हम में से बहुतों ने सुना या पढ़ा होगा कि दक्षिण अफ्रीका के शहर केपटाउन में पानी ख़त्म हो चुका है। यह सुनकर ही भयावह स्थिति लग रही है, लेकिन जिन्हें झेलना पड़ रहा होगा उनकी हालत क्या होगी? हम कल्पना मात्र कर सकते हैं। वहाँ के रहने वालों ने ऐसा क्या किया होगा, ऐसी कौन सी योजनाएँ बनाई होगी, जिनके परिणाम स्वरूप पानी ही समाप्त हो गया? यह तो जानकारी यहाँ बैठकर नहीं मिल पाएगी, लेकिन इतना ज़रूर है कि कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ गड़बड़ हुआ ज़रूर होगा। मेरे अपने इलाके में मेरे बचपन में बरसात के बाद कुएँ में पानी इतना भर जाता था की हाथ में बाल्टी लेकर पानी निकाल सकते थे।
अब अधिकतर कुएँ सूख गए हैं या फिर काफी लंबी रस्सी लगाकर कुएँ से पानी निकालना पड़ता है, भले ही अब कुएँ का पानी पीने के लिए अधिक उपयोग में नहीं लाया जाता। अब तो गाँव-गाँव में हैंड पाइप लगे हैं जो करीब 70-80 फिट से पानी उठाते हैं या फिर सरकारों द्वारा रनिंग वाटर की व्यवस्था की जा रही है, तो वह अनुभव देखने को नहीं मिल पाता कि किस तरह जलस्तर नीचे को गिरता जा रहा है।
जल स्तर बराबर नीचे गिरते जाने का मुख्य कारण है, भूमिगत पानी का अधिकाधिक प्रयोग और वर्षा जल का भंडारण ना हो पाना। हालात यहाँ तक है कि कुछ स्थानों पर तो एक मीटर प्रति वर्ष के हिसाब से जल स्तर नीचे गिरता जा रहा है। अगर कोई उपाय नहीं किए गए तो आगे की स्थिति भयावह हो सकती है।
मुझे ठीक प्रकार याद है कि मेरे बचपन में हर गाँव में एक या दो तालाब हुआ करते थे, जिनमें वर्षा जल पूरी तरह भर जाता था। पानी का उपयोग साल भर सिंचाई और पशुओं के प्रयोग के लिए खूब होता था। सिंचाई के साधन कुछ ऐसे थे कि जितना पानी तालाब से निकाला जाता था चाहे वह बेड़ी के द्वारा या कुआँ से रहट लगाकर सभी उपायों में पानी का पूरा सदुपयोग होता था। लेकिन अब नहरों का पानी उपलब्ध भी होता है तो किसान खेत में काट देता है और सो जाता है, इस प्रकार सस्ते पानी का बराबर दुरुपयोग हो रहा है।
पहले सिंचाई का पानी तालाबों, झीलों ,नदियों के रूप में बहुत अधिकता से उपलब्ध रहता था और यह सस्ता पानी खेती, बागवानी, पशुपालन आदि के काम में प्रयोग होता था। भूमिगत पानी कुँवें के माध्यम से मनुष्य के पीने के काम आता था। इस प्रकार भूमिगत पानी पर बहुत कम दबाव रहता था और बरसात के दिनों में अच्छी मात्रा में वर्षा जल का भंडारण हो जाता था ज़मीन के नीचे वह सब अब बदल चुका है।
भूमिगत जल की समस्या केवल मैदानी इलाकों तक सीमित नहीं है। वैसे सिंधु, गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र नदियाँ मैदानी इलाके में जल संग्रह के लिए आदर्श हैं, लेकिन अगर भूमिगत जल का दोहन अधिक गति से किया जाएगा तो जल भंडार उसी अनुपात में घटता चला जाएगा, पहाड़ों पर भूमिगत जल अंदर ही अंदर प्रवाहित होता हुआ जहाँ कहीं भी निकास की जगह पता है वहाँ पर स्प्रिंग या पहाड़ी भाषा में नौला के रूप में जल प्रवाह मय हो जाता है।
