आणंद/नई दिल्ली। पांच लोगों के परिवार की मुखिया रमीला बेन अपनी सभी चार भैंसें बेचकर कुछ और काम करना चाहती थीं। अक्सर चार में से एक या दो भैंस ही दूध देती थी, बाकि को उन्हें ऐसे ही चारा-पानी देना पड़ता था, लेकिन अब उन्होंने इरादा बदल लिया है, क्योंकि उन्हें दूध से ज्यादा आमदनी गोबर बेचने से हो रही है।
रमीला बेन (47 वर्ष) गुजरात में आणंद जिले में बोरवद तालुका के जकरियापुरा गांव की रहने वाली हैं। यहां केंद्रीय पशुधन मंत्री गिरिराज सिंह ने एक पायलट प्रोजेक्ट के तहत पशुपालन करने वाले घरों में गोबर गैस प्लांट लगवाए और उनसे स्लरी (प्लांट से निकलने वाला तरल गोबर) खरीदना शुरू किया। पशुधन मंत्रालय का दावा है कि इस गांव में किसानों की आमदनी तीन गुना बढ़ गई है।
गोबर से कमाई के इस मॉडल को समझने के लिए गांव कनेक्शन की टीम दिल्ली से 1200 किलोमीटर दूर आणंद जिले के गांव जकरियापुरा पहुंची। जकरियापुरा बोरवद तालुका के दहेवाण गांव ग्राम पंचायत के गांव में हर घर के बाहर भैंसें और पास में ही गोबर गैस प्लांट नजर आएंगे। पिछले कई दशकों से दूध का काम यहां के लोगों का मुख्य रोजगार है।
राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) ने यहां 1.2 करोड़ रुपए की लागत से सभी पशुपालक घरों में गोबर गैस प्लांट (एक प्लांट की कीमत करीब 25 हजार रुपए) लगवाए हैं, जिससे रोजाना करीब 22 हजार लीटर स्लरी मिलती है।
भैंस बाहुल्य इस गांव से रोजाना औसतन 450 लीटर दूध अमूल को दिया जाता है। एनडीडीबी के आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ दूध से गांव को करीब 66 लाख रुपए सालाना मिलते हैं। अमूल अब यहां से किसानों से स्लरी भी खरीद रहा है।
जकरियापुरा मॉडल से कैसे किसानों की आमदनी तीन गुना की जा सकती है? इसे समझाते हुए केंद्रीय पशुधन मंत्री गिरिराज सिंह कहते हैं, “जकरियापुरा के 431 में से 368 घरों में पशुपालन होता है। एक ग्रामीण की औसतन सालाना आमदनी करीब 17,935 रुपए थी। बायोगैस प्लांट लगाने के बाद अमूल के जरिए उसकी खरीद और मूल्यवर्धित कर जैविक खाद बनाई जा रही है। जिससे गांव के लोगों को 52,000 से 54,000 हजार रुपए की अतिरिक्त आमदनी होने लगी। इसके साथ कई लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार भी मिला है।”
गोबर के अर्थशास्त्र पर इस्तेमाल के हिसाब से गांव के लोग अलग-अलग फायदे गिनाते हैं। जकरियापुरा गांव के नट्टू भाई परमार (55 वर्ष) कहते हैं, “गोबर गैस के कई फायदे हैं, गैस मिल रही है, जलाने के लिए पेड़ नहीं काटने पड़ते, महिलाओं की मेहनत और साल में दस से 15 हजार रुपए की लकड़ियां बचेंगी। जिनके पास दो पशु (गाय या भैंस) हैं तो साल में 2-3 ट्राली गोबर की खाद निकलती थी, जो मुश्किल से साल में एक बार 4000-5000 रुपए में बिकती थी, लेकिन अब हर महीने 2000-3000 रुपए स्लरी से मिल रहे हैं।”
