आणंद (गुजरात)। “जब पूरा देश मंदी की बात कर रहा था, अमूल ने 20 फीसदी की वृद्धि की थी। आप शहर जाइए, या गांव, अधिकारी से मिले या नेता, सबको लगता है अमूल उनकी अपनी संस्था है, देश के किसानों की संस्था है।” अमूल के प्रबंध निदेशक आरएस सोढ़ी देश की सबसे बड़ी सहकारी दुग्ध संस्था का परिचय देते हैं।
देश में किसानों और पशुपालकों की आमदनी कैसे बढ़ सकती है इस सवाल के जवाब में आरएस सोढ़ी ने कहा, “डेयरी और पशुधन ही ऐसा सेक्टर है जिसमें अगर सही तरीके से निवेश हो तो किसानों की आमदनी दोगुनी नहीं तीन से चार गुना भी हो सकती है। क्योंकि भारत की बढ़ती आबादी को प्रोट्रीन और फैट चाहिए, दूध और अंडा उसका बेहतर जरिया है, अब जिसकी मांग होगी उसी कारोबार में फायदा होगा ना।”
देश की सबसे बड़ी दूध और दुग्ध उत्पाद सहकारी संस्था गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ लिमिटेड (अमूल) की तरक्की की कहानी, भारत में डेयरी सेक्टर में चुनौतियों और संभावनाएं, किसानों की आमदनी और पशुपालन को लेकर गांव कनेक्शन ने अमूल के एमडी से आरएस सोढ़ी से लंबी बात की।
अमूल की कहानी …
अमूल गुजरात के 36 लाख किसान परिवारों की अपनी संस्था है। 73 साल पहले इसकी नींव रखी गई। शुरूआत कुछ यूं हुई कि खेड़ा जिले के किसान जो दूध पैदा करते थे उसकी मार्केट बांबे (मुंबई) में थी। किसानों को भाव नहीं मिलता था। सर्दियों में भाव आधे हो जाते थे, पूरा दूध किसानों ने खरीदा नहीं जाता था। इसलिए किसानों ने मिलकर 1946 में खुद दूध के कारोबार करने की शुरुआत की और फिर अमूल का जन्म हुआ। किसान और गांव जुड़ते गए।
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आज की बात करें तो देश के 18500 गांवों में सहकारी मंडलियां (दुग्ध समितियां) हैं। करीब 80 डेरी प्लांट हैं। 50 हजार करोड़ रुपए का सालाना टर्नओवर है। अमूल आज देश की सबसे बड़ी एफएमसीजी कंपनी है। जिसे छोटे-छोटे लोगों ने मिलकर कर बनाई है।
अमूल में सबसे अच्छी बात ये है कि इसमें वैल्यू एडिशन (मूल्य संवर्धन) का लाभ किसानों के खातों में जा रहा है। मान लीजिए अगर हमने एक लीटर दूध दिल्ली-मुंबई जैसे किसी शहर में 50 रुपए में बेचा तो करीब 40 रुपए किसानों के खाते में जाते हैं। क्योंकि अमूल सहकारी संस्था है, यहां के प्रबंधनकर्ता, शेयर होल्डर सब किसान हैं। किसी कृषि उत्पाद (कमोडिटी) में ऐसा नहीं होता है। शायद विश्व में कहीं ऐसा नहीं होता होगा। ये बहुत बढ़िया उदाहरण है कि किसान अपनी संस्था बनाकर खुद अपने उत्पाद की मार्केटिंग करें। जो उनका लाभ दिन ब दिन बढ़ता जाएगा।
सवाल: आप कहते हैं कॉपरेटिव मॉडल में दूध के 80 फीसदी पैसे किसान तक पहुंचते हैं?
