उत्तर प्रदेश के लाखों अन्य किसानों की तरह, वाराणसी के बीरभानपुर शहर के 56 वर्षीय राजेंद्र प्रसाद ने 20 जून तक मानसून की बारिश आने की उम्मीद में जून के मध्य तक धान की बुवाई कर ली थी।
लेकिन बारिश नहीं आई, प्रसाद के धान के पौधे सूख गए। किसान पूरी तरह से बारिश पर निर्भर था। वह एक बीघे (एक हेक्टेयर जमीन का एक चौथाई हिस्सा) में फैली अपनी धान की फसल की सिंचाई करने का जोखिम नहीं उठा सकता था। हताश होकर उन्होंने धान की दूसरी बुवाई की, जो बमुश्किल ही बच पाई है।
प्रसाद ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मेरी आधी फसल सूख कर बरबाद हो गई। मैंने खेत की बुवाई में 3,000 रुपये लगाए थे। अब मेरे पास जुलाई के मध्य में फिर से धान की बुवाई करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। इस समय बारिश शुरू हुई। अब तक में अपनी फसल पर लगभग 4,500 रुपये खर्च कर चुका हूं. और यह अभी भी शुरुआती दौर में है।”
किसान ने मायूस होकर कहा, “आमतौर पर एक बीघा धान के लिए मुझे 12,000 रुपये मिल जाते हैं। लेकिन इस साल फसल पर मेरा लगाया गया पैसा धान को बेचकर मिलने वाली कीमत से ज्यादा हो जाएगा। मैं अच्छे से जानता हूं कि इस बार नुकसान में खेती कर रहा हूं।”
प्रसाद के गाँव से 300 किलोमीटर से ज्यादा दूर, बाराबंकी के सूरतगंज शहर के एक धान किसान दुर्गावती ने कहा कि उसने इस साल की धान की फसल पर अपनी सारी बची हुई जमा पूंजी लगा दी। उसने तीन एकड़ (लगभग 1.2 हेक्टेयर) जमीन पर फसल बोई है।
40 साल की दुर्गावती ने बताया, “मैंने इस तरह का मौसम पहले कभी नहीं देखा. पूरा सावन खत्म होने को है और बारिश न के बराबर हुई है. मेरे धान के पौधे सूखने के कगार पर हैं। वे पहले से ही पीले होने लगे हैं, “उन्होंने कहा कि बुवाई की लागत कई गुना बढ़ गई है।
उत्तर प्रदेश (यूपी) भारत का दूसरा सबसे अधिक धान उत्पादक राज्य है। इस साल कम मानसूनी बारिश ने राज्य में खरीफ धान की खेती करने वाले लाखों किसानों को बुरी तरह प्रभावित किया है।
हमारी नई सीरीज – धान का दर्द – के हिस्से के रूप में गाँव कनेक्शन के पत्रकारों ने इस साल धान की फसल पर कम मानसूनी बारिश के प्रभाव का दस्तावेजीकरण करने के लिए प्रमुख धान उत्पादक राज्यों का दौरा किया। उनकी रिपोर्ट चिंताजनक हैं, धान की खेती से जुड़े किसान कथित तौर पर फसल के बड़े नुकसान को देख रहे हैं। इस स्थानीय फसल के नुकसान का असर वैश्विक स्तर पर भी पड़ेगा। क्योंकि देश में चावल के उत्पादन में गिरावट से वैश्विक खाद्य आपूर्ति बाधित होने की संभावना है। भारत दुनिया का एक बड़ा चावल निर्यातक है।
उत्तर प्रदेश की यह कहानी ‘धान का दर्द’ सीरीज में पहली है, उत्तर प्रदेश के अलावा, देश के इंडो-गंगा क्षेत्र के बिहार व झारखंड और पश्चिम बंगाल देश में सबसे अधिक धान का उत्पादन करते है। यहां भी कम मानसूनी वर्षा हुई है। इससे धान की बुवाई प्रभावित हुई है और धान की खेती के तहत रकबा कम कर दिया।
कृषि विशेषज्ञ इस साल धान उत्पादन में गिरावट की चेतावनी दे रहे हैं, यूपी में कृषि विभाग के सांख्यिकी और कृषि बीमा विंग के निदेशक राजेश गुप्ता ने गाँव कनेक्शन को बताया, “अपर्याप्त वर्षा के साथ धान की देर से बुवाई का इस साल धान उत्पादन पर स्वाभाविक रूप से कुछ प्रभाव पड़ेगा।” इस साल समय से पहले मार्च में पड़ी भीषण गर्मी के कारण गेहूं का उत्पादन पहले ही प्रभावित हो चुका है।
