पटेहरा (मिर्जापुर), उत्तर प्रदेश। भारी बारिश हो रही थी, जिससे बचने के लिए सुनील कुमार पाल एक पेड़ की शाखाओं के नीचे खड़े हो गए। इस दौरान, बारिश के कम होने का इंतजार करते हुए वे अपनी भेड़ की पीठ के बाल काटने लगे।
मिर्जापुर के पटेहरा गांव के सुनील कुमार पाल की उम्र अभी 15 साल से भी कम है। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया कि वे कम से कम तीन साल से भेड़ चरा रहे हैं। उनके पिता के पास 150 भेड़ें थीं।
सुनील ने बताया, “हम अपनी भेड़ों को रात भर किसानों के खेतों में छोड़ देते हैं। उनके गोबर से जमीन उपजाऊ होती है। इसके बदले में, किसान हमें राशन (दाल, चावल और आटा) देते हैं।” सुनील ने बताया कि यह उनके खाने के मुख्य स्रोतों में से एक है।
15 वर्षीय सुनील उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में रहने वाले पाल समुदाय के सदस्य हैं। इस समुदाय के लोग ज्यादातर चरवाहे होते हैं। सुनील ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के अंतर्गत आते हैं। साल 2011 की जनगणना के अनुसार अकेले मरिहान तहसील में इस समुदाय के 8,000 लोग रहते हैं, जिनमें से ज्यादातर लोग चरवाहे हैं।
इस समुदाय के लोग भेड़ पालते हैं और जीविकोपार्जन के लिए ऊन बेचते हैं। इसके अलावा ज्यादातर चरवाहे खेतों में भेड़ छोड़ने के बदले मिलने वाले राशन पर निर्भर होते हैं।
पटेहरा गाँव के फूलेल पाल ने गाँव कनेक्शन को बताया, “पचास भेड़ों को रात भर किसानों के खेतों में छोड़ने के बदले हमें पांच किलो अनाज मिलता है। भेड़ का गोबर उनके खेतों में खाद की तरह काम करता है। इसी तरह हमारा जीवन चल रहा है।” फुलेल ने आगे बताया कि 100 भेड़ें लगभग 30-40 किलोग्राम ऊन पैदा कर सकती हैं।
प्रत्येक भेड़ 200 से 300 ग्राम तक ऊन पैदा करती है। पाल चरवाहे इस ऊन को आठ रुपए प्रति किलो की कीमत पर एजेंटों को बेच देते हैं। सुनील ने बताया कि उनमें से हर कोई एक दिन में लगभग 25 भेड़ों का ऊन कतरता है। ऊन को वापस उगने में लगभग चार महीने का वक्त लगता है।
इस तरह, एक चरवाहे को अपनी तीन-चार भेड़ों से 8 रुपये कमाने में चार महीने लग जाते हैं। भेड़ पालन की लागत बहुत अधिक है।
मरिहान तहसील के मझरी गांव के 22 वर्षीय लवलेश पाल ने गांव कनेक्शन को बताया, “हम जो ऊन बेचते हैं, उसका इस्तेमाल गद्दों को भरने और कालीन बनाने में किया जाता है।”
चरवाहों ने सरकार से मदद के लिए लगाई गुहार
फुलेल शिकायत करते हुए कहते हैं, “इन सबके बीच हमें भेड़ों की देखभाल भी करनी होती है, लेकिन इस मामले में सरकार की ओर से हमें दवाओं या टीकाकरण के माध्यम से कोई मदद नहीं मिल रही है।”
34 वर्षीय फुलेल ने आगे कहा, “मैं 19 साल से भेड़ चरा रहा हूं और अब तक मैंने चरवाहों की मदद के लिए कोई योजना नहीं देखी है। मुझे आज तक सरकार से किसी तरह की मदद नहीं मिली है। केवल एक बार ही सरकार भेड़ों को टीका लगाने के लिए आगे आई थी।”
फुलेल ने आगे कहा, “सरकार को हमारी सुरक्षा के लिए आगे आना चाहिए ताकि हम अपने जानवरों की बेहतर देखभाल कर सकें। हमारे भेड़ों का नियमित टीकाकरण किया जाना चाहिए। तभी हमारे जानवर सुरक्षित रहेंगे।” उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “अगर ऐसी कोई योजना होती जो हमें भेड़ खरीदने और पालने के लिए ऋण लेने की सुविधा प्रदान करती तो इससे हमें बहुत मदद मिलेगी।” भेड़ों की संख्या अधिक होने पर चरवाहे उन्हें भी बेच देते हैं।
मरिहान तहसील के मझरी गांव के लवलेश पाल ने गांव कनेक्शन को बताया, ”भेड़ों की संख्या ज्यादा होने पर हम प्रत्येक भेड़ को तीन-चार हजार रुपये में बेच देते हैं।” दिल्ली और कानपुर के व्यापारी आमतौर पर मई और जून के महीने में भेड़ चराने वाले समुदायों से मिलते हैं। वे मांस के लिए इन्हें खरीदते हैं।
अनुवाद: शुभम ठाकुर