमाना काम, घोटाले और लोगों को शिकायतें होती हैं।”
मनरेगा कैसे लॉकडाउन के दौरान अपने लक्ष्य को पहुंचे और दुनिया में अपनी तरह की ये खास योजना कैसे अपने अंजाम तक पहुंचे? इसके जवाब में संजय दीक्षित कहते हैं, “अगर मनरेगा को वाकई सार्थक बनाना है तो उसे कृषि और कुटीर उद्योंगों से जोड़ना होगा। लघु और सीमांत किसानों की फसलों मनरेगा से जोड़ा जाए। इससे कार्य योजना कम नहीं पड़ेंगी। इससे मजदूर और किसान दोनों का भला होगा। दूसरा जो कुशल श्रमिक शहर से वापस आया है, उसके लिए प्रोजेक्ट बनाएं। इसमें जो मैटेरियल कंपोनेंट हैं वो मनरेगा से मिले और श्रमदान वाला श्रमिक खुद करे।”
मनरेगा के जानकारों और ग्रामीण भारत से तालुक रखने वाले लोग, अर्थशास्त्री लॉकडाउन के दौरान दो तरह की अपनी मांगों को लेकर मुखर हुए हैं, एक तो मनरेगा को काम को 100 दिन से बढ़ाकर 200 दिन किया जाए दूसरा मनरेगा को खेती से जोड़ा जाए।
कोविड-19 के चलते हुए लॉकडाउन से किसानों को हुए नुकसान को देखते हुए किसान संगठन भी मनरेगा को खेती से जोड़ने की मांग कर रहे हैं, भारतीय किसान यूनियन, कृषि शक्ति संगठन, भारतीय कृषक संघ समेत कई संगठनों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इस संबंध में चिट्टी भी लिखी है।
इस संबंद में संजय दीक्षित का सवाल भी वाजिब लगता है, “मनरेगा में ये तय करना होगा कि एक ही तालाब और सड़क आखिर कितने बार खुदेगी और बनेगी?
लेकिन गुड्डी के एक जवाब में आजादी के बाद सबसे बड़े पलायन के बीच उठते सवाल का जवाब भी छिपा है..
“अगर हमें यहां काम मिलेगा तो हम शहर कभी नहीं जाएंगे…”
(अतिरिक्त सहयोग- अरविंद सिंह परमार, यश सचदेव)