लखनऊ। पुलिस एक ऐसी व्यवस्था है जो सीधे तौर पर नागरिकों से जुड़ी हुई है। ऐसे में इसकी कार्य प्रणाली को लेकर अक्सर सवाल उठते रहते हैं। गाँव कनेक्शन ने अपने सर्वे के माध्यम से भारत में पुलिसिंग के मायनों को समझने की कोशिश की है। सर्वे में शामिल ज्यादातर लोगों ने माना कि पुलिस अब अच्छा काम कर रही है। हालांकि लोग यह भी मानते हैं कि भारत में पुलिसिंग में अभी बहुत सुधार की जरूरत है।
गांव कनेक्शन के सर्वे में 19 राज्यों के 18,267 लोगों से उनकी राय ली गई है। सर्वे में विभिन्न मुद्दों पर इन लोगों से बात की गई। इसी में से एक सवाल था- ‘पुलिस के बारे में आप क्या सोचते हैं?’ इस सवाल के जवाब में 7,741 लोगों (34.6%) ने कहा, पुलिस अच्छा काम कर रही है। वहीं 3,925 लोगों (26.1%) का कहना था कि पुलिस अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करती है। इस दौरान 2,474 लोगों (13.6%) ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में पुलिस की साख पर दांव लगा है। 2,015 लोग (12.2%) मानते हैं कि पुलिस एक निश्चित जाति या धर्म के लोगों की मदद करती है। साथ ही 2,112 लोगों (13.6%) का मानना है कि पुलिस एफआईआर दर्ज नहीं करती।
सर्वे के जवाबों को देखें तो साफ होता है कि लोग पुलिस की कार्यप्रणाली से कुछ खास संतुष्ट नहीं हैं। पुलिस की इस गिरती साख पर सीमा सुरक्षा बल (BSF) से सेवानिवृत्त एडिशनल डायरेक्टर जनरल संजीव कृष्ण सूद कहते हैं, ”अंग्रजों ने अपने लिए 1862 में पुलिस सेवा बनाई थी। उन्होंने यह इसलिए बनाया ताकि हिंदुस्तान के लोगों को दबा कर रखा जा सके। इसके बाद जब हम आजाद हुए तो हमने उसी सिस्टम को आगे बढ़ाया। ऐसे में पुलिस का जो मकसद है कि वो आम जनता की सेवा करे, उसकी तकलीफों को समझे और उसका निदान करे, यह पुलिस का मकसद नहीं रह जाता है।” संजीव कृष्ण सूद लंबे अरसे से पुलिस रिफॉर्म और सिक्योरिटी को लेकर लिखते रहे हैं।
संजीव कृष्ण सूद की बात से छत्तीसगढ़ काडर के आईपीएस और दंतेवाड़ा के एसपी अभिषेक पल्लव भी इत्तेफाक रखते हैं। अभिषेक पल्लव मानते हैं कि पुलिस की छवि को लेकर अभी बहुत काम करना है। वो कहते हैं, “जनता का विश्वास जीतना बहुत जरूरी है, जिससे पुलिस के प्रति विश्वास बढ़े। इसके लिए पुलिस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर सकती है। इससे लोगों तक पुलिस आसानी से पहुंच सकती है। सोशल मीडिया और टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जाए, जो कि पारदर्शी हो। साथ ही सीनियर अधिकारी अपने फोन उठाएं तो काफी फर्क पड़ सकता है। आज तो सीनियर अधिकारी ही अपना फोन नहीं उठाते। इसका असर यह होता है कि जनता और पुलिस के बीच का संपर्क टूट जाता है।”
पुलिस के जिस व्यवहार की बात संजीव कृष्ण सूद और अभिषेक पल्लव कर रहे हैं, वो व्यवहार इसी साल की शुरुआत में एक वायरल वीडिया में देखने को मिला था। इस वीडियो में उत्तर प्रदेश के लखनऊ के गुडंबा थाने में एक बुजुर्ग महिला एफआईआर लिखाने के लिए कोतवाल के पैर पकड़कर गिड़गिड़ाती नजर आई थी, जबकि कोतवाल अपने सिर पर हाथ रखे कुर्सी पर आराम फरमाते दिख रहे थे। आगे की बात से पहले आप इस वीडियो को देखें…
