मिर्जापुर: गरीबों का सोना बनाने वाले कारीगर बेहाल, 25 से 30 हजार लोगों को रोजगार देने वाले पीतल कारोबार पर संकट

पूर्वांचल में होने वाली शादियों में पीतल के बर्तनों का विशेष महत्व है, लेकिन इस साल कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण न तो शादियां हो रही हैं और न ही पीतल के बर्तन बिक रहे हैं। पीतल को गरीबों का सोना भी कहा जाता है।
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मिथिलेश धर/अभिषेक वर्मा

मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)। दोपहर के डेढ़ बज रहे थे। चिलचिलाती धूप में पक्की सराय की सकरी गली के एक तरफ दीवार की छाये में 10 से 15 लोग बैठे थे। कुछ लोग सामने उस पार भट्ठियों के धुंए से काले पड़ चुके घरों में भी थे। आसपास कई लोहे के गोलाकर हैंडल धूल से भरे पड़े थे। इन्हीं हैंडल के सहारे पीतल के बर्तनों को गलाकर आकार दिया जाता है। हांडी, परात, बटुआ, हंडा बनाये जाते हैं। दूसरे कमरे में रखे पीतल के बर्तनों पर मिट्टी की मोटी परत थी।

यह दृश्य उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 250 किलोमीटर दूर जिला मिर्जापुर के पक्की सराय क्षेत्र का है। पीतल के बर्तनों वाला यह क्षेत्र पहले गर्मियों में खूब गुलजार रहा करता था, लेकिन कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए लगाये गये लॉकडाउन ने इस काम से जुड़े 25-30 हजार लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा कर दिया है।

पहले से ही अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे मिर्जापुर के पीतल कारोबार को कोरोना वायरस ने तालाबंदी की ओर ढकेल दिया है।

‘हमारी स्थिति ऐसी हो गई है कि हमारे पास खाने तक के पैसे नहीं हैं। पीतल के बर्तन तो अब लोग वैसे ही बहुत कम इस्तेमाल करते हैं। अप्रैल, मई जून, इन तीन महीनों में शादियों की वजह से हमारी कमाई होती थी और उसी से हमारा सालभर का खर्च चलता था, लेकिन लॉकडाउन ने हमें बर्बाद कर दिया।’ एक टूटी सी साइकिल पर बैठे पीतल कारीगर मक्खन सिंह कहते हैं।

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पूर्वांचल में होने वाली शादियों में पीतल के बर्तनों का विशेष महत्व है, लेकिन इस साल कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण न तो शादियां हो रही हैं और न ही पीतल के बर्तन बिक रहे हैं। पीतल को गरीबों का सोना भी कहा जाता हैं।

बंद पड़ीं भट्ठियां।

“पुश्तैनी काम है, छोड़ भी नहीं सकते। पहले दादा जी करते थे, फिर पिता जी से मैंने सीख लिया। और कुछ आता भी तो नहीं।” नाराज होते हुए मक्खन सिंह कहते हैं जिनके घर के लगभग 50 लोग पीतल के बर्तन के काम से जुड़े हुए हैं।

वे आगे कहते हैं, “हम तो मूलत: लाहौर के रहने वाले हैं। बंटरवारे के बाद ही हमारे पूर्वज यहीं आ गये। पूरे क्षेत्र में लोग हमें पीतल के कारीगर के रूप में जानते हैं, लेकिन अब लग रहा है कि हमारी पहचान नहीं बच पायेगी।” वे आगे कहते हैं।

बाजार में पीतल के बर्तनों की मांग धीरे-धीरे कम होती जा रही है। इससे पहले वर्ष 2017 में लगे जीएसटी के कारण पीतल का कच्चे माल की कीमत बहुत बढ़ गई। व्यापारी लंबे समय से कच्चे माल पर से जीएसटी हटाने की मांग कर रहे थे कि अब लॉकडाउन आ गया।

“पहले मेरे घर के आसपास के सभी लोग यही काम करते थे, लेकिन पहले जीएसटी ने हमारा बहुत नुकसान किया। कच्चे माल की कमी भी बहुत है। ऐसे में अब लॉकडाउन की वहज से हमें बहुत नुकसान हो रहा है। अब सरकार चाहेगी तभी हमारा कुछ हो सकेगा।” मक्खन सिंह कहते हैं।

मिर्जापुर में पीतल बनाने वाले कारीगर असंगठित हैं। पूरे कारोबार का भी यही हाल है। उत्तर प्रदेश सरकार ने यहां के कालीन/दरी को वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट योजना में शामिल किया है। शहर के बड़े व्यापारियों में से एक अनिरुद्ध कुमार गुप्ता कहते हैं असंगठित हो इस कारोबार के लिए श्राप जैसा है।

वे बताते हैं, “यही सीजन था हमारा। हमारी कोई सुनने वाला तो पहले भी नहीं था, अब भी नहीं है। मेरे पिता जी यह काम करते थे, लेकिन मेरे बच्चे नहीं करेंगे। लोग बताते हैं कि हमसो जिले में यह कारोबार 500 साल से है। सरकार ने कहा है कि वे छोटे उद्योगों को बढ़ावा दिया जायेगा, लेकिन हमें पता है कि हमारे हिस्से कुछ नहीं आयेगा। अभी हमें जो नुकसान हुआ है उसे ठीक होने में एक से दो साल तक का समय तो लग ही जायेगा।”

वर्ष 2016 में इस कारोबार को केंद्र सरकार ने क्लस्टर विकास कार्यक्रम में शामिल किया। इसके लिए लगभग 13 करोड़ रुपए का बजट में पास हुआ, लेकिन उससे क्या हुआ, उसे आप वर्ष 2018 में राजीव रंजन और डॉ आरके श्रीवस्त्री की शोध रिपोर्ट से समझ सकते हैं।

रिपोर्ट के अनुसार मिर्जापुर के पीतल कारोबार का सालाना टर्न ओवर 500 करोड़ रुपए से ज्यादा का है और इस कारोबार से 25 से 30 हजार लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। ज्यादा छोटे घर इस काम से जुड़े हुए हैं, लेकिन इसके कच्चे माल पर 18 फीसदी जीएसटी और बिजली की व्यवस्था ठीक न होने के कारण यह उद्योग दम तोड़ रहा है।

लघु, कुटीर एवं मध्यम उपक्रम, भारत सरकार की मानें तो मिर्जापुर में पीतल से जुड़े इस समय 300 यूनिट्स हैं।

पीतल के कारीगरण चरण सिंह भी अब बहुत निराश हैं। वे कहते हैं, “लॉकडाउन में लोगों को तमाम तरह से मदद की जा रही है, लेकिन हमारे लिए कुछ नहीं हो रहा है। मैं अपने पिता और दादा से यह काम सीखा, और कुछ आता भी नहीं। सरकार हमारी मदद करे ताकि हम फिर से दोबारा काम शुरू कर सकें। लॉकडाउन से पहले तक हम प्रतिदिन 400 से 500 रुपए कमा लेते थे। अभी तो सब बंद है।”

मिर्जापुर के कसरहटटी, पक्की सराय और बसनही बाजारों में इस समय लग्न के समय अच्छी खासी भीड़ होती है, लेकिन इस साल लॉकडाउन की वजह से पूरे बाजार में सन्नाटा है।

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