आदिवासी लोककथाओं को धातु की मूर्तियों के जरिए दर्शाती है ओडिशा की ढोकरा कला

ओडिशा के ढेंकनाल जिले की ढोकरा धातु कला का इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता से मिलता है। नबाजीबनपुर गाँव के आदिवासी ढोकरा कलाकारों का मानना है कि इस कला का जुड़ाव आध्यात्मिकता से है। लेकिन वे लोग अपनी कला को जीवित रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
dhokra art

नबाजीबनपुर (ढेंकानाल) ओडिशा। ओडिशा के लगभग 160 आदिवासी परिवारों का गाँव नबाजीबनपुर दिखने में साधारण सा है। गरीबी से जूझ रहे और पानी की कमी का सामना कर रहे इस गाँव में पानी की तमाम जरूरतों को पूरा करने के लिए सिर्फ एक हैंडपम्प है, ढेंकानाल जिले का यह गांव एक प्राचीन कला का घर है, ढोकरा, जिसका जुड़ाव सिंधु घाटी सभ्यता से है।

ढोकरा कला का नाम ढोकरा डमर जनजाति के नाम पर रखा गया है और इसके कलाकार धातुकार हैं जो अपनी सुंदर मूर्तियों को तैयार करने के लिए मिट्टी और मोम के सांचों के संयोजन का उपयोग करते हैं। धातु की ढलाई के तरीके और विषय के लिहाज से ओडिशा की धातु कला छत्तीसगढ़ की धातु कला से थोड़ी अलग है।

जैसे ओडिशा के नबा जीवन पूर के कलाकार, देवी-देवताओं और पौराणिक जानवरों की पीतल की मूर्तियां बनाते हैं जबकि पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ के लोग इंसानी मूर्ति बनाते हैं।

नबाजीबनपुर की ढोकरा कलाकार सुमन प्रधान ने गांव कनेक्शन को बताया, “ये कला हम लोगों को पारंपरिक लोक कथाओं और आध्यात्मिकता से जोड़ती है।”

“ढोकरा मूर्तियां सभी तरह की शक्ल और साइज में आती हैं, लेकिन धातु की बढ़ती कीमत [पीतल की वर्तमान कीमत 315 रुपये प्रति किलोग्राम है] और घटते मुनाफे का मतलब छोटे और हल्के उत्पाद हैं,” उन्होंने कछुआ, सूरज, देवी, और पौराणिक जानवर की मूर्तियों की तरफ इशारा करते हे समझाया। प्रधान ने बताया, “वे हमारी लोककथाओं और पौराणिक कथाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और पर्यटकों के बीच बहुत लोकप्रिय हैं।”

चरण दर चरण: ओडिशा की ढोकरा कला

अन्य ढोकरा कलाकारों की तरह प्रधान ने भी अपने माता-पिता से शिल्प सीखा है। यह दस्तकारी की रिवायत मौखिक रूप से आगे बढ़ी है।

मूर्तियों की ढलाई के बारे में बताते हुए प्रधान ने बताया कि पहले मिट्टी का इस्तेमाल करके कुछ छेद या नलिकाओं की मदद से एक कोर सांचा बना लेते हैं। फिर सांचे को मोम, पेड़ की राल और अखरोट के तेल से कवर किया जाता है। मोम के नरम होने पर बारीक नक्काशी की जाती है। दोबारा मिट्टी की परतों से कवर किया जाता है। तब मोम की अंदरूनी सतह पर पैटर्न बनते हैं।

मोम की परत मिट्टी के अंदरूनी और बाहरी परत के में सैंडविच की तरह होती है। फिर मोम को निकाल दिया जाता है, अंदर की मिट्टी नलिकाओं की मदद से बाहर निकल जाती हैं, और पिघला हुआ पीतल सांचे में डाला जाता है जो सांचे की शक्ल में ढलता है।

जब तरल धातु सख्त हो जाती है, मिट्टी के बाहरी परत को काट दिया जाता है तब ढोकरा मूर्तियां पॉलिश करने और बेचने के लिए तैयार होती हैं।

मूर्तियों की कीमत 200 रुपये से 2,500 रुपये के दरमियान हो सकती हैं, हालांकि, प्रधान ने कहा कि बड़ी मूर्तियां शायद ही कभी बेची जाती हैं। उसने बताया, “घंटों की मेहनत के बाद ढोकरा कलाकारों का परिवार महिने में सिर्फ 6 हजार रुपये ही कमा पाता है। वह भी महामारी के दौरान बंद हो गया।”

मार्केटिंग की चुनौतियां

देश भर के सैकड़ों कलाकारों की तरह ढोकरा कलाकारों को भी महामारी ने झटका दिया, जो पहले से ही अपनी कला को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

नबाजीबनपुर गाँव के निवासी ढोकरा कलाकार अभी मांझी ने गाँव कनेक्शन