जवाब : 50 रुपए का मैने उदाहरण दिया था, मैं गुजरात में गाय के दूध की बात करता हूं। यहां गाय का दूध 44 रुपए लीटर है। उसमें 3.5 फीसदी फैट होता है तो किसान को 31 से 32 रुपए मिलते हैं। फिर आखिर में 10 फीसदी प्राइज डिफरेंस मिलता है। जो साल में 3-4 रुपए होते हैं। तो आखिर में कीतम 36-37 रुपए हो गई। फिर हमें उसे कैटल फीड (चारा आदि) देते हैं, जिसकी लागत 22-23 रुपए किलो पड़ती है। लेकिन हम किसानों को देते हैं, 19-20 रुपए में देते हैं।
क्योंकि अमूल या दूसरे कॉपरेटिव में जो आमदनी होती है, उसमे खर्चा निकालकर किसानों को दे दिया जाता है। ये कोई निजी कंपनी तो हैं नहीं कि बीच में 20-30 फीसदी मुनाफा काटा जाए।
सवाल: गुजरात के बाहर अमूल का सफर कैसा रहा? और इससे क्या किसानों को फायदा हुआ?
जवाब: गुजरात के बाहर अमूल की शुरुआत राजस्थान से हुई। शुरुआत में राज्य की सहकारी संस्थाओं को लगा कि हम उन्हें चुनौती देंगे, लेकिन जल्द उन्हें समझ आया कि हम उन्हें और उनके किसानों की बेहतरी के लिए ही है। क्योंकि जो डेयरियां किसानों को अच्छा भाव नहीं दे पा रही थी वो मार्केट से बाहर हो गई। अमूल का अपना एक सिस्टम और तकनीकी है, उससे जरिए वहां पारदर्शिता आई और किसानों को अच्छे रेट मिले।
जैसे शुरुआत में लोगों ने कहा कि पश्चिम बंगाल में दूध कहा हैं? लेकिन आज वहां करीब एक लाख लीटर दूध ले रहे हैं। अच्छा भाव भी है। इसी तरह यूपी में 8 लाख लीटर का क्लेक्शन है। अमूल क्या भाव दे रहा है ये बड़ी बात नहीं लेकिन बड़ी बात ये होती है वहां नया इंटरवेंशन होता है।
अगर हम किसी मार्केट से सिर्फ 5 फीसदी दूध लेते हैं और 35 रुपए का भाव दें तो बाकि कंपनियों को भी वही भाव देना पड़ता है। ये एक बेंच मार्क जैसा हो जाता है। अमूल भले सिर्फ 5 फीसदी किसानों से दूध ले लेकिन फायदा बाकी 95 को भी होता है। वैसे भी मार्केट में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होगी तो किसान उपभोक्ता दोनों को फायदा होगा।
सवाल: अमूल की तरह बाकी सहकारी दुग्ध संस्थाएं आगे नहीं बढ़ पाईं?
जवाब: लोगों की नजर में अमूल इंडिया में नंबर एक है। और बाकी कॉपरेटिव पीछे हैं। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता हूं। बाकी संस्थाएं अपने-अपने क्षेत्र में काफी अच्छा कर रही है। जैसे कर्नाटक में जाएंगे तो वहां अमूल नहीं नंदिनी नंबर वन है। राजस्थान में सरस सबसे आगे तो पंजाब में वेरका नंबर एक है। क्योंकि ये अमूल से 20-30 साल बाद में बने हैं तो उसी अनुसार पीछे भी हैं। वैसे नंदिनी आधे भारत में पहुंच गया है। दूसरी बात अगर अगर वो अपने राज्य से निकलकर दूसरे में जाएंगे तो उसी हिसाब से खर्च बढ़ेगा तो किसानों तक आमदनी कम पहुंचेगी।
अमूल पहला बेटा है लेकिन बड़ा भाई भी है। बडा भाई छोटे भाइयों का ध्यान रखता है। तो जो मिल्क कॉपरेटिव बाद में बने अमूल ने उनके साथ अपने अनुभव शेयर किए, उन्हें तकनीकी दी, जरुरत पड़ने पर हर संभव मदद भी की। कॉपरेटिव में प्राइवेट वाद नहीं है जहां जो कंपटीशन में आए उसे खत्म कर दो, हम उसे हाथ पकड़ कर आगे बढ़ाते हैं।
सवाल: कॉपरेटिव कैसे काम करता है?