सीतापुर के कृषि विज्ञान केंद्र के कृषि वैज्ञानिक दया शंकर श्रीवास्तव ने कहा, “देर से बुवाई सिर्फ आने वाली रबी (सर्दियों) की फसलों को प्रभावित नहीं करेगी, क्योंकि किसानों के पास अपने खेतों को तैयार करने के लिए बहुत कम समय होगा. बल्कि कम बारिश से चावल का उत्पादन भी प्रभावित होगा।” कृषि वैज्ञानिक ने आगे बताया, “अगर किसान कम पानी वाली तिलहन और दलहन की खेती करेंगे, तो ही वे लाभ कमा सकते हैं. लेकिन इस साल धान से ज्यादा उम्मीद नहीं है।”
धान उत्पादक राज्यों में कम वर्षा
जून 2021 के एक पेपर, ग्रोथ परफॉर्मेंस एंड प्रॉफिटेबिलिटी ऑफ राइस प्रोडक्शन इन इंडिया: एन असर्टिव एनालिसिस में उल्लेख किया गया था कि चावल देश का सबसे महत्वपूर्ण भोजन है। लगभग 65 प्रतिशत आबादी इसकी खपत करती है। यह लगभग सभी राज्यों में उगाया जाता है. साल 2018-19 के दौरान देश के कुल चावल उत्पादन में राज्यों की हिस्सेदारी कुछ इस तरह से थी- पश्चिम बंगाल (13.79 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश (13.34 प्रतिशत), तेलंगाना के साथ आंध्र प्रदेश (12.84 प्रतिशत), पंजाब (11.01 प्रतिशत), ओडिशा ( 6.28 प्रतिशत), छत्तीसगढ़ (5.61 प्रतिशत), तमिलनाडु (5.54 प्रतिशत), बिहार (5.19 प्रतिशत), असम (4.41 प्रतिशत), हरियाणा (3.88 प्रतिशत) और मध्य प्रदेश (3.86 प्रतिशत)।
इन शीर्ष धान उत्पादक राज्यों में से कई में, इस मानसून सीजन (जो जून से सितंबर तक रहता है) में अब तक कम बारिश हुई है।
उदाहरण के तौर पर भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के मुताबिक, 1 जून से 8 अगस्त के बीच उत्तर प्रदेश में माइनस 40 प्रतिशत की कुल वर्षा की कमी दर्ज की गई थी। यहां फर्रुखाबाद, अमरोहा, रामपुर और कुशीनगर में 70 प्रतिशत से अधिक की कमी दर्ज की गई।
इसी तरह, पश्चिम बंगाल और बिहार में समान अवधि में क्रमश: माइनस 35 फीसदी और माइनस 25 फीसदी बारिश हुई है। झारखंड, जहां बड़ी संख्या में किसान खरीफ धान उगाते हैं, वहां शून्य से 48 फीसदी कम बारिश दर्ज की गई है। ओडिशा में कम वर्षा के आंकड़े शून्य से नौ प्रतिशत कम है।
कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने नोट किया था कि कम बारिश खरीफ की बुवाई पर सीधा असर डालती है क्योंकि वर्षा आधारित कृषि देश के कुल बोए गए क्षेत्र का लगभग 51 प्रतिशत है. और कुल खाद्य उत्पादन का लगभग 40 प्रतिशत है।
धान की बुवाई पर खर्च हो गई बचत, किसानों ने की सूखा राहत पैकेज की मांग
सूरतगंज की दुर्गावती बताती हैं, “एक एकड़ भूमि में एक इंजन (बिजली से चलने वाले पानी के पंप) के पानी से धान की बुवाई की लागत इस साल 15,000 रुपये आई है। जब हर साल सामान्य रूप से बारिश होती है, तो लागत एक हजार रुपये प्रति एकड़ होती थी। अगर जल्द ही अच्छी बारिश नहीं हुई तो हमारी फसल निश्चित रूप से बरबाद हो जाएगी और इसके साथ ही हमारी सारी बचत भी चली जाएगी।”
दुर्गावती के खेत से करीब 200 किलोमीटर दूर लखीमपुर खीरी की मितौली तहसील के 55 वर्षीय किसान प्रेमचंद वर्मा ने गाँव कनेक्शन को बताया कि उन्हें इस साल धान से किसी कमाई की उम्मीद नहीं है।