इस वीडियो में जो महिला हाथ जोड़े दिख रही है उसका बेटा आकाश यादव उर्फ टिंकू एक प्लाईवुड फैक्ट्री में काम करता था, जहां खराब मशीन की चपेट में आकर उसकी मौत हो गई थी। वीडियो में दिख रही महिला इसी मामले में फैक्ट्री मालिक के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने की मांग कर रही है और प्रभारी निरीक्षक तेज प्रकाश सिंह उसके सामने कुर्सी पर बैठे हैं। यह वीडियो सिर्फ इस थाने या एक पुलिस वाले का नहीं है। यह वीडियो पुलिस की कार्यप्रणाली का एक सबूत है, जो बताता है कि पुलिस का क्या रवैया है।
दंतेवाड़ा के पुलिस अधिक्षक अभिषेक पल्लव पुलिस के ऐसे व्यवहार पर कहते हैं, ”ऐसी बात आती है कि जिस थाने में जितना क्राइम रजिस्टर होगा तो इसका मतलब होगा कि उस थाना क्षेत्र में क्राइम बढ़ गया है, ऐसे में बहुत से थाना प्रभारी का यह प्रयास रहता है कि मामले को दबा दिया जाए, ताकि रजिस्टर में संख्या कम लिखी जाए। साथ ही ऐसे मामलों को जल्दी निपटा दिया जाता है जिसमें कोई पहुंच वाला व्यक्ति शामिल रहता है। यह इसलिए कि वो व्यक्ति ऊपर के अधिकारियों को फीडबैक दे सकता है, लेकिन जिसकी पहुंच नहीं होती, जिनका कोई सुनने वाला नहीं, उनके मामले को दबाने का प्रयास किया जाता है।”
अभिषेक पल्लव की यह बात कि पुलिस मामले को दबाने के प्रयास में लगी रहती है, इस बात की पुष्टि 28 फरवरी 2016 को अमर उजाला में लगी एक खबर करती है, जिसका शीर्षक है- ”लखनऊ पुलिस का कारनामा, दस साल बाद लिखी एफआईआर‘। इस खबर के मुताबिक, गोमतीनगर पुलिस ने 2006 में एक 13 साल के लड़के की मौत को हादसा बताकर रफा-दफा कर दिया था। इस लड़के का नाम नीरज था। नीरज के पिता शत्रुघ्न ने अपने बेटे की हत्या का आरोप लगाया था, लेकिन पुलिस ने उनकी नहीं सुनी। इसके बाद शत्रुघ्न ने राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग में प्रार्थनापत्र दिया। इसपर आयोग की सख्ती पर 10 साल बाद 2016 में इस मामले में पुलिस ने हत्या का मुकदमा दर्ज किया और पांच लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की।
गांव कनेक्शन के सर्वे में झारखंड के पलामू जिले की रहने वाली ममता कहती हैं, ”पुलिस जल्दी सुनती नहीं हैं। जिसके पास पैसा होता है पुलिस उन्हीं की सुनती है, जिसके पास पैसा नहीं है उसे तो चक्कर लगाना होता है, तब भी उसकी सुनवाई नहीं होती।” ममता से मिलती जुलती बात ज्यादातर लोग कहते हैं।
पुलिस की कार्यप्रणाली में अगर सबसे ज्यादा किसी चीज पर सवाल खड़े होते हैं तो वो है एफआईआर दर्ज न करना। अभिषेक पल्लव इस मामले पर कहते हैं, ”फिलहाल पुलिस फोर्स की हर जगह कमी है। थाने में मैन पावर कम होता है। ऐसे में केस दर्ज करने पर विवेचना करनी होगी और विवेचना के लिए फोर्स की जरूरत पड़ेगी। इसलिए कई थाना प्रभारी थाने केस को दबाने का प्रयास करते हैं।”
26 जुलाई 2016 को लोकसभा में पेश आंकड़ों के अनुसार, 1 जनवरी 2015 तक (नवीनतम उपलब्ध आंकड़े) भारत में 500,000 पुलिसकर्मियों की कमी है।
