सिलिकोसिस: “हमारे गांव का नाम मोरस है, लेकिन लोग इसे मौत वाला गांव कहते हैं”

ऐसे कई काम हैं, जिनके करने का मतलब है बीमारी और कई बार मौत भी हो जाती है। लोगों के हुनर ही उनके दुश्मन साबित होते हैं। ये कहानी राजस्थान के सिरोही की है, जहां सिलिकोसिस नाम की बीमारी मौत दे रही है...
Silicosis

सिरोही (राजस्थान)। “हमारे गांव का नाम तो मोरस है लेकिन सब इसे मौत वाला गांव कहते हैं, क्योंकि यहां पत्थर वाली बीमारी से बहुत सारे लोगों की मौत हो चुकी है। कम से कम 200 लोगों की मौत हुई होगी। मरने वालों में कई महिलाएं भी हैं।” गांव की आशा बहू अंजा बताती हैं।

मोरस, सिरोही जिले में उदयपुर-अहमदाबाद हाईवे के किनारे छोटी पहाड़ियों के बीच बसा है। टोल प्लाजा से कुछ दूर पहले गांव के लिए रास्ता कटता है। जिसके किनारे एक कमरा बन रहा था, जहां बैठे मिले शेतवान राम (36 साल) हांफती आवाज में बताते हैं, “ये बीमारी जिसको हो गई, उसका मरना तय है। आज भी पड़ोस के गांव में मेरे काका के जवान लड़के की मौत हुई है। और पिछले एक महीने में हमारे गांव के आसपास 15-16 लोगों की जान गई होगी।”

शेतवान के काका के जवान लड़के की मौत हुई लेकिन वो अंतिम यात्रा में जा नहीं पाए क्योंकि चलने की उनकी हिम्मत नहीं है। गांव के लोग जिसे पत्थर वाली बीमारी कहते हैं मेडिकल भाषा में उसे सिलिकोसिस कहा जाता है। सिलिकोसिस एक फ्राइब्रोटिक फेफड़े की बीमारी है, जो सिलिका (पत्थर के कण) को सांस के जरिए अंदर लेने से होती है।

खदान में पत्थर खोदने और पत्थर तोड़ने और तलासने वाले इसके सबसे ज्यादा शिकार बनते हैं। इसके अलावा पत्थर पीसने, पत्थर की मूर्तियां बनाने, पॉलिस करने, रत्थ काटने, टाइल्स बनाने और सीमेंट की चादर बनाने वाले कलाकार और मजदूर को इस बीमारी के होने का जोखिम रहता है। फेफड़ों की ये बीमारी अब तक लाइलाज है।

सिरोही राजस्थान का वो इलाका है जहां गढ़वा (कसीदाकारी) पत्थर के सबसे अच्छे कारीगर मिलते हैं। लालकिला, राष्ट्रपति भवन और दिल्ली के अक्षरक्षाम मंदिर से लेकर अयोध्या में बनाए जाने वाले राम मंदिर के लिए सिरोही के कागीगरों पत्थर तलाशे हैं। इमारतों, मंदिरों और मूर्तियों को गढ़ने वाले इन कारीगरों का हुनर ही इनके लिए मौत की वजह बन रहा है।

राजस्थान में देश की सबसे अधिक खाने हैं। जिनमें 189 बड़े मिनिरल, 15245 माइनर मिनिरल और 17688 पत्थर खदानों के लाइसेंस जारी किए हैं। खुद राजस्थान सरकार की रिपोर्टों के मुताबिक बालू और पत्थर की इन खदानों और उनसे जुड़े कार्यों से लगभग 30 लाख लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिला है। इनमें से ज्यादातर मरीजों को इस बीमारी के चपेट में आने का खतरा रहा है।

राजस्थान में लंबे समय से खनन मजदूरों के लिए कार्य कर रही गैर सरकारी संस्था माइनिंग लेबर प्रोटेक्शन कैंपेन के मैंनेजिंग ट्रस्टी डॉ. राणा सेनगुप्ता फोन पर गांव कनेक्शन को बताते हैं, “अकेले खनन में 25 लाख वर्कर हैं। इनमें से करीब 250000 लाख लोग बीमारी से पीड़ित होंगे। मोटा मोटा अनुमान बताऊं जो इनमे से 50 फीसदी या तो मर चुके होंगे या मरने के कगार पर होंगे। क्योंकि सरकार का सिसिकोसिस को लेकर जो पोर्टल है वो 2017 में बना और 2019 उसमें काफी अनप्रोफेशनल तरीके से काम हुआ।’