वर्मा ने कहा, “सबसे ज्यादा खर्च ट्यूबवेल पर होता है। मुझे अपने खेत की सिंचाई के लिए ट्यूबवेल पंप का इस्तेमाल करना पड़ता है और एक बीघे की सिंचाई में लगभग छह घंटे लगते हैं। पंप को एक घंटे तक चलाने में एक लीटर डीजल लग जाता है। डीजल की कीमत लगभग सौ रुपये प्रति लीटर है।”
उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में अब तक माइनस 81 प्रतिशत की दूसरी सबसे अधिक वर्षा की कमी दर्ज की गई है (रामपुर जिले में सबसे ज्यादा बारिश की कमी शून्य से 82 प्रतिशत दर्ज है)। फर्रुखाबाद के नेवलपुर गांव के धान किसान राहुल गुप्ता ने गांव कनेक्शन को बताया कि पहली बुवाई में उसकी पूरी धान की फसल बर्बाद हो गई थी. इस बार फसल बचने की उम्मीद में उन्होंने धान की फिर से बुवाई की है.
उन्होंने कहा, “मैंने अपने धान की सिंचाई के लिए एक नाले से पानी लिया है. नाले में पास की एक फैक्ट्री का पानी भी बहकर आता है. उसमें रासायनिक प्रदूषक होते हैं। मेरे पास अपनी फसल की सिंचाई के लिए और कोई विकल्प नहीं है।”
फर्रुखाबाद जिले के माधोपुर गांव के प्रधान मूंगे लाल ने गांव कनेक्शन को बताया कि उनके गांव के लगभग हर किसान को अपनी धान की पहली बुवाई से नुकसान हुआ है.
लाल ने गाँव कनेक्शन को बताया, ” बारिश की कमी किसानों के लिए विनाशकारी रही है। बिल्कुल भी बारिश नहीं हुई है। सरकार को आदर्श रूप से सूखे की घोषणा करनी चाहिए और नुकसान झेल रहे किसानों को राहत पैकेज देना चाहिए।”
कृषि विशेषज्ञों ने कहा, ‘बहुत देर हो चुकी है, उम्मीद कम है’
कृषि विभाग की सांख्यिकी एवं कृषि बीमा शाखा के निदेशक राजेश गुप्ता ने गांव कनेक्शन को बताया कि 6 अगस्त तक उत्तर प्रदेश में लक्षित खरीफ धान क्षेत्र का लगभग 90.13 प्रतिशत फसल के साथ बोया जा चुका है।
देश में इस खरीफ सीजन में धान के रकबे में भी गिरावट आई है। केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा पिछले महीने 29 जुलाई को जारी आंकड़ों से पता चला है कि देश भर में धान की बुआई पिछले साल की बुवाई की तुलना में 13.28 फीसदी कम है।
फसल की स्थिति पर रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है, “पिछले साल (267.05 लाख हेक्टेयर) की तुलना में चावल के तहत लगभग 231.59 लाख हेक्टेयर क्षेत्र कवरेज की सूचना दी गई है। इस तरह से पिछले वर्ष की तुलना में 35.46 लाख हेक्टेयर कम क्षेत्र को कवर किया गया।”
कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, ओडिशा, चिकट्टीगच, त्रिपुरा, असम, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मेघालय, हरियाणा, मिजोरम, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और सिक्किम राज्यों से कम बुवाई क्षेत्र की सूचना मिली है।
फर्रुखाबाद (यूपी) में कृषि विज्ञान केंद्र के कृषि वैज्ञानिक वीके शर्मा ने कहा कि उनके केंद्र ने किसानों को धान के बजाय चारा या तिलहन लगाने की सलाह दी थी। शर्मा ने चेतावनी देते हुए कहा, “धान की बुवाई के लिए अब बहुत देर हो चुकी है। मुनाफे की बहुत कम उम्मीद है क्योंकि किसानों ने सिंचाई पर काफी पैसा खर्च कर दिया है। धान की उत्पादकता में भी कमी आने की आशंका है क्योंकि मिट्टी धीरे-धीरे नमी खो रही है।”