पुलिस फोर्स की कमी की बात को यूपी के पूर्व डीजीपी अरविंद कुमार जैन भी सही मानते हैं। वो कहते हैं, ”पुलिस में जो वैकेंसी है वो भरी जानी चाहिए। इससे काफी फर्क पड़ेगा। अभी पुलिस पर बहुत लोड है।” साथ ही वो यह भी कहते हैं कि, ”यह आरोप सही हैं कि बहुत से मुकदमें नहीं लिखे जाते हैं, इन्हें लिखना चाहिए। और आंकड़ों को लेकर कोई समीक्षा नहीं होनी चाहिए। मुकदमें कितने भी लिखे जाएं उससे क्राइम की समीक्षा नहीं होनी चाहिए। हमारा समीक्षा का तरीका गलत है। पब्लिक की सोच और उसकी धारणा पर समीक्षा होनी चाहिए।”
पुलिस फोर्स की कमी की बात संजीव कृष्ण सूद भी मानते हैं, लेकिन वो यह भी कहते हैं कि ”फोर्स कम हो सकती है, लेकिन उसका सही इस्तेमाल किया जाता तो बात कुछ और होती। आज फोर्स का सही इस्तेमाल नहीं किया जा रहा। इसकी वजह से भी दिक्कत बढ़ रही है। अब कोई एसपी है तो उसके साथ में आठ से दस पुलिस वाले सुरक्षा में दिखते हैं। इसी तरह कई राजनेता हैं जिनकी सुरक्षा में कई पुलिस वाले नजर आते हैं। मुझे लगता है क्या जरूरत है इतने पुलिस वालों को साथ लेकर चलने की। अगर इन लोगों को थानों पर लगाया जाए तो यह सभी अच्छा काम करेंगे। जब पहले ही पुलिस वालों की कमी है, ऐसे में उनका भी सही से इस्तेमाल न करना कहां तक जायज है।”
अभिषेक पल्लव एफआईआर दर्ज न करने की मानसिकता के पीछे एक और वजह बताते हैं। वो कहते हैं, ”एफआईआर दर्ज न करने के पीछे एक वजह यह भी है कि किसी मामले की विवेचना करने में जो खर्च आता है शासन की तरफ से उस हिसाब से पैसे नहीं मिलते। काफी लोगों की शिकायत है कि एक एफआईआर को कोर्ट तक पहुंचाने में करीब 2 से 3 हजार रुपए खर्च हो जाते हैं। ऐसे में विवेचना के लिए फंड भी दिया जाए तो बेहतर होगा।”
अभिषेक कहते हैं, ”या तो एफआईआर पर फिक्स कर दिया जाए या फिर थानों के हिसाब से फंड दिया जाए, खर्चा हो रहा है तो शासन को इसे संज्ञान में लेते हुए फंड जारी करना चाहिए। इससे चीजें बेहतर ही होंगी। कई राज्यों में ऐसे फंड जारी होते हैं, जैसे छत्तीसगढ़ में 5 हजार हर महीने थाने को दिया जाता है। वहीं, तेलंगाना में थाने को 50 से 60 हजार दिया जाता है।”
गांव कनेक्शन के सर्वे के दौरान गुजरात के मोरबी जिले के रहने वाले महेंद्र सिंह जड़ेजा ने बातया, ”डिजिटल युग में पुलिस अच्छा काम करती दिखती है। गुजरात में तो पुलिस लोगों को उनके अधिकार से संबंधित जानकारी देने के लिए निशुल्क क्लास भी चलाते हैं। हां एफआईआर को लेकर अक्सर यह सुनने में आता है कि पुलिस दर्ज नहीं करती, लेकिन जब से सोशल मीडिया का चलन बढ़ा है उनपर भी दबाव है कि वो अपनी मनमर्जी नहीं कर सकते। पुलिस में पहले से तो कुछ सुधार हुआ है।”
एफआईआर दर्ज न करने के अलावा कई बार पुलिस पर जाति और धर्म के आधार पर काम करने के आरोप भी लगते हैं। द वायर की एक वीडियो रिपोर्ट के मुताबिक, दो अप्रैल, 2018 को हुए भारत बंद के दौरान पुलिस ने जाति के आधार पर मेरठ में कुछ लोगों को गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया। इस वीडियो स्टोरी का शीर्षक है- ‘पुलिस ने जाति पूछी, जाटव बताया तो पिटाई करते हुए जेल भेज दिया।’ वीडियो में कई युवा आरोप लगाते हैं कि पुलिस ने जाति के आधार पर उन्हें गिरफ्तार किया था।