जवाब: कॉपरेटिव का काम है, बाजार उपलब्ध करवाना। अगर कोई किसान एक या दो गाय भैंस रखकर अपना दूध या अन्य उत्पाद शहर में बेच रहा है तो उसे कॉपरेटिव की जरुरत नहीं है। समस्या वहां है जहां दूरदराज के इलाकों में बाजार की उपलब्धता है नहीं है। किसान संगठित करवाकर उन्हें मार्केट का देना ही कॉपरेटिव का काम है। ये काम वो खुद से करते सकते हैं तो इससे बेहतर कुछ भी नहीं।
सवाल: लोग कहते हैं किसानों का फ्यूचर कॉपरेटिव में है?
जवाब: भारत में ज्यादातर किसान की आमदनी देखिए, मुश्किल से 6000-7000 रुपए सलाना है। इसमें से 48 फीसदी खेती से आती है। 12-14 फीसदी पशुपालन और बाकी मजदूरी आदि से आती है। लेकिन अगर ग्रोथ (वृद्धि की) बात करें तो पिछले 10 सालों में खेती की वृद्धि 3 फीसदी है, जबकि पशुपालन की सालाना बढ़त 14 फीसदी है।
कारण है कि शहर भारत में लोगों की आमदनी बढ रही है। दूध और अंडा इन सबकी डिमांड बढ़ रही है, क्योंकि फैट (वसा) और प्रोटीन का प्रमुख जरिया है। तो किसानों को उन चीजों की पैदावार करनी है, जिनकी मांग है। अगर आप धान और गेहूं की पैदावार करते जाएंगे तो एफसीए (भारतीय खाद्य निगम) के गोदाम भरते जाएंगे। या सरकार की एसएसपी देनी होगी, जबकि अंडे पर ऐसा नहीं है, क्योंकि उसकी मांग है। अगर ग्रामीण भारत को अपनी आमदनी बढ़ानी है तो पशुपालन ही एक ऐसा जरिया है। जिसमें निवेश करेंगे, उत्पादन करेंगे तो मुनाफा मिलेगा, आमदनी बढ़ेगी।
भारत की कुल कृषि जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में पशुपालन की 30 फीसदी भागीदारी है, ये करीब 10 लाख करोड़ होता है। जिसमें 8 लाख करोड़ तो सिर्फ डेयरी ही है।
जबकि धान, गेहूं और गन्ना तीनों को मिला लें तो 6 लाख करोड़ के आसपास होता है। लेकिन राज्य सरकारो और केंद्र का बजट देखें तो उसमें 90-95 फीसदी कृषि का होता है। जो सेक्टर 30 फीसदी योगदान कर रहा है, उसे 5 से 10 फीसदी संसाधन? इसीलिए पॉलिसी स्तर पर इस दिशा में सोचने की बहुत जरूरत है।
दूध कारोबार से जुड़े 80-90 फीसदी किसान भूमि हीन और कम जोत वाले किसान हैं। तो हमें देखना है कि हम धान-गेहूं के लिए संसाधन देते रहेंगे, जिसमें स्थायित्व आ गया है। या फिर पशुपालन को बढ़ावा देंगे जिसमें तेजी से वृद्धि हो रही है।
सवाल: हम लोग पिछले कई वर्षों से दूध उत्पादन में नंबर एक हैं। किसानों की दूध की सही कीमतें कैसे मिलें और न्यूजीलैंड जैसे प्राइस क्रैश न हो, उससे कैसे बचेंगे?