भूमिगत जल चूँकि पहाड़ों पर भी घटता जा रहा है इसलिए वह पुराने स्प्रिंग सब सूख गए हैं और छोटे-छोटे नालों के रूप में जो पानी नीचे को बहता था वह अब बहता हुआ कम दिखाई पड़ता है। अगर नदियों के स्रोत सूखना आरंभ हो जाएगा तो स्वाभाविक है कि मैदानी इलाकों में नदियों के माध्यम से जल की मात्रा घटती जाएगी। शायद सरस्वती नदी उदाहरण है।
जिन इलाकों में भूमिगत पानी अधिक मात्रा में नहीं है लेकिन पृथ्वी के ऊपर मौजूद तालाबों, झीलों, नदियों आदि के रूप में उपस्थित है वहाँ का जीवन सरफेस वाटर पर ही निर्भर रहता है। दक्षिण भारत में जहाँ पर पृथ्वी की रन्ध्रता, बालू के कणों के बीच समान शुद्ध अवस्था नहीं है और वह आपस में जुड़े हुए क्षेत्र, जिसे पारगम्यता कहते हैं उस रूप में मौजूद नहीं है, तो वहाँ पर भूमिगत जल का संचय केवल पृथ्वी के अंदर पाई जाने वाली दरारें (क्रैक्स) आदि के रूप में रहता है। लेकिन वहाँ भूमि के ऊपरी सतह पर सरफेस वाटर अच्छी मात्रा में मौजूद रहता है जिससे जीवनचर्या चलती रहती है।
वास्तव में पानी समुद्र की सतह पर भाप में बदल जाता है और वह आसमान में जाकर बादलों का रूप ले लेता है। यह बादल जब ठंडे होते हैं तो घनीभूत होकर यही भाप वर्षा जल के रूप में पृथ्वी पर आती है। पृथ्वी पर वर्षा होने के बाद वर्षा जल का एक भाग पृथ्वी के अंदर चला जाता है जो इस प्रकार सुरक्षित रहता है जैसे फसल पर किसान अपना अनाज सुरक्षित कर देता है। लेकिन इस वर्षा जल का बड़ा भाग नदियों के माध्यम से फिर से समुद्र में पहुँच जाता है और वहाँ से फिर वाष्प बनकर बादल बनता है और फिर वर्षा होती है।
इसको जल-चक्र कहते हैं। यह जल-चक्र निरंतर चलता रहता है, लेकिन यदि इसमें मनुष्य द्वारा कुछ व्यवधान पैदा किया जाए तो फिर यह प्रभावित होता है और वर्षा जल का कितना भाग पृथ्वी के अंदर भंडारित हो पाएगा यह अनेक बातों पर निर्भर करता है। पृथ्वी के अंदर जल प्रवेश के लिए मिट्टी की पारगम्यता और रन्ध्रता यानी कणों के बीच की जगह और उस जगह का परस्पर मिला होना अनिवार्य है, इसे ओरासिटी और परमिएबिलिटी कहते हैं। यह परमिएबिलिटी सड़के बनाने, पेड़ काटने आदि से घटती रहती है और वृक्षारोपण से पेड़ों की जड़े ज़मीन के अंदर पानी के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त करती हैं।
वृक्षों के काटे जाने से केवल पृथ्वी के अंदर जल प्रवेश का मार्ग ही नहीं रुकता है बल्कि स्वयं वर्षा प्रभावित होती है और मनुष्य के लिए सांस लेने के वास्ते ऑक्सीजन की मात्रा भी घटती है। पहाड़ों पर लगातार पेड़ों की कटाई के कारण पहाड़ नंगे होते जा रहे हैं और धीरे-धीरे ठंडे रेगिस्तान का रूप ले लेंगे। इसलिए केवल वृक्षारोपण ही आवश्यक नहीं है, बल्कि वृक्षों की रक्षा और उनके वृद्धि भी उतनी ही आवश्यक है यदि हम जल-संग्रह जल-संचय करना चाहते हैं और मनुष्य के लिए जल की उपलब्धता बनाए रखना चाहते हैं, तो जल की निरंतर उपलब्धता के लिए आवश्यक है। वर्षा के समय वाटर हार्वेस्टिंग यानी जल संग्रह और उसके बाद किफायत के साथ जल का खर्च किया जाना। हमें ध्यान रखना चाहिए कि धरती के अंदर पाया जाने वाला पानी प्रदूषण रहित होता है लेकिन यदि वह प्रदूषित हो जाए तो उस प्रदूषण को दूर करना लगभग असंभव है।