‘स्टेटस ऑफ पोलिसिंग इन इंडिया 2018’ की रिपोर्ट के मुताबिक, हिंदुओं में अनुसूचित जाति के लोगों ने पुलिस को ‘बेहद डरावना’ बताया है। वहीं, ऊपरी जाति के हिंदुओं को पुलिस से सबसे कम डर लगता है। ऊपरी जाति के हिंदू अपने क्षेत्र में अधिक पुलिस चाहते हैं, वहीं अनुसूचित जाति के हिंदू ऐसा नहीं चाहते। इस रिपोर्ट को कॉमन कॉज और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के लोकनीति कार्यक्रम द्वारा जारी किया गया है।
लोग पुलिस बल को कैसे देखते हैं इसके पीछे पुलिस बल में जातियों का असमान प्रतिनिधित्व भी एक वजह हो सकता है। उदाहरण के तौर पर हिंदुस्तान टाइम्स की जुलाई 2017 की एक रिपोर्ट के मुाताबिक, उत्तर प्रदेश में 75 जिला अधीक्षक पुलिस में से 13 ठाकुर, 20 ब्राह्मण, एक कायस्थ, एक भुमिहार, एक वैश्य और छह अन्य ऊंची जातियों से हैं।
पुलिस के जाति और धर्म को आधार बनाकर कार्य करने की बात पर अभिषेक पल्लव कहते हैं, ”पुलिस के अंदर जरूरी है कि हर समाज हर धर्म के लोग हों, क्योंकि इससे विश्वास बढ़ेगा। काफी लोग कहते हैं कि पुलिस में माइनॉरिटी (अल्पसंख्यक) के लोग कम हैं, इस बात की ओर भी ध्यान देना चाहिए। क्योंकि जो निचले तबके के लोग हैं वो आर्थिक रूप से भी कमजोर हैं। साथ ही उन तक न्याय उस हिसाब से नहीं पहुंच पाता था, इसलिए उनके लिए अलग से कानून बनाए गए थे। बाद में इन्हीं कानून के मिस यूज के मामले भी सामने आए। ऐसे में जाति और धर्म के आधार पर बहुत सोच समझ कर काम करने की जरूरत है।”
इस मामले पर संजीव कृष्ण सूद का अपना अलग मत है। वो कहते हैं, ”मेरे ख्याल में पुलिस में जाति और धर्म के आधार पर मामले नहीं देखे जाते। पुलिस को अगर पैसा ऐंठना ही है तो वो जाता पात का भेदभाव नहीं करेंगे। व्यक्ति जितना अमीर होगा उतना उन्हें फायदा होगा, गरीब होगा तो उसकी सुनी ही नहीं जाएगी। ऐसे में जात-पात से अधिक पुलिस में पैसों को महत्व दिया जाता है।”
इन सब मामलों के साथ ही यह बात अक्सर सामने आती है कि पुलिस वाले अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करते हैं। कई बार वर्दी का रौब उनपर इतना हावी हो जाता है कि वो खुद अपराध करने से भी नहीं चूकते। ऐसा ही एक मामला 2018 में लखनऊ में सामने आया था। लखनऊ के गोमतीनगर इलाके में 28 सितंबर की देर रात एप्पल के एरिया सेल्स मैनेजर विवेक तिवारी की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इस मामले में प्रशांत नाम के एक सिपाही पर आरोप है कि उसने ही विवेक तिवारी को गोली मारी है।
नवभारत टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, 28 सितंबर की रात विवेक तिवारी अपने पूर्व सहकर्मी सना को उसके घर हुसड़िया एक्सयूवी से छोड़ने जा रहे थे। रात करीब 1:30 बजे उनकी एक्सयूवी को बाइक सवार दो सिपाहियों प्रशांत और संदीप ने रुकने का इशारा किया था। सिपाहियों से बचकर निकलने के दौरान उनकी एक्सयूवी पुलिस की बाइक से टकरा गई थी। चश्मदीद सना के मुताबिक दोबारा बैक करके एक्सयूवी निकालते समय सिपाही प्रशांत ने विवेक को पिस्टल से गोली मार दी थी।
