श्रीनगर। चटकीले धागों के आर-पार आंगलियां घूमाते हुए परवेज़ (50 वर्ष) जब अपने परिवार वालों के बारे में बताते हैं तो उनका कलेजा फ़ट सा जाता है। “हम चालीस साल से ये काम कर रहा है लेकिन आज तक अपने लिए कुछ खरीदा नहीं। यही हाल रहा तो हम ख़ुदकुशी कर लेगा,” इतना कहने के बाद परवेज़ अहमद अपने आंसू रोक नहीं पाये।
‘शहर-ए-ख़ास’ से होती संकरी गलियों के बीच एक मकान में गुलाबी, हरा, आसमानी, सुनहरा और जितने भी रंगों की कल्पना की जा सकती हो, सभी धागे कालीन बनाने वाली मशीन में फसे हुए हैं। इन सभी सूतों से खूबसूरत डिज़ाइन बनाते बुनकरों के हाथ जब सूतों के आर-पर होते हैं तो लगता है इतनी बारीकी से किये जाने वाले काम के इन्हें तो काफ़ी पैसे मिलते होंगे। हालाँकि सच एकदम परे हैं।
“एक दिन में 150 रुपये मिलते हैं हमको, दस से बारह घंटे काम करने के। पिछले सालों में तो हमारी दिन भर की कमाई भी काम हो गई है। अगर सरकार अपने दरवाज़े हमारे लिए खोलती तो कुछ उम्मीद थी,” परवेज़ कहते हैं।
कोई ऐसे ही खुदकुशी करने की बात क्यों कहेगा भला? बुनकरों से बात करने पर पता चलता है कि इन्हें कश्मीरी कालीन बुनने के दिन भर के मात्र 150 रुपये मिलते हैं। “तीन बच्चे हैं और बीवी है घर पे। आप हमारा घर के बहार से ही लौट जायेगा। अंदर नहीं जायेगा, इतना ख़राब है। हमे नहीं पता हम अब कितना दिन जीएगा,” आंसू पोछ कर काम में ध्यान लगाने के कोशिश करते परवेज़ अहमद ने आगे कहा और काम में मशरूफ़ हो गए।
श्रीनगर का सबसे अधिक आबादी वाला क्षेत्र, डाउन-टाउन, ‘शहर-ए-ख़ास’ के नाम से जाना जाता है जो सभी पारम्परिक और स्थानीय चीज़ों का थोक बाज़ार है। इसी इलाके में है कश्मीरी कालीनों का एक छोटा सा कारखाना जहाँ 8-10 बुनकर मिलकर, कालीन बिनते हैं। वास्तव में यह एक घर है जिसके ग्राउंड फ्लोर पर एक कमरे में कालीन बनाने वाली मशीनें लगायी गयी हैं और तीसरे मंज़िल पर रॉ-मटेरियल इकठ्ठा है जिसमे सफ़ेद से लेकर, हर रंगों में डाई किये गए सिल्क व सूती के धागे भारी मात्रा में हैं। स्थानीय कारीगरों के मुताबिक व्यापर में गिरावट के वजह से श्रीनगर में अब गिने-चुने बुनकर और कश्मीरी कालीन बनावाने वाले लोग रह गए हैं।
यहीं पर काम करने वाले दूसरे बुनकर मोहम्मद रफ़ीक़ बताते हैं, “मेरे बच्चों का तीन महीने से फीस नहीं भर पाया मैं, उनको स्कूल से निकाला (निकाल दिया गया)। डेढ़ सौ रुपये में हमारा पेट कैसे भरता है वो तो बस अल्लाह ही जानता है।”
सालों से कश्मीरी कालीन का व्यापा र कर रहे मोहम्मद रफ़ीक सूफ़ी बताते हैं, “अब कश्मीर में धड़ल्ले से सब चाइनीज़, अफ़गानी और ईरानी कालीन बेच रहे हैं क्यों की यह सब सस्ते होते हैं और मशीन के बने होते हैं तो एक बार में कई बन जाते हैं। कोई मजदूरों को साल भर एक कालीन बनाने के लिए पैसे क्यों देना चाहेगा भला? यहाँ एक कालीन बनाने में चार बुनकरों को एक से सवा साल लग जाते हैं। वहां मशीन से एक दिन में चार तैयार।”
कारखाने में मौजूद दूसरे बुनकर शोएब (54 वर्ष) बताते हैं, “तीन साल पहले तो 300-350 रुपये मिल जाते थे दिन के लेकिन अब तो जाने कैसे दिन गुज़र रहे हैं हमारे।”
विदेशी कालीन कश्मीरी कालीनों पर हावी हो रहे हैं और कश्मीर कालीनों के व्यापार में गिरावट में जो सबसे ज़्यादा पीड़ित हैं वो हैं स्थानीय बुनकर जिनको इसके अलावा और कुछ काम नहीं आता। जिन्होंने अपनी आधी से ज़्यादा उम्र कोमल और रंगीन कालीन बनाने में गँवा दी है। “मेरी बीवी सुई-धागे (सिलाई) का काम करती है और करीबन हज़ार, दो हज़ार कमा लेती है महीने का। अगर मेरे भरोसे रहेगी तो सब भूखे मर जायेंगे,” परवेज़ ने कहा।