श्रीनगर (जम्मू-कश्मीर)। “कश्मीर में कार्पेट का काम एक नंबर का चल रहा था लेकिन जब से बेईमानी आहिस्ता-आहिस्ता शुरू हो गया तब से ये काम आहिस्ता-आहिस्ता ख़तम हो गया। जब से मशीन मेड मार्केट में आया, मशीन मेड ने इसको डाउन कर दिया एकदम, “मोहम्मद रफ़ीक ने कहा।
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मोहम्मद रफ़ीक़ सूफ़ी बचपन से ही कश्मीरी कालीन के व्यापार को समझते, देखते आये हैं। पहले दादा, पिता को देखकर फिर खुद काम का जिम्मा लेकर पिछले चालीस वर्षों से कश्मीरी कालीन बनवाते और उसका व्यापार कर रहे हैं। “क्योंकि मैंने पढ़ाई नहीं किया। बचपन से ही मेरा डैडी भी यही काम करता था तो (मैं भी) सीखता गया और इंट्रेस्ट आता रहा। अगर चार आदमी (कालीन बुनकर) काम करेंगे, दस बाई दस यानी सौ फुट के कालीन के लिए, कांटीन्यू सुबह आठ बजे से शाम को पांच बजे तक… तो 15 महीने में वो एक कालीन बन पायेगा, इतना बारीक नॉट होता है।”
रफ़ीक ने बताया कि किस तरह कम समय और लागत से बनने वाली विदेशी कालीनें भारत में धड़ल्ले से न सिर्फ बिक रही हैं बल्कि कश्मीरी कालीनों का व्यापार भी तेज़ी से कम कर रही हैं, या लगभग कर ही चुकी हैं। कालीन के व्यापार की पुख़्ता समझ रखने वाले मोहम्मद रफ़ीक़ सूफ़ी बताते हैं, “एक कार्पेट में गैलेक्सी सबसे बढ़िया मटेरियल होता है लेकिन अब कस्टमर को इतना बेवक़ूफ़ बनाते हैं… ऊन से भी घटिया मटेरियल लगा रहे हैं कारपेट में। हम ये नहीं कह रहे कि सब लोग गैलेक्सी का ही बनाते हैं, कुछ दूसरे सिल्क का भी बनाते हैं। गैलेक्सी नंबर एक का सिल्क होता है।”
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गांव कनेक्शन के पूछने पर कि क्या विदेशी कालीन को कश्मीरी कालीन बता कर बेचा जाता है, सूफी ने बताया, “हाँ बिलकुल, अपना ईमान ख़तम हो गया अब। हम अपने कश्मीर की बात कर रहा है। इतना गिर गया है दुकानदार कि ईरान और चीन से आया माल को ये बोल कर बेचता है कि ये कश्मीर का कालीन है। दो नंबर माल बेचते हैं, लोगो को धोखा देते हैं। और आपको तो पता नहीं कुछ… क्या, कहाँ का माल है। इन सब वजह से बुनकरों को 100% नुकसान हुआ है। वो बेचारा क्या कमायेगा जब इसका बिक्री ही न यहीं होगा!”
वर्षों से श्रीनगर से डाउन टाउन इलाके में कालीन में इस्तेमाल होने वाले सिल्क और सूती धागों का पुश्तैनी व्यापार करने वाले शोएब बताते हैं, “हमारा कारपेट जो है वो ज़्यादा एक्सपेंसिव होता है क्यों कि इसका मटेरियल इतना अच्छा होता है, सिल्क का। इसमें जो काम होता है वो भी ज़्यादा मेहनत का होता है। कस्टमर आते हैं तो वो भी लो-रेंज का सामान ही ढूंढते हैं अब। अब ईरान, चीन और अफगान से आया कार्पेट को तो मशीन से बनाते हैं इसलिए वो तुरंत बन जाता है लेकिन हमारे बुनकर तो साल भर से भी ज़्यादा वक़्त में एक बना पाते हैं। अब मेरे पास तो बस सस्ता माल लेने वाले लोग ही आते हैं.. ये सब वजह से हमारा कश्मीर कालीन का मांग काम हो गया है और बिज़नेस डाउन हुआ।”
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“मेरे ख़्याल से जल्द ही ख़तम हो जायेगा ये काम। मैं अंदाज़ा लगा रहा हूँ, साल 1990 से फिर 2000 में 40% काम रह गया था फ़िर अब जो है मुश्किल से 10% काम बचा है बस। पहले तो यहाँ हर एक गली में लूम था अब तो यहाँ पर खाली एक लूम है और दूसरा है बस बागमपुरा में। सब ख़तम हो गया, “सूफ़ी बताते हैं।