यह मामला साफ तौर पर दिखाता है कि पुलिस अपनी शक्तियों का कैसे गलत इस्तेमाल कर सकती है। इन्हीं सब करणों की वजह से व्यापक तौर पर एक सोच बन गई है कि अगर पुलिसकर्मी है तो भ्रष्टाचार में लिप्त होगा ही। इस सोच के पीछे की वजहों पर बात करते हुए अभिषेक पल्लव कहते हैं, ”जब तक हम लास्ट मैन को ठीक नहीं करेंगे तब तक कुछ सही नहीं होगा। आम लोगों का सीधा कनेक्शन कॉन्स्टेबल से होता है, ऐसे में जरूरी है कि वो लोगों को हैंडल करने का अपना तरीका बदलें। इसके लिए सॉफ्ट स्किल ट्रेनिंग की भी जरूरत है। जैसे कॉरपोरेट में ही देख लीजिए, वहां कुछ भी हो जाए लेकिन बात बहुत अच्छे से करते हैं। ऐसी ट्रेनिंग पुलिसकर्मियों को भी देने की जरूरत है।”
अभिषेक पल्लव कहते हैं, ”पुलिसकर्मियों का कम्युनिकेशन ही बहुत गड़बड़ होता है, इसी वजह से बात बढ़ जाती है। अब जैसे संज्ञेय अपराध और असंज्ञेय अपराध ही होता है। इसमें पुलिस वाले अगर शिकायतकर्ता को समझा दें तो सब ठीक हो जाए, लोग संतुष्ट होकर जाएंगे। इसके उलट पुलिस वाले सीधे भगा देते हैं और ऐसे में लोग असंतुष्ट होते हैं। अब जैसे जमीन का मामला है। यह मामला सिविल विवाद में आता है, लेकिन लोग चाहते हैं कि पुलिस वाले इसमें शामिल हों। तो ऐसे मामलों में शिकायतकर्ता को समझाने की जरूरत है, न की उसे डांट कर भगा देने की। पुलिस को अपने रवैये को लेकर बहुत काम करना है अभी।”
पुलिस के अपनी शक्तियों के गलत इस्तेमाल करने पर संजीव कृष्ण सूद कहते हैं, ”यह तो है कि पुलिस अपनी वर्दी का गलत इस्तेमाल करती है। ऐसे बहुत से मामले सामने आते रहे हैं। जो छोटे पुलिस कर्मी हैं उनको जोर आम लोगों पर चलता है, जो सीनियर पोस्ट पर है उनका जो संभ्रांत लोगों पर चलता है। ऐसे में अपने अपने लेवल पर वर्दी का गलत इस्तेमाल बहुत होता है। यह ऐसी संस्था है जिसका पब्लिक से डायरेक्ट कॉन्टैक्ट है। ऐसे में इसका असर सीधा लोगों पर होता है।”
संजीव सूद पुलिस रिफॉर्म के लिए सुझाव देते हैं कि ”पुलिस की ट्रेनिंग के दौरान ही इस बात पर ध्यान दिया जाए कि उनको पब्लिक डीलिंग की ट्रेनिंग दी जाए। सॉफ्ट स्किल ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। इससे बेहतर नतीजे सामने आएंगे। पुलिस में बहुत क्षमताएं हैं, लेकिन उसका सही उपयोग करने की जरूरत है। वहीं, पुलिस को राजनीतिकरण से बचाना होगा। आज नेताओं की दखलंदाजी के चलते भी पुलिस बदहाल होती जा रही है। साथ ही अधिकारियों की जांच करने की क्षमता को बेहतर करने की दिशा में भी काम होना चाहिए।”
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अंग्रेजी में यहां पढ़ें-
1. We don’t know how to deal with stray cattle, say farmers in the Gaon Connection survey
2. 39.1% women living in rural India have to step out of their homes to fetch water
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