कृषि से जुड़ा संकट, चावल के कम उत्पादन से खाद्य सुरक्षा प्रभावित होने की आशंका
झारखंड स्थित राइट टू फूड अभियान के खाद्य कार्यकर्ता बलराम ने कहा, “न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि बिहार, पश्चिम बंगाल और झारखंड में भी धान की बुवाई के मौसम में बारिश की कमी दर्ज की जा रही है. इससे देश में चावल का उत्पादन प्रभावित होना तय है।”
उन्होंने बताया, ” इस बार समय से पहले आने वाली गर्मी ने गेहूं के उत्पादन पर असर डाला था और अब धान पर अपर्याप्त बारिश से संतुलन बिगड़ना तय है। दो मुख्य फसलों के प्रभावित होने से देश में अनाज के भंडार पर असर पड़ने की संभावना है।”
यह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा, गरीबी और दरिद्रता को दूर करने के लिए सरकारों द्वारा शुरू की गई खाद्य राशन योजनाओं के लिए संकट पैदा कर सकती है।
मुफ्त राशन वितरण योजना (प्रधान मंत्री गरीब कल्याण योजना) अप्रैल 2020 में समाज के गरीब तबके की मदद करने के लिए शुरू की गई थी. वो अभी तक COVID-19 महामारी के कारण हुई आर्थिक तबाही से उबर नहीं पाए हैं। इस योजना के तहत समाज के गरीब तबके के लोगों को हर महीने पांच किलो अनाज बांटा जाता है।
“बलराम ने कहा, “यह योजना इस साल मार्च में छह महीने के लिए बढ़ा दी गई थी और सितंबर में खत्म होने वाली है – ऐसे समय में जब खाद्य संकट का खतरा मंडरा रहा है। सरकार को निश्चित रूप से इस योजना का विस्तार करना चाहिए क्योंकि हम खाद्य संकट की ओर बढ़ रहे हैं।”
कार्यकर्ता ने बताया, ” जब मानसून में अच्छी बारिश होती है, तब भी अगस्त-सितंबर-अक्टूबर के तीन महीने देश में खाद्य सुरक्षा के लिए संकट के लिए जाने जाते हैं। छोटे किसान अपनी सारी बचत खरीफ (गर्मी) की फसलों पर खर्च कर देते हैं. भुखमरी से होने वाली मौतों की ज्यादातर रिपोर्ट इन्हीं महीनों में होती है।”
भारत के चावल उत्पादन में गिरावट की वजह से वैश्विक खाद्य संकट?
भारत में धान के कम उत्पादन के प्रभाव संभावित रूप से चावल की ग्लोबल सप्लाई को भी प्रभावित कर सकते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग के अनुसार, भारत दुनिया में चावल का सबसे बड़ा निर्यातक है और वैश्विक आपूर्ति में 40 प्रतिशत का योगदान देता है।
प्रेस सूचना ब्यूरो द्वारा जारी 16 दिसंबर, 2021 की प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, 2020-21 में, भारत का चावल निर्यात 87 प्रतिशत बढ़कर 17.72 मिलियन टन (एमटी) हो गया, जो 2019-20 में 9.49 मिलियन टन था।
प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया, “मूल्य प्राप्ति के संदर्भ में, भारत का चावल निर्यात 2020-21 में 38 प्रतिशत बढ़कर 8815 मिलियन अमरीकी डालर हो गया, जो 2019-20 में 6397 मिलियन अमरीकी डालर रिपोर्ट किया गया था। रुपये के मामले में, भारत का चावल निर्यात 44 प्रतिशत बढ़कर 65298 करोड़ रुपये हो गया। पिछले साल 2020-21 में यह 45379 करोड़ रुपये था।”
भारत में चावल के निर्यात पर मंडरा रहा संकट छह महीने पहले इसी तरह की उस स्थिति की याद दिलाता है जब समय से पहले पड़ी गर्मी ने गेहूं के उत्पादन को कम कर दिया था। इसकी वजह से भारत सरकार को घरेलू मांग को पूरा करने के लिए निर्यात बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा था.