जवाब: भारत में 10 करोड़ परिवार पशुपालन पर निर्भर हैं। जबकि न्यूजीलैंड में 10 हजार किसान दूध का व्यवसाय करते हैं। न्यूजीलैंड 20-22 लाख मीट्रिक टन दूध का उत्पादन करता है, जबकि भारत 180 मीट्रिक टन, लेकिन न्यूजीलैंड का 95 फीसदी दूध सरप्लस (उपयोग से अतिरिक्त है) है। उनको मार्केट चाहिए।
अगर आपने किसी से सस्ता दूध ले लिया तो भारत के किसान पशुपालन से बाहर चला जाएगा, तो हमारी जो 130-140 करोड आबादी है जो 2050 जो एक अरब 70 करोड़ होने वाली है, उसके लिए करीब 530 मीलियन टन दूध की जरुरत होगी वो कहां से आएगा? तब आप इंपोर्ट करेंगे, न्यूजीलैंड तो सिर्फ 22 मीट्रिक टन पैदा करता है, तो वो उत्पादन बढ़ाएगा, लेकिन आज का रेट होगा उससे दोगुना लेगा।
आप देखिए खाद्य तेल में क्या हो रहा है। 1990 तक हम आत्मनिर्भर थे, सिर्फ 5-10 फीसदी बाहर से मंगाते थे। आज देखिए हम 70 फीसदी आयात कर रहे। करीब 70 हजार करोड़ रुपए का सिर्फ तेल मंगाते हैं। क्रूड आयल में भी यही है।
सवाल: अब जिस दिन दूध को आपने खुले बाजार के हवाले कर दिया, वहां खाद्य तेल और क्रूड को पार कर जाएगा। आपके पास इतनी विदेशी मुद्रा है क्या? और सबसे बड़ी बात 10 करोड़ परिवारों की आजीविका का जरिया क्या होगा?
जवाब: भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है। जिसे भारत का बाजार मिल जाए, उसे कोहिनूर मिल जाएगा, लेकिन भारत कोहिनूर खो देगा। इसीलिए हम लोगों ने आर भारत मिल जाए तो उनको कोहिनूर मिल जाएगा, लेकिन हम कोहिनूर खो देंगे। इसलिए हम लोग आरएसीपी के खिलाफ थे, और सरकार ने भी किसानों का ध्यान रखा।
सवाल: कई सहकारी संस्थाएं सरकारी-नेताओं आदि के हस्तक्षेप का शिकार हुईं? अमूल की क्या रणनीति रहती है?
जवाब: अमूल की सफलता को कारण है कि हम सौभाग्यशाली रहे कि 73 साल तक हमारे पास समर्पित और दूरदृष्टा नेतृत्व रहा। त्रिभुवन दास पटेल से लेकर और डॉ वर्गीज कुरियन तक, इन दोनों महानुभावओं की वजह से हम प्रगति कर रहे हैं।
अब जो संस्था हमेशा से अच्छा कर रही है, जो 36 लाख किसानों की संस्था है। जब पूरे भारत भारत में स्लोडाइन की बात चल रही है, ये संस्था 20 फीसदी की ग्रोथ से बढ़ रही है। तो कोई भी पार्टी केंद्र में हो या राज्य में वो सोचती है कि जो संस्था अच्छा चल रहे ही उसमें क्यों बाधा बनें। ऐसे ही अधिकारी भी सपोर्ट करते हैं।
आप कहीं भी जाए, शहर को या गांव, नेता या अधिकारी.. सबके जेहन मैं है कि अमूल मेरी अपनी संस्था है। ये हमारे अपने किसानों की है। ये कोई मुंबई के पेडा रोड या यूके में रहने वाले किसी अरबपति की संस्था नहीं है, इसीलिए सब सहयोग करते हैं।
सवाल: डेयरी में कितनी संभवानाएं हैं, छोटे किसान कैसे मुनाफा कमाएं, कोई टिप्स
जवाब: डेयरी किसानों की आमदनी को दोगुनी कर सकती है। सरकार इस वक्त करीब रासायनिक खादों पर 75 हजार करोड़ की सब्सिडी देती है। अगर यही सब्सिडी पशुपालन में दी जाए जो किसानों की आमदनी 3 नहीं 4 गुना हो सकती है।
सब्सिडी एक वैशाखी की तरह है। जो पांव पर खड़े नहीं होने देती। सरकारों को चाहिए किसान की एक बार ऐसी मदद करें कि वो अपने पैरों पर खड़ा हो जाए। पूरा इंफ्रास्ट्रक्टर बना कर दीजिए। हर फसल पर सब्सिडी की जगह अगर किसान को एक गाय या भैंस दे दी जाए तो आपको हर साल किसान को नहीं देना पड़ेगा। वो उसी से अपनी आमदनी बढ़ा ले जाएगा।
सवाल: भारत में डेयरी किसान के सामने चुनौतियां क्या हैं?
