वाराणसी (उत्तर प्रदेश)। बनारस का सुंदरपुर। यहां के सरायनंदनपुर इलाके की संकरी गलियों में अब दिनभर सन्नाटा पसरा रहता है। कभी इन गलियों में लूम मशीनों की आवाजे गूंजती थीं। ट्रांसफार्मर के दो खंबों के बीच से निकली गली के बीचों-बीच एक घर की खिड़की पर कुछ बच्चे खड़े हैं।
खुली खिड़की पर कुछ पैकेट रखे थे। पास पहुंचा तो देखा खिड़की के उस पार एक छह-सात साल का बच्चा बैठा है। मुझे देखते ही पूछ बैठा, “क्या लेंगे भैया”। बच्चा उन पैकेट में चाय की पत्ती बेच रहा था।
ये छह साल के सूफियान का घर है। उनके पिता अनीस अहमद के पास पांच हैंडलूम मशीनें थीं। घर का खर्च चलाने के लिए उन्हें तीन मशीनें औनेपौने दामों में बेचनी पड़ी। हैंडलूम वाली जगह की खिड़की पर उन्होंने चायपत्ती की दुकान खोली है जिसे पहली क्लास में पढ़ने वाले सूफियान संभालते हैं और वे खुद मजदूरी कर रहे हैं।
“अब्बा काम करने चले जाते हैं और मैं यहां चाय बेचता हूं। इसे बेचने के बाद जो पैसे मिलते हैं उससे मैं कभी सब्जी या फिर पैकेट वाला मसाला ले आता हूं। कभी-कभी बिस्कुट और चिप्स भी ले लेता हूं।” सूफियान बहुत सोचने के बाद बोलते हैं।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 250 किमी दूर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी 3 वजहों से दुनियाभर में प्रसिद्ध है, हिंदुओं के भगवान महादेव का विश्वप्रसिद्ध मंदिर, काशी (वाराणसी के दूसरे नाम काशी और बनारस) के घाट और बनारसी साड़ियां, लेकिन इन साड़ियों को बुनने वाले बुनकर लॉकडाउन और कोविड-19 के चलते लोगों की आर्थिक तंगी की वजह से दाने-दाने को मोहताज हो गये हैं।
जो हाथ सुंदर बनारसी साड़ियां बुनने थे, हैंडलूम (हाथ से चलने वाला हथकरघा) पॉवरलूम (बिजली से चलने वाला हथकरघा) चलाते थे, वे अब ईंटा गारे का काम कर रहे हैं। बुनकरों की स्थिति ऐसी हो गई है कि उन्हें परिवार का पेट पालने के लिए अपने लूम बेचने पड़ रहे हैं, बीवी के गहने बेचने पड़ रहे, कर्ज लेने पड़ रहे हैं।
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“जब से लॉकडउान लगा, धंधा पूरी तरह से चौपट हो गया। कुछ दिनों तक खर्च चला, लेकिन फिर दिक्कत होने लगी। चावल और गेहूं मिल तो रहा है लेकिन बस वही तो नहीं खा सकते ना। मजदूरी पहले भी बहुत ज्यादा नहीं थी। स्थिति अब और खराब हो गई। ऐसे में मैंने पांच में से अपने तीन हैंडलूम बेच दिये। जो लूम फिट करवाने में 50 हजार से दो लाख रुपए तक खर्च आया था, उसे 20 से 30 हजार रुपए में बेच दिया। उसी से खर्च चल रहा है। बीवी की दवा चल रही है, उसके लिए भी तो पैसे चाहिए थे।” बुनकर और सूफियान के पिता अनीस अहमद कहते हैं।
अनीस आगे कहते हैं, “20 साल से ज्यादा का समय बीत गया बिनाई करते-करते। थोड़े-थोड़े पैसे इकट्टा करके लूम लगवाया था। धीरे-धीरे उसके पार्ट मंगवाता था। तब जाकर पांच लूम हुए मेरे पास, उन्हें बेचते समय बहुत दुख हुआ मुझे।”
बनारसी साड़ियों का सालाना कारोबार पांच अरब रुपए से ज्यादा का है। इस कुटीर उद्योग से लगभग छह लाख लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं।
सरायनंदनपुर के अलावा सरैया, जलालीपुरा, अमरपुर बटलोहिया, कोनिया, शक्करतालाब, नक्की घाट, जैतपुरा, अलईपुरा, बड़ी बाजार, पीलीकोठी, छित्तनपुरा, काजीसादुल्लापुरा, जमालुद्दीनपुरा, कटेहर, खोजापुरा, कमलगड़हा, पुरानापुल, बलुआबीर, नाटीईमली जैसे बनारस में कई क्षेत्र हैं जहां लाखों बुनकर बनारसी बिनकारी का काम करते थे, लेकिन लॉकडाउन के बाद से सब लॉक है।
मोहम्मद नईम लॉकडाउन से पहले साड़ी बुनकर प्रतिदिन चार से पांच सौ रुपए की कमाई कर लेते थे। दूसरे के यहां पॉवरलूम चलाते थे। लॉकडाउन के बाद काम बंद हो गया तो परिवार पालना मुश्किल हो गया। मई में उन्होंने छह हजार रुपए में बीवी की एक कान की बाली बेच दी। अब दिनभर काम की तलाश में भटक रहे हैं।