राजस्थान सरकार के सिसिलिकोसिस पोटर्ल पर 26 फरवरी 2020 तक प्रकाशित जानकारी के मुताबिक 33 जिलों से कुल 80747 केस रजिस्टर्ड हुए, जिनमें 15026 में जिनमें पुष्टि हुई, 48794 को रिजेक्ट किया गया जबकि 7438 को सरकारी ग्रांट दी गई। बाकी में कागजी कार्यवाही जारी है।

राजस्थान सिलिकोसिस silicosis की पॉलिसी लागू करने वाले देश का पहला राज्य है। अक्टूबर 2019 में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जो पॉलिसी जारी की उसमें रोगियों की पहचान, उनके पुनर्वास, रोकथाम और बचाव के प्रावधान किये हैं। सिलिकोसिस पीड़ित मरीजों को 1500 रुपए महीने की पेंशन देने का भी प्रावधान है।

डॉ. राणा सेनगुप्ता कहते हैं, “सिलिकोसिस पृथ्वी की सबसे पुरानी बीमारियों में से एक है लेकिन जागरुकता पिछले कुछ वर्षों में आई है। लेकिन इससे बचने के लिए पानी छिड़कने जैसे प्रावधान हैं। ये कौन करेगा। क्योंकि जो खदान वाला है वो पेशेवर नहीं है और जो काम करने वाला है वो भी प्रशिक्षित नहीं है। लेकिन इसका इकतरफा नुकसान सिर्फ कामगारों (मजदूरों-कारीगरों) को होता है। सरकार पुर्नवास और बीमारी के इलाज के लिए पैसे दे रही लेकिन बीमारी से बचे कैसे इसके इंतजाम नहीं है।”

सिलिकोसिस का इलाज नहीं है, बचाव ही एक मात्र उपाय है। जो लोग समय रहते समझ गए वो कुचक्र से बच जाते हैं। सिरोही के राजकीय जिला अस्पताल से जिस तिपहिया टैंपो में गांव कनेक्शन टीम मोरस के चली थी, उसके ड्राइवर रमेश कुमार ने ये तो बताया कि वो और उनके पिता सिलिकोसिस से पीड़ित है लेकिन वो कैमरे पर बातचीत को तैयार नहीं हुए।

मोरस गांव में गांव कनेक्शन की टीम के साथ वो भी गए और उनकी दशा देखने के बाद खुद बातचीत के लिए राजी हुए। अकेले पिंडवाना में ही 100-150 फैक्ट्रियां होंगी। कई में मैंने 14 साल तक पत्थर कटाई का काम किया। दो साल पहले सांस लेने में दिक्तत के बाद डॉक्टर के पास गया तो उन्होंने कहा कि जिंदा रहना तो ये काम छोड़ दो। तबसे मैं ऑटो चला रहा हूं। ये बीमारी इतनी खराब है कि मेरे साथ के मेरी उम्र के जो लड़के थे, उनमें करीब 15 लोगों की मौत हो चुकी है। कई की कुछ दिनों पहले ही शादियां हुई थीं।’

रमेश बताते हैं, वो हम लोग किसी को बताते नहीं है क्योंकि बाद में लोग हमसे कटने लगते हैं। शादी-ब्याह में दिक्कत आती है। आप ये जानिए कि पिंडवाड़ा में जिस जगह मैं रहता हूं वहां अगर 150 लोग रहते हैं तो कम से कम 100 लोगों का इससे इलाज जरुर चल रहा होगा।’

रमेश के पिता को सरकार से बीमारे के नाम पर जो पैसे मिले थे उससे उन्होंने ऑटो खरीदा और किसी तरह परिवार चला रहे हैं। लेकिन मोरस गांव के उरसाराम (18 साल) को अभी कोई दूसरा विकल्प नहीं मिला। मोरस गांव के एक नुक्कड़ पर उनका संयुक्त परिवार रहता है। उनके चाचा को बीमारी है और वो अब इलाज के सहारे हैं। उरसाराम की कुछ साल पहले ही शादी हुई है।

चाचा को बीमारी है, गांव में इतने लोगों की मौत हो चुकी है, फिर भी ये काम क्यों करते है? इस सवाल के जवाब में उरसाराम कहते हैं, “हम लोगों को कोई और काम नहीं आता। पढ़े लिखे हैं नहीं, कोई और काम होता तो ये क्यों करते।”