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जो पानी मनुष्य के पीने के लिए उपयोगी है यानी धरती के अंदर का पानी उसका उपयोग सिंचाई और बागबानी में अधिक न किया जाए। पुराने समय में खेतों की सिंचाई के लिए तालाबों, नहरों, नदियों, झीलों का पानी प्रयोग में लाया जाता था लेकिन अब ट्यूबवेल बनाकर धरती के अंदर का पानी अधिक से अधिक मात्रा में सिंचाई में खर्च हो जाता है। यह पानी इतनी मात्रा में पौधों को आवश्यक नहीं होता। इस दुरुपयोग से बचने के लिए फव्वारा सिंचाई और ड्रिप इरीगेशन जैसी विधाओं का प्रयोग किया जा रहा है लेकिन यह विधा अभी हमारे देश में इतनी प्रचलित नहीं है जितना होना चाहिए।
मैंने कनाडा में अब से 50 साल पहले बड़े-बड़े खेतों में स्प्रिंक्लर इरिगेशन का प्रयोग होते हुए देखा था। इससे स्पष्ट है कि हमारे देश में पानी की अधिकाधिक उपलब्धता के कारण हमने किफायत के साथ जल उपयोग सीखा ही नहीं। आप कल्पना कर सकते हैं कि जब एक आदमी की कमाई अठन्नी है और खर्चा रुपया होगा तो उसकी हालत अंत में क्या होने वाली है।
आजकल कुछ शहरी लोग अपने आनंद और मनोरंजन के लिए गाँव में ज़मीन खरीदने में पैसा लगाते हैं, वे इस ज़मीन पर स्विमिंग पूल बनाने में धरती के अंदर का कीमती पानी उसमें भरते हैं या फिर मछली पालन के लिए तालाब खुदवा कर उसमें भूमिगत पानी भरते हैं, यह सब पानी का दुरुपयोग कहा जाएगा। इसी तरह शहरों में बड़े लोग घर में सैकड़ो गमले रखकर और उसमें फूल-पत्ती लगाकर उसे रोज सींचते और पीने का पानी बर्बाद करते हैं। वैसे आदमियों के पीने का पानी तो संकट-प्राय हो ही गया है लेकिन जानवरों के पीने का पानी भी घटता जा रहा है।
तालाब सूख रहे हैं उन्हें पाट कर खेत बनाए जा रहे हैं और जल संचय जो वर्षा ऋतु में हुआ करता था अब इसका एक अंश मात्र होता है। इसलिए जल संकट से बचने के लिए हमें भूमिगत जल का वाटर हार्वेस्टिंग करना और जहाँ तक हो सके ज़मीन की रंध्रता और पारगम्यता को नहीं घटने देना चाहिए। पानी के उपयोग में विवेक का प्रयोग करते हुए जैसे पुराने समय में पीने का पानी, पशुओं के पीने, नहाने का पानी या फिर खेतों की सिंचाई का पानी अलग-अलग स्रोतों से लिया जाता था। हमें अपने अतीत से सीखते हुए वर्तमान या भविष्य में आने वाली समस्याओं से जूझना होगा।
जल की उपलब्धता के साथ ही उसकी गुणवत्ता भी उतनी ही महत्वपूर्ण हो, नहीं तो जल जनित रोग बराबर बढ़ते जाएंगे और मानव जाति के लिए समस्या बनते रहेंगे। नदियों के किनारे हमारे देश में बहुत से शहर बसते गए और विकसित होते गए, लेकिन विज्ञान और उद्योग की प्रगति ने नदियों के जल को प्रदूषित करना आरंभ किया और अब तो लगता है वह अपना अतीत का स्वरूप कभी नहीं प्राप्त कर पाएगा। प्रदूषित जल को शुद्ध करने के लिए बहुत से प्लांट लगाए गए हैं कानपुर के पास भी ऐसा ही प्लांट है लेकिन देखा गया है कि उससे शुद्ध किया हुआ पानी सिंचाई के काम का भी नहीं रहता है। एक सीमा के आगे प्रदूषित होने पर वह पुनर्जीवित नहीं हो पाता। हमारे पूर्वजों ने ठीक ही कहा है की जल ही जीवन है और ध्यान रखना होगा कि अगर जल नहीं होगा और शुद्ध जल नहीं होगा तो जीवन कितने दिन तक चल पाएगा यह यक्ष प्रश्न है।