वे कहते हैं, “चार महीने से एक काम नहीं है मेरे पास। घर में बीवी को मिलाकर चार लोग हैं। अब बस चावल, आटा तो खिला नहीं सकते ना। जो पैसे बचाकर रखे थे उससे दो महीने का खर्च चला। इसके बाद बीवी की कान की बाली बेचनी पड़े। दिनभर बाजार में रहता हूं ताकी कोई काम मिल जाये, लेकिन कुछ मिल ही नही रहा।”
“बस एक बार सब ठीक हो जाये, मुंबई या दिल्ली निकल जाऊंगा। यह काम अब करना ही नहीं है।” नईम नाराज होते हुए कहते हैं।
क्या आपको सरकार की तरफ से राशन के अलावा और कोई मदद मिली, इस पर नईम विफरते हुए कहते हैं, “तीन चार बार से राशन में बस चावल ही मिल रहा है और आप दूसरी मदद की बात कर रहे हैं। हमें एक रुपया नहीं मिला इस पूरे लॉकडाउन के दौरान। कोई बस चावल ही खा लेगा क्या, सरकार उसके साथ कुछ तो दे। जो बाहर से आ रहे उन्हें दिया गया, लेकिन यहां बिना खाये मर रहे हैं, उन्हें कुछ मिल ही नहीं रहा।”
जावेद की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। वे दूसरे के यहां हैंडलूम पर बुनाई करते थे। वे कहते हैं, “चार महीने से कोई काम नहीं है, लेकिन खाने का खर्च तो रोज लगेगा ही। पांच लोगों का खर्च रोज है। पहले तो कुछ दिनों दिक्कत नहीं हुई, फिर जून महीने में बीवी के कान की बाली और नाक की नथिया बेचा। उसके 15 हजार रुपए मिले। इसी से खर्च चल रहा है।”
“कंपनी में रोज पूछता हूं तो मालिक कहते हैं कि अभी ऑर्डर नहीं है, आयेगा तब काम पर बुलाऊंगा। हमें तो कोई और काम आता भी नहीं। आगे का खर्च कैसे चलेगा, ऊपर वाला जाने।” जावेद आगे कहते हैं।
बनारसी साड़ी की बुनाई में लगभग 50 साल बिता चुके 75 वर्षीय मोहम्मद आसिफ अंसारी के गोदाम में हैंडलूम मशीन के पार्ट चारों ओर बिखरे पड़े हैं। वे कबाड़ी वाले के इंतजार में हैं। उन्हें ऐसा क्यों करना पड़ा, इस बारे में वे कहते हैं, “मैंने इतना बुरा समय कभी नहीं देखा था। हमारी हालत तो पहले ही खराब थी, लेकिन लॉकडाउन ने हमें मजबूर कर दिया कि अब हम दूसरा कोई काम करें। इसलिए हम अब अपनी मशीनें बेच रहे हैं।”
“कमाई नहीं है फिर भी बिल खूब आ रहा है। पिछली सरकारों में हमें बिजली पर सब्सिडी मिलती थी। बिजली की कीमत तो बढ़ी ही, जीएसटी ने हमारी कमाई और रोक दी और अब कोरोना। सरकार ने तो हमें एक बार भी पूछा ही नहीं।” नाराज होते हुए आसिफ कहते हैं।
युवा मोहम्मद जावेद के पास अभी दो हैंडलूम मशीनें हैं। दोनों बंद पड़ हुई हैं। घर का खर्च चलाने के लिए अपने रिश्तेदारों से वे अब तक 35,000 रुपए का कर्ज ले चुके हैं।
वे बताते हैं, ” घर का खर्च चलाने के लिए रिश्तेदारों से अब तक 35,000 रुपए का कर्ज ले चुका हूं। इसे वापस कब तक कर पाऊंगा, यह नहीं पता। लॉकडाउन में ढील मिलने के बाद हमें लगा कि कुछ ऑर्डर मिलेगा, लेकिन कोई काम आ ही नहीं रहा है।”
बनारस में सिल्क, कॉटन, बूटीदार, जंगला, जामदानी, जामावार, कटवर्क, सिफान, तनछुई, कोरांगजा, मसलिन, नीलांबरी, पीतांबरी, श्वेतांबरी और रक्तांबरी साड़ियां बनाई जाती हैं जिनका श्रीलंका, स्वीटजरलैंड, कनाडा, मारीशस, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, नेपाल समेत दूसरे देशों में निर्यात भी होता है।
बनारसी वस्त्र उद्योग एसोसिएशन के संरक्षक और बनारसी साड़ियों के कारोबारी अशोक धवन का मानना है कि बनारसी साड़ी का कारोबार अब बंदी के कगार पर पहुंच गया है। वे कहते हैं, “अभी तक जो नुकसान हुआ है उससे उबरने में हमें कई साल तक का समय लग जायेगा। बुनकर तो परेशान हैं ही, व्यापारी भी बहुत परेशान हैं। कई लाख लोग इस कारोबार से जुड़े हैं, सब संकट में हैं। सरकार को इसे बचाने के लिए जल्द से जल्द प्रभावी कदम उठाने होंगे।”
बनारस के अलावा यूपी में मऊ, बिजनौर, आजमगढ़, बनारस, भदोही, मिर्जापुर, गाजीपुर समेत कई जिलों में हैंडलूम, पावरलूम का काम होता है।
साल 2009-10 में हुई हथकरघा जनगणना के अनुसार देश में 43 लाख लोग इस कारोबार से जुड़े हैं, लेकिन पिछले एक दशक से भारत में हैंडलूम का काम तेजी से घटा है। वहीं लगभग 70 लाख लोग पॉवरलूम के काम से जुड़े हुए हैं।