पत्थर की कटाई गढ़ाई का काम करने वालों की आमदनी ठेकेदारों की रहमत पर निर्भर करती है। रमेश और दूसरे जो मजदूरों ने बताया उनके मुताबिक उन्हें 300 से 500 रुपए तक मिलते हैं। सिलकोसिस पॉलिसी आने से पहले तक इस बीमारी से मरीज की मौत होने पर एक लाख देने का प्रावधान था। लेकिन ज्यादातर मरीज अशिश्रित हैं उनके लिए सरकारी लाभ पाना भी पत्थर की कटाई जैसा ही मुश्किल काम है।

उरसाराम के घर से करीब 200 मीटर दूर अर्की बाई का घर है। खेत के बीच में बना छोटा सा घर, उसमें दो छोटे से कमरे और बाकी बांस-बल्ली के बीच अर्की बाई अपने 5 बच्चों, बुजुर्ग सास और देवरानी के साथ रहती हैं। तीन साल पहले उनके पति सतराराम की सिलिकोसिस से मौत हो गई। जिसके बाद अर्की बाई का परिवार दर-दर की ठोकरे खाने को मजबूर है।

अर्की बाई के मुताबिक उन्हें किसी तरह की न तो कोई पेंशन मिलती है ना सरकारी मदद। गांव वालों ने उनकी दशा को देखकर उनके घर में घर मां-बाड़ी केंद्र चलता है। जिसके बदले 600-700 महीने किराया मिलता है।

अंजा बताती हैं, “अर्की बाई के हालात बहुत बद्तर है। पति की बीमारी के बाद इनके एक बेटे (7 वर्ष) को पैर में अजीब बीमारी हो गई, वो चरपाई पर ही पड़ा रहता है। उसके चलते न ये मजदूरी करने भी नहीं जा पाती। बच्चे के पैर का रोग बढ़ता जा रहा लेकिन इतने पैसे नहीं इनके पास की अस्पताल ले जा पाएं।’ अर्की बाई के बेटे की साल 2019 में ही मौत हो गई।

गाइड लाइंस के मुताबिक मजदूरों और कारीगरों को सुरक्षा प्रबंधों के साथ काम करना चाहिए, जिनमें मुंह पर मॉस्क और सूखी कटाई-घिसाई की जगह गीली घिसाई होनी चाहिए। ताकि पत्थर की धूल उड़ने न पाए। गांव कनेक्शन की टीम सिरोही के रिको इंडस्ट्रियल एरिया समेत आसपास कई एरिया गई लेकिन ज्यादातर जगहों पर कैमरे को बंद करा दिया गया, कई जगह असुरक्षा के चलते हमने खुद से कैमरे छिपा लिए और मोबाइल आदि से चोरी छिपे कुछ वीडियो बनाने की कोशिश की। कहीं-कहीं पर ठेकेदार और मालिक की गौर मौजूदगी में कुछ कारीगरों ने हमसे बात की, जिसका वीडियो खबर में लगा है।

पत्थर के खोदने, घिसाई और कटाई का काम परंपरागत सदियों से होता रहा है। लेकिन कारीगरों के मुताबिक ड्रिल जैसी नई मशीनों के आ जाने के बाद मुसीबत बढ़ गई है।

माइनिंग लेबर प्रोटेक्शन कैंपेन के मैंनेजिंग ट्रस्टी डॉ. राणा सेनगुप्ता बताते हैं, सिर्फ सिलिकोसिस ही नहीं एक और लाइलाज बीमारी एस्बेस्टॉसिस (asbestosis) है जो पत्थर से जुड़े कारीगरों और मजदूरों को हो रही है, “पहले सिरोमिक की टाइस्ल बनाने के लिए राजस्थान से पत्थर गुजरात जाता था, लेकिन कुछ साल पहले सरकार ने कहा कि अब पत्थर में मूल्यवर्धन करेंगे, पत्थर को पीसकर बुरादा बनाकर भेजेंगे, इससे नए कारखाने लगेंगे लोगों को रोजगार मिलेगा। लेकिन ये पत्थर भी तो रोग ही दे रहा है। ब्यावर और अजमेर में ऐसे की फैक्ट्रिलयां लग गईं जहां सीमेंट की चादरें और टाइल्स बनती है। इन जगहों पर उद्योगपतियों ने वजन तौलने वाली मशीनें लगा रखी हैं, मजदूर-कारीगर की खासी सेहत से उनका मतलब नहीं है लेकिन जैसे ही उसका वजन कम होना शुरु होता है वो उसे निकाल देते हैं। तो नियम कानून कई बने है लेकिन इन सबका जमीन पर उतरना जरुरती है तभी आम आदमी का भला होगा।’

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