ललितपुर (बुंदेलखंड)। आदिवासी परिवार जंगल से लकड़ियां लाकर उसे पास के किसी कस्बे या शहर में बेचते हैं, जिससे उनका घर चलता था, लेकिन लॉकडाउन फिर अनलॉक के बाद भी उनका ये काम ठप पड़ा है, ऐसे में तेंदू पत्ता और दूसरी जड़ी बूटियां बेचकर उनका घर चल रहा है।
“भोर के समय चार-पांच बजे जंगल में तेंदू पत्ती तोड़ने जाते हैं, करीब 10-11 बजे घर वापस लौटने पर घर के सदस्य बैठकर एक-एक पत्ती झाड़ से अलग करते हैं, उसके बाद उन पत्तियों को इकट्ठा करके गड्डियां बनाते हैं, पत्ती तोड़ने और गड्डी बनाने में पूरा दिन लग जाता है, “अपनी परेशानी बताते हुए मझली बहु (48 वर्ष) कहती हैं। मझली बहू सहरिया ललितपुर जिले के मड़ावरा तहसील के दिदौनिया गाँव की रहने वाली हैं, उनके पति लखन सहरिया सहित परिवार के सात लोग तेंदूपत्ता तोड़ते हैं।
मार्च-अप्रैल के महीने में तेंदू के नए पत्ते निकलते हैं, जो बीड़ी बनाने लायक होते हैं। इन पत्तों का संग्रहण मई के पहले सप्ताह से जून तक किया जाता है। लेकिन समय पर वन निगम द्वारा पैसा न मिलना बड़ी समस्या है, पैसा कई महीनों के बाद मिलता है।
तेंदूपत्ता का कुछ ही दिनों का मौसम रहता है, इसकी खरीद वन निगम करता हैं वहीं फंड लगाते हैं। मझली बहू कहती हैं, “जब फंड पर पत्तियों के गड्डिया (बंडर) डालने जाते हैं, तभी ठेकेदार कुछ नगद पैसा दे देते हैं बाकी खाते में आता है। पैसा टेम पे (समय पर) कभी नहीं मिलता। पिछले साल पूरा पैसा चार महीने बाद मिला था पैसा मरता नहीं है, लेट मिलता हैं कह नहीं सकते इस बार पूरा पैसा कब मिलेगा।”
बुंदेलखंड क्षेत्र की मझली बहू अकेली महिला नहीं हैं, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे राज्यों में लाखों महिलाएं अपने बच्चों के पेट की भूख मिटाने के लिए जान जोखिम में डालकर जंगलों में जाती हैं। जंगलों में जाना एक दिन का काम नहीं बल्कि हर रोज का काम है।
खैरपुरा गाँव की महिलाओं की टोली में बैठी फूलरानी (42 वर्ष) कहती हैं, “नक्कू (लकड़ियां) नई (नहीं) डाले तो घर में खाएंगे (खाना) का। पचास रूपया में गट्ठा बिकता है, हम एक ही ले जाते हैं एक साथ चालीस-चालीस औरतें गट्ठा सिर पर रखकर ले जाती हैं इसी से ही घर गृहस्थी चलती थी। लॉकडाउन से लकड़ी नहीं बेच पाते पुलिस कहती हैं अपने घर रहो सरकार खर्चा दे रही है। ऐसे में अब हम क्या करें।”
वनों पर निर्भर रहने वाले लाखों परिवार जंगलों की लकड़ियां तोड़कर हर रोज बेचकर परिवार का भरण-पोषण करते हैं, लॉकडाउन लगने से लकड़ियां बेचने का काम ठप पड़ा है। मौसम के अनुसार जड़ी बूटी, औषधीय पौधों की छाल, पत्ते, फल-फूल कुछ घास-फूस की जड़ें, जिसका उपयोग औषधीय रूप में होता है। इसी से ही इनकी आजीविका चलती है। उपयोग करने वाले परिवारों में आदिवासी (सहरिया) परिवार ज्यादा आश्रित हैं।
बुन्देलखण्ड के अंतिम छोर पर बसे ललितपुर जनपद की भौगोलिक स्थिति जंगली और पठारी है। 75 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में फैला जंगल ललितपुर, गौना, मड़ावरा, बार, जखौरा, महरौनी, तालबेहट व माताटीला रेंज के अंतर्गत आता है। इन क्षेत्रों के सैकड़ो गाँवों में करीब 75 हजार आदिवासी (सहरिया) परिवार रहते हैं, दूर-दूर तक इन परिवारों के पास रोजगार का साधन नहीं है। जंगल की आजीविका से इनका चूल्हा जलता है।
ये भी पढ़ें: सूखी रोटी भी इनके लिए लग्जरी है, दूरदराज के गांवों की कड़वी हकीकत दिखाती 14 साल की एक लड़की
लॉकडाउन के पहले पहाड़ी क्षेत्रों की चालीस-चालीस औरतें (महिलाएं) टोलियां के साथ लकड़ियां बेचने नजदीकी कस्बे में जाया करती थी। लकड़िया बेचकर जो पैसा मिलता था उसी से घर का चूल्हा जलता था लॉकडाउन लगने के बाद लकड़ियां बेचने का काम बंद हो गया। इसी बीच तेंदूपत्ता लाखों परिवारों का सहारा बना।
पहाड़ी क्षेत्रों में रहने की वजह से सभी की स्थिति लगभग एक जैसी ही है। यूपी के बुंदेलखंड वाले हिस्से में बांदा ,चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर, जालौन, झांसी व ललितपुर में 2011 की जनगणना के आधार पर कुल जनसंख्या 96,59,718 है। इसमें महिलाओं की संख्या 45,63,831 है।
जंगल से तेंदूपत्ता की झाड़िया तोड़ना एक-एक पत्ती तोड़कर क्रम के हिसाब से इकट्ठा करके गड्डी (बंडल) बनाते हैं, एक तेंदूपत्ता की गड्डी में 50 से 60 पत्ते लगाने पड़ते हैं, इसमें सही पत्तों का चयन भी करना पड़ता हैं जिससे सहीं दाम मिल सके।
दिदौनियाँ गाँव में रहने वाली गुड्डी सहरिया कहती हैं, “मेहनत बहुत है, सैकड़ा के हिसाब से फंड वाले खरीदते हैं, उसके 120 से 130 रुपए ही मिल पाते हैं। एक गड्डी (बंडल) 50 से 60 पत्ते की होती है। जब इन गड्डियों को सुखाकर दबाकर फंड पर डालने पर रेट थोड़ा ज्यादा मिल जाता है। अभी तेंदूपत्ती का काम कर लिया जो पैसा मिलेगा बुरे वक्त में काम आयेगा।”
एक एकड़ जमीन के भरोसे आठ लोगों का घर कैसे चल पाएगा इतनी कम भूमि में क्या होता है। पहाड़ी क्षेत्र में रोजगार का कोई साधन ना होने की बात करते हुऐ करन सहरिया (38 वर्ष) कहते हैं, “तेंदूपत्ता के सीजन में तीन से पांच हजार रुपए कमा लेते हैं। ऐसे ही हर समय जंगलों से कुछ ना कुछ मिलता रहता हैं अगर जंगल ना होता तो हम लोग भूखों मर जाते हम तो जंगल से ही जीवित हैं।”