केन्द्रीय पशुधन मंत्रालय पहले चरण में जकरियापुरा मॉडल को गुजरात के 33 जिलों की दुग्ध समिति से जुड़े एक-एक गांव में लागू करेगा, जिसके बाद इसे पूरे देश में पहुंचाया जाएगा।
गोबर के वैल्यू एडिशन में किसानों का भविष्य दिखाते हुए गिरिराज सिंह कहते हैं, “जकरियापुरा का मॉडल अगर मैं पूरे देश के परिपेक्ष्य में देखता हूं तो किसानों का चेहरा बदल जाएगा। जकरियापुर की स्लरी से एक साल में जो खाद तैयार होगी उसकी अनुमानित कीमत 107 करोड़ होगी। जिससे सरकार को 10 करोड़ की जीएसटी भी मिलेगी। शुरूआत में अगर सिर्फ सहकारी दुग्ध समितियों के माध्यम से ही काम करें, तो पूरे देश में ढाई लाख दुग्ध समितियां और उनसे जुड़े दो करोड़ सदस्य हैं। अगर पूरे देश से कलस्टर बनाकर स्लरी पर काम शुरु कराएं तो देश में 44.5 मिलिटन टन स्लरी उत्पादन होगा, जिससे बनी खाद की कीमत 3,44,000 करोड़ रुपए होगी और इससे 30,000 करोड़ की जीएसटी मिलेगा।”
पशुधन मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक जकरियापुर माडल भारत में रोजगार का बड़ा जरिया बन सकता है। प्रोजेक्ट के हिसाब से प्रति 100 घर पर 21 लोगों को रोजगार मिलेगा। मंत्रालय और एनडीडीबी के मुताबिक जकरियापुरा में फिलहाल 16 लोगों को रोजगार मिला है, जिन्हें साल में करीब 41 लाख रुपए मिलेंगे। गिरिराज सिंह ने बताया, “जब ये माडल पूरे देश में लागू होगा तो करीब 22 लाख लोगों को रोजगार मिलेगा।”
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जकरियापुर मॉडल को लेकर उत्साहित केंद्रीय पशुधन मंत्री गिरिराज सिंह कहते हैं, “पशुधन एक ऐसा सेक्टर है, जिसमें एक रुपए लगाओ तो कमोबेश चार रुपए मिलते हैं। जब अलग से बनाए गए पशुधन मंत्रालय की मुझे कमान मिली तो मैंने कई स्तर पर अधिकारियों से बात की, आंकड़े समझे। धान और गेहूं देश की प्रमुख फसलें। साल 2017-18 में इन को जोड़ा तो किसानों को लगभग चार लाख करोड़ था, जबकि 6 लाख 14 हजार करोड़ रुपए केवल दूध से थे। फिर भी किसान परेशान हैं। दूध के अलावा पशुओं से जुड़े बाय पोडक्ट पर काम शुरु कराया। जिसका नतीजा आपके सामने है।”
डेयरी का कारोबार करने वाले लोगों के घर में बायोगैस लगाने से किसानों के कई तरह के फायदे होते हैं। दो साल पहले गुजरात में ही एनडीडीबी इसका सफल प्रयोग कर चुका है। आणंद जिले के अंकलाव तालुका के मुजकुआ गांव में एनडीडीवी ने महिलाओं की सहकारी समिति बनाकर सभी को सब्सिडी पर गोबर प्लांट दिए थे। मुजकुवा गांव की हेमा बेन का घर गांव के किनारे बना, घर में घुसने पर सबसे पहले गोबरगैस, उसने जुड़े पशु रखने की शेड और आखिर में घर। उनके किचन में गैस सिंलेडर गैस दूर रखा है। हेमा बेन नरेश भाई पडियार (37 वर्ष) कहती हैं, “मेरे पास 10 गाय-भैंस हैं। जिनका गोबर प्लांट में डालने से महीने में 3 गैस सिलेंडर (एलपीजी) जितनी गैस मिलती है। घर में 10 लोग है उनका तीन टाइम का जेवण (खाना) इसी पर बनता है। महीने का 1500-2100 गैस के बचते हैं, जो स्लरी निकलती है उसे खेत में डालते हैं।”
किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए पशुधन मंत्रालय के नए मॉडल का केंद्र दूध नहीं, बल्कि गोबर है। गिरिराज सिंह गोबर इकनामिक्स में संभावनाओं की बात करते हुए कहते हैं, “ये तय है कि किसानों की आमदनी खेती की अपेक्षा पशुपालन से तेजी से बढ़ सकती है, लेकिन सिर्फ दूध से नहीं होगा। गोबर गैस से गैस मिलेगी, जिससे एलपीजी बचेगी। पशु से दूध और गोबर मिलेगा, पशु की गोबर या स्लरी से केंचुआ खाद बनेगी, केंचुए मुर्गियों का अच्छा फीड भी है। गोबर मछली पालन में भी मददगार है। ये कोई राकेट साइंस नहीं है। मैंने केवल इतना किया है कि गोबर को केंद्र में रखा है और उसे एग्री बेस्ड से जोड़ दिया है।”
गिरिराज सिंह के मुताबिक पशुधन मंत्रालय की कोशिश है कि दूध किसान का बाय प्रोडक्ट (सह उत्पाद) हो, गोबर और गो-मूत्र मुख्य, जिन्हें वैल्यूएड (मूल्य वर्धित) किया जाए। वो बताते हैं, “जब मैं ये बोलूंगा तो अधिकतर लोग मुझसे असहमत होंगे, लेकिन मैं ये साबित कर सकता हूं।”
पशुपालन में संभावनाओं के बारे में बात करने पर सहकारिता क्षेत्र की सबसे बड़ी संस्था ‘अमूल’ के प्रबंध निदेशक आरएस सोढ़ी कहते हैं, “भारत के गांवों को अगर अपनी आमदनी बढ़ानी है तो पशुपालन पर ध्यान केंद्रित करना होगा। क्योंकि खेती की जीडीपी का 12-14 फीसदी हिस्सा पशुपालन से तो आता ही है साथ ही, अगर खेती और पशुपालन की बढ़ोतरी देखें, तो आंकड़े भी साथ देते हैं। खेती की सालाना ग्रोथ तीन फीसदी है, जबकि पशुपालन में 20 फीसदी है। और बढ़ती आबादी के लिए फैट (वसा) और प्रोटीन की मांग बढ़ रही है।”
भारत पिछले कई वर्षों से विश्व में सबसे ज्यादा पशु और सबसे ज्यादा दूध देने वाला देश है। लेकिन इसका दूसरा पहलू ये है कि भारत में प्रति पशु दुग्ध उत्पादकता बहुत कम है। 20वीं पशुगणना के अनुसार भारत में गाय-भैंसों की संख्या करीब 30 करोड़ है, जिसमें से 14.51 करोड़ सिर्फ गाय हैं। अगर दुधारू पशुओं (गाय-भैंस) को देखें तो पूरे देश में ये आंकड़ा सिर्फ 12 करोड़ 50 लाख के आसपास है। देश में एक बड़ी आबादी ऐसे पशुओं की है, जो न दूध देते हैं, न किसानों के काम आते हैं। जिन्हें, छुट्टा, बेसहारा और अवारा पशु कहा जाता है। यूपी, मध्य प्रदेश और राजस्थान समेत कई राज्यों में ये छुट्टा, बेहसारा पशु किसानों के लिए बड़ी समस्या बने हुए हैं।
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गिरिराज सिंह कहते हैं, “भारत में 80 फीसदी पशु ऐसे हैं जो 20 लीटर से कम दूध देते हैं। अगर दूध का शुद्ध लाभ (नेट प्रॉफिट) निकाला जाए तो किसान को 5-6 रुपए प्रति लीटर ही बचता है। ऐसे में अगर पूरे लैक्टेशन पीरियड ( एक बार बच्चा देने के बाद कुल दूध उत्पादन का समय) में अगर पशु 4000 लीटर दूध देता है तो किसान को साल में मुश्किल से 20,000 से 24,000 रुपए की आमदनी होगी लेकिन पशु गोबर रोज देता है, जिससे दूध से दोगुनी कमाई हो सकती है।”
