आजमगढ़ के इस कुम्हार को राष्ट्रपति, राज्यपाल और मुख्यमंत्री से भी मिल चुका है अवॉर्ड

black pottery

निज़ामाबाद, आज़मगढ़(उत्तर प्रदेश)। गाँव छोड़कर मुंबई में पानी पूरी और अखबार बेचने वाले सोहित का मन वहां भी नहीं लगा तो वापस लौट आए और लौटकर अपने पुश्तैनी काम को आगे बढ़ाने लगे, आज उनकी पहचान देश भर में है, और ब्लैक पॉटरी के लिए उन्हें राष्ट्रपति ने भी सम्मानित किया है।

निजामाबाद के कुम्हार सोहित प्रजापति को ब्लैक पॉटरी बनाने के लिए साल 2016 में पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। सोहित बताते हैं, ”जब हमारे क्षेत्र के लोगों को पता चला कि हमें राष्ट्रपति पुरस्कार मिलने वाला है तब लोगों ने ढ़ोल नगाड़े के साथ जश्न मनाया।”

सोहित कई बार विदेश में भी जाकर इस शिल्पकला का प्रदर्शन कर चुके हैं। सोहित को लगातार तीन वर्ष तक राज्य दक्षता पुरस्कार मिल चुका है। वहीं एक बार वर्ष 2015 में राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। सोहित कहते हैं कि इस उद्योग में लाभ नहीं हो पा रहा था इसलिए मैं मुम्बई जाकर पानी पूरी, अखबार और भेलपुरी बेचने लगा था। लेकिन बाद में उस काम में भी मन नहीं लगा मैं फिर वापस अपने गाँव चला आया और अपने पुस्तैनी उद्योग को बढ़ाने में लग गया। मैं कई बार सरस मेला और सूरजकुंड मेले में भाग लिया और वहां से प्रोत्साहित होकर और जमकर काम करने लगा।

ब्लैक पॉटरी उद्योग के लिए विश्व प्रसिद्ध आजमगढ़ का निजामाबाद आजकल खूब फल फूल रहा है। निजामाबाद में कुल 250 घर कुम्हार इस स्वरोजगार से लाखों कमा रहे हैं। साथ ही साथ बड़े बड़े पुरस्कार भी हासिल कर रहे हैं। निजामाबाद के कुम्हार बताते हैं कि एक समय ऐसा था जब पूरा रोजगार ठप हो गया था। उस समय सरकार की कोई मदद नहीं मिलती थी। लोग पलायन कर रहे थे। यहां के कुम्हार सदियों से पुराने चाक को घुमाते घुमाते थक गए थे लेकिन अब इन्हें डिजिटल इंडिया के तहत इलेक्ट्रॉनिक चाक दिया गया है। इलेक्ट्रॉनिक चाक मिल जाने से उत्पादन बढ़ गया है। और मेहनत कम हो गया है। लोगों का मानना है कि शिल्पकला को बढ़ाने और हमारी परंपरा को बचाये रखने के लिए सरकार की एक अच्छी पहल है। हालांकि अभी भी लोगों कहना है कि हमारे यहां मिट्टी की समस्या है। पोखरे और अन्य जगह से मिट्टी लेने पर मिट्टी माफ़िया परेशान करते हैं।

ऐसे तैयार होती है ब्लैक पॉटरी

ब्लैक पॉटरी बनाने के लिए सबसे मिट्टी को पानी में भीगा दिया जाता है। उसके बाद कपड़े से उस मिट्टी को छान लिया जाता है जो एक गढ्ढे में इकट्ठा हो जाता है। गढ्ढे में इकट्ठा मिट्टी से पानी की उचित मात्रा सुख जाने के बाद उसे निकालकर चाक पर चढ़ाया जाता है। बातचीत के दौरान एक महिला उद्यमी बताती हैं कि मिट्टी को छाना इसलिए जाता है ताकि मिट्टी में जो पत्थर या खुरदुरे चीज हैं वो बाहर निकल जाएं। मिट्टी को चाक पर ले जाकर हाथों की कला से मांग के अनुसार बर्तन बनाया जाता। बर्तनों को अलग अलग सेप में इसी चाक पर ढाला जाता है। उसके बाद इसे भठ्ठी में पकाया जाता है। इतना पकाया जाता है कि इसका रंग काला हो जाता है। भठ्ठी से निकलने के बाद इसकी फिनिशिंग की जाती है। उसी समय उस ब्लैक पॉटरी पर तरह तरह से डिजाइन भी बनाया जाता है। बर्तनों पर यह कलाकृति कुम्हारों के हाथों से ही बनता है। इसके अलावे दूसरे रंग के बर्तन के लिए काबूस जो आम के पेड़ की छाल, बांस की पत्ती, आरुष की पत्ती से नेचुरल रंग घर पर ही बनता है। और उससे बर्तनों को रंगा जाता है।

रोचक है निजामाबाद के कुम्हारों का इतिहास

निजामाबाद के बुजुर्ग बताते हैं कि 1636 में मुगल शासनकाल में गुजरात से 04 कुम्भकार गोरखपुर आये। वहां से तीन लोग जोधी का पूरा आजमगढ़ में आ गये तथा एक लोग खजानी बाजार में बस गये और मिट्टी के हाथी, घोड़ा आदि बनाने लगे। जोधी का पूरा से दो लोग निजामाबाद में काजी घराने के साथ में आये , उस समय निजामाबाद, जौनपुर के राजा के अन्डर में था। काजी साहब उन कुम्भकारों को अपने यहां बसाने के लिए 20 बीघा जमीन खरीदें। काजी साहब दोनों कुम्भकारों को पाँच-पाँच मकान बनवाकर दिये थे, उसके बाद ये लोग आधे भाग पर खेती का काम और आधे भाग पर मिट्टी का कार्य करने लगे और इस मिट्टी के बने बर्तनों को देहात में ले जाकर अनाज के बदले बेचते थे और एक समय बर्तनों में ढेबरी, मलवा , तुतुही आदि बनाते थे । धीरे – धीरे निजामाबाद में ही शीतला मन्दिर के पास अनाज व पैसे दोनों से बर्तन बेचने लगे। यहाँ के पुराने आर्ट में सजावटी सामान – प्लेट , सुराही , फूलदान आदिन अनेक प्रकार के सामान बनाते थे।

साल 1867 में तत्कालीन वायसराय द्वारा आगरा में हस्तशिल्प कला का आयोजन कराया गया , जिसमें निजामाबाद से श्री नोहर राम , श्री झींगुर राम व श्री मुन्ना प्रदर्शन करने गये थे , जिसमें एक – एक प्रमाण – पत्र तथा 20 रूपये का चाँदी का सिक्का तथा ढाई भर का सोने का बैच पुरस्कार दिया गया था। उस समय का बर्तन आज भी आगरा के म्यूजियम में मौजूद है। सा 1871 में लंदन में प्रदर्शनी लगी थी जिसमें निजामाबाद से झींगुर राम वहाँ गये थे तो उनको 100 मोहर और सोने का हल जोतता किसान पुरस्कार मिला था। धीरे धीरे इन्हीं चार लोगों का वंश आज 250 घरों में फ़ैल गया है और अपने वंशजों के कला और संस्कृति को बचाये रखने का काम कर रहे हैं।

ये भी पढ़ें : भारत में कुम्हारों का वो गांव , जहां के कारीगरों का हाथ लगते ही मिट्टी बोल उठती है…


Recent Posts



More Posts

popular Posts