जवाब: भारत में इस वक्त करीब 30 करोड गाय-भैंसे हैं। देश को अब और ज्यादा पशु नहीं चाहिए। हम दूध उत्पादन में नंबर एक हैं, आज करीब 180 मीट्रिक टन की मांग है, कल (2050 तक) 540 मीट्रिक टन की होगी। तो हमें करना क्या है कि पशुओं की उत्पादकता बढ़ानी है। ताकि प्रति पशु ज्यादा दूध दे।
भारत में अभी पशुपालन को तवज्जो नहीं मिलती है। जो खेत और घर में बचा खुचा होता है उसे खिलाते हैं। ये बदलना होगा।
हमको देखना है उसी भैंस या गाय से तीन गुना ज्यादा दूध मिले। काम जारी है देश में डेयरी विकास बोर्ड ने नेशनल डेयरी प्लान के अंतर्गत में “बेटर फीडिंग और बेटर ब्रीडिंग” अच्छा चारा और अच्छी नस्ल के क्षेत्र में काफी काम किया है, आगे और करने की जरुरत है
दूसरा हमारी सबसे बड़ी चुनौती है, किसान की दूसरी पीढ़ी, जो पढ़ी लिखी है वो खेती या पशुपालन करना नहीं चाहती। जो थोड़ा पढ़ जाता है वो शहर में जाकर 10,000-12 हजार की नौकरी खोजता है।
तो हमें कृषि और डेयरी को दोनों को मॉडर्न, ग्लैमर्स और समकालीन बनाना होगा। कि लोगों को लगे ये अच्छा स्टार्टअप है। शहर में कैसी भी नौकरी से अच्छा है अपना काम करना।
हमको माइंडसेट चेंज करना है। डेयरी को मॉडर्न बिजनेस बनाना है। अब कोई हाथ से दुहना नहीं चाहता तो मशीनें, आकर्षक शेड हैं, कंप्यटूराइज मशीन हैं। इन सबके सहारे गांव में रोजगार के अवसर देने होंगे। वैसे मैं पिछले 7-8 साल से देख रहा हूं कि कई पढ़े लिखे युवा इस क्षेत्र में आए हैं। एक स्नातक का छात्र अगर 10-15 लाख का लोन लेकर 30 गाय-भैंस का फार्म शुरु करता है तो वो 50-60 हजार हर महीने कमा रहा है। इससे गांव में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे
क्योंकि अगर एक लाख लीटर दूध संगठित क्षेत्र में उत्पादित होता है तो 6 हजार जॉब के अवसर बनते हैं, जिसमें 5000 गांव में और 1 हजार शहर में
हमारा आंकलन है कि अगले 10 साल में 20 करोड़ लीटर दूध संगठित क्षेत्र में आएगा तो एक करोड़ 20 लाख लोगों को रोजगार मिलेगा। बस नीति निर्माताओं को चाहिए कि वो एक बार संसाधन मुहैया कराने की तरफ ध्यान दें।
नोट- ये खबर मूलरुप से फरवरी 2020 में गांव कनेक्शन में प्रकाशित हुई थी।
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