बेसहारा (छुट्टा) पशुओं की समस्या का समाधान भी गिरिराज सिंह गोबर प्रबंधन को ही बताते हैं। “मैं ऐसा करूंगा कि कोई सड़क पर जानवर छोड़ेगा ही नहीं, जिसे लोग बेसहारा आवारा कहते हैं वो बेसहारा दूसरों को सहारा देगा, दो जानवर से एक किसान या युवा महीने में 10 हजार से 15 हजार रुपए कमा सकेगा।”
सिर्फ दो पशुओं से इतनी कमाई कैसे होगी? इस सवाल के जवाब में पशुधन मंत्री समझाते हैं, “मैंने जकरियापुरा में कई और प्रयोग किए हैं। गोबर से आमदनी तो बढ़ी ही है, पशुओं का मूत्र एकत्र करने की शुरुआत कराई। इसके साथ ही यहां 10 घरों में मुर्गियां दी हैं। मुर्गियां पूरी तरह शून्य लागत के साथ पाली जा रही हैं। साथ ही, मेरा लक्ष्य है कि गाय-भैंस के साथ मुर्गी और बकरी को भी जोड़ा जाए, क्योंकि इन्हें पालने में खर्च नहीं प्रयोग है।”
लो इनपुट बर्ड (कम लागत में मुर्गी पालन आदि) को दुनिया और आने वाले वक्त की जरूरत बताते हुए गिरिराज सिंह कहते हैं, “संयुक्त राष्ट्र कृषि एवं खाद्य संगठन ने भारत को चेताया है कि वर्ष 2050 तक भारत की आबादी इतनी ज्यादा हो जाएगी कि ये समझना मुश्किल हो जाएगा कि जो अनाज है वो हम खुद खाएं या पशुओं को फीड और फॉडर के रूप में दें, ऐसे में शून्य लागत पर लगने वाली मुर्गियां, मछलियां और छोटे पशु बड़ा सहारा बनेंगे।”
एनडीडीबी के कार्यकारी निदेशक मीनेश शाह कहते हैं, “दुग्ध उत्पादन और पशुओं की नस्ल सुधार के साथ हमने गोबर पर भी काम शुरू किया है। इसमें फायदा ये है कि गैस मुफ्त की मिलती है। स्लरी भी 75 पैसे से 2 रुपए किलो तक बिक जाती है। स्लरी नहीं बेचते हैं तो उच्च कोटि की जैविक खाद मिलती है और आजकल जैविक खाद की बहुत मांग है।”
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दुनिया में जैविक खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांग को देखते जैविक खाद का भी बड़ा बाजार तैयार हो रहा है। पशुधन मंत्रालय गोबर प्रोजेक्ट के जरिए रायायनिक उर्वरक पर सब्सिडी और विदेशी निर्भरता कम करना चाहता है साथ ही जैविक खाद के जरिए नए अवसर भी तलासने पर जोर है।
गिरिराज सिंह कहते हैं, “साल 2018-19 में एनपीके (रासायनिक उर्वरक) की जो खपत हुई वो करीब 3 करोड़ 51 लाख 82 हजार रुपये की थी। हमारी कोशिश है कि 40-45 फीसदी एनपीके की जरूरत स्लरी से बनाई खाद से पूरी हो। साथ ही हमने एनडीडीबी को कहा है कि वो विश्व में वो देश तलाशे जहां हम ये स्लरी से बनाई खाद निर्यात कर पाएं। अगर ऐसा हुआ तो पशुपालक, किसान और डेयरी का नक्शा बदल जाएगा।”
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