चित्रकूट (मध्य प्रदेश)। गाय की हमेशा चर्चा होती है, लेकिन शायद ही लोगों को भारत की देसी गायों की नस्लों के बारे में पता होगा। जबकि हर एक नस्ल की अपनी अलग-अलग विशेषताएं भी हैं।
मध्य प्रदेश के सतना जिले से 87 किमी. दूर चित्रकूट में गोवंश विकास एवं अनुसंधान केन्द्र में देश की 14 नस्लों के गोवंश एक साथ मिल जाएंगे। यहां पिछले 25 वर्षों से अधिक समय से देसी गायों की 14 नस्लों के संरक्षण और विकास के लिए शोध किया जा रहा है।
अनुसंधान केन्द्र में साहीवाल (पंजाब), हरियाणा (हरियाणा), गिर (गुजरात), लाल सिंधी (उत्तराखंड), मालवी (मालवा, मध्यप्रदेश), देवनी (मराठवाड़ा महाराष्ट्र), लाल कंधारी (बीड़, महाराष्ट्र) राठी (राजस्थान), नागौरी (राजस्थान), खिल्लारी (महाराष्ट्र), वेचुर (केरल), थारपरकर (राजस्थान), अंगोल (आन्ध्र प्रदेश), कांकरेज (गुजरात) जैसी देसी गायों के नस्ल संरक्षण पर अनुसंधान चल रहा है।
गोवंश विकास एवं अनुसंधान केन्द्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. राम प्रकाश शर्मा बताते हैं, “देसी गायों की संख्या धीरे-धीरे घटती जा रही है, विदेशों में इन्हीं देसी गायों का संरक्षण अच्छे से हो रहा है, लेकिन पिछले कुछ साल में देसी गायों के प्रति लोगों की जागरूकता बढ़ी है, इसी कारण से इसकी मांग भी तेजी से बढ़ रही है।
वो आगे कहते हैं, “देसी गायों का अपना एक अलग ही महत्व है, जरूरत के हिसाब से देश में गायों की नस्लों को अलग-अलग भांगों में बांटा गया है। इसमें दुग्ध प्रधान नस्ल, वत्स्य प्रधान नस्ल और तीसरी द्विगुण सपन्न नस्ल होती हैं।”
दुग्ध प्रधान नस्ल
साहीवाल, गिर, राठी, और लाल सिंधी गाय दुग्ध उत्पादन के लिए ठीक होती हैं।
द्विगुण सपन्न
इनमें वो नस्ल आती हैं जो दुग्ध उत्पादन और खेती दोनों के काम आती है।
वत्स्य प्रधान नस्ल
वत्स्य प्रधान में वो नस्ल आती हैं जिनके बैल खेती के काम आते हैं। इनमें नागौरी, खिल्लारी, वेचुर और मालवी नस्ल आती है।
दुग्ध प्रधान नस्लों के बारे में वो कहते हैं, “इसमें दूध देने वाली नस्लों को रखा गया है, इसमें साहीवाल, गिर, राठी, और लाल सिंधी गायों को रखा गया है। साहीवाल मूलता पंजाब की नस्ल है। ये लाल रंग की सुंदर नस्ल होती है, इनकी सींग छोटी और पूछ लंबी होती है, सरल स्वाभाव की होती हैं। इसके दूध का उत्पादन 18 सौ से 19 सौ लीटर प्रति लैक्टेशन होता है। गिर गाय वैसे तो इससे भी ज्यादा दूध देती है, लेकिन ज्यादा गर्मी और बरसात से उसके दूध का उत्पादन प्रभावित होता है।”
वो आगे बताते हैं, “लेकिन अगर हम एक नियंत्रित वातावरण में गिर नस्ल को रखते हैं तो बहुत अच्छा दूध उत्पादन होता है। गिर नस्ल मूल रूप से गुजरात की नस्ल है। इसकी पहचान भी बहुत आसान होती है, इनके कान पान के पत्ते की तरह लंबे लटके होते हैं, सींग ऊपर की ओर और माथा उभरा हुआ होता है। ये इसकी विशेष पहचान होती है, रंग तो लाल ही होता है। दूध देने की दृष्टि से ये दुनिया में सबसे अधिक दूध देने वाली नस्ल होती है।”
“तीसरी नस्ल जो हम संरक्षित कर रहे हैं वो राठी है। ये राजस्थान मूल की होती है और इसपर चकत्ते-चकत्ते होते हैं। यानी की चितकबरी कलर की होती है। इसकी सबसे अच्छी विशेषता ये होती है, कि अगर सात-आठ किमी चरने के लिए भी जाना पड़े तो ये चली जाती हैं। और दूध भी अच्छा देती है, “उन्होंने आगे बताया।
द्विगुण सपन्न नस्लों के बारे में वो बताते हैं, “इनमें वो नस्लें आती हैं जो दूध भी अच्छा देती हैं और बछड़े खेती के काम के लिए उपयोगी माने जाते हैं। इसमें हरियाणा, थारपरकर, कांकरेज और अंगोल नस्ल आते हैं। ये नस्लें द्विगुण सपन्न में आती हैं। इसमें थारपरकार नस्ल की गाय बहुत अच्छा दूध देती हैं, पहचान की दृष्टि से ये सफेद रंग की होती हैं पूछे लंबी और माथा फूला हुआ होता है।”
कांकरेज नस्ल के बारे में वो कहते हैं, “ये मूल रूप से गुजरात की नस्ल है, इसकी सींग से ही हम इन्हें पहचान सकते हैं, विशालकाय सींग होती है। इसका शरीर भी विशालाकाय होता है, ये देश की सबसे भारी नस्ल होती है। इसके बैलों से किसान 30-35 कुंतल गन्ना आराम से ले जा सकते हैं। ये नस्ल दूध भी अच्छा देती है और बैल भी मजबूत होते हैं।