गेहूं के निर्यात को कुछ समय के लिए बंद करने के निर्णय की घोषणा तब भी की गई थी जब यूक्रेन-रूस युद्ध के परिणामस्वरूप आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान के कारण अंतरराष्ट्रीय बाजारों में मांग में वृद्धि हुई थी।
इंडो-गंगा के मैदानों में कम वर्षा क्यों?
मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि बंगाल की खाड़ी में कम दबाव के क्षेत्रों का बनना और उनके स्थानों का स्थानांतरण इंडो-गंगा के मैदानी इलाकों के कुछ राज्यों में वर्षा की कमी का प्राथमिक कारण था।
एक प्राइवेट वेदर एजेंसी स्काईमेटवेदर में मौसम विज्ञान और जलवायु परिवर्तन के उपाध्यक्ष महेश पलावत ने गाँव कनेक्शन को बताया, “कम दबाव के क्षेत्र जो जून-जुलाई के दौरान बंगाल की खाड़ी में एक के बाद एक विकसित हुए, वे जल निकाय के उत्तर-पश्चिमी भागों के साथ अपने सामान्य स्थानों के बजाय खाड़ी के पश्चिमी भाग की ओर विकसित हुए हैं। इसके परिणामस्वरूप इंडो-गंगा के मैदानों के साथ अपने सामान्य स्थान के बजाय मध्य भारत की ओर मानसून की ट्रफ का स्थानांतरण हुआ है।”
पलावत ने कहा, “इंडो-गंगा के मैदानी इलाकों में 19 जुलाई से शुरू हुई बारिश जून और जुलाई के आधे महीनों में हुई बारिश के नुकसान की भरपाई के लिए पर्याप्त नहीं होगी।” उन्होंने आगे बताया, “इसलिए, इस साल हम उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार जैसे प्रमुख चावल उत्पादक राज्यों में वर्षा की कमी देख रहे हैं।”
हालांकि, मौसम विशेषज्ञ ने बताया कि देश के मध्य भाग में, जिसमें महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित मराठवाड़ा और विदर्भ इलाके शामिल हैं, और तेलंगाना के उत्तरी क्षेत्रों के साथ-साथ मध्य प्रदेश के दक्षिणी हिस्सों जैसे अन्य क्षेत्रों में इस वर्ष संतोषजनक वर्षा देखी गई है।
पलावत ने कहा, “यह कहना जल्दबाजी होगी कि क्या जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है, लेकिन समुद्र का तापमान निश्चित रूप से बढ़ रहा है। अगर आने वाले सालो में ये निम्न दबाव वाले क्षेत्र पश्चिम की ओर बने रहते हैं और इंडो-गंगा के मैदानों में कम वर्षा होती है और मध्य भारतीय क्षेत्र में अच्छी वर्षा होती है तो हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि जलवायु परिवर्तन हुआ है.”
हालांकि, बाराबंकी में दुर्गावती जैसे गरीब किसानों को मौसम की गतिशीलता और बदलती जलवायु की कोई समझ नहीं है। वे सिर्फ इतना जानते हैं कि फसल न हो पाने और कम उत्पादन उन्हें कर्ज लेने और घर चलाने के लिए बाकी के साल मजदूर के रूप में काम करने के लिए मजबूर कर देगा.
खबर प्रत्यक्ष श्रीवास्तव ने वाराणसी में अंकित सिंह, लखीमपुर खीरी में रामजी मिश्रा और बाराबंकी में वीरेंद्र सिंह के इनपुट के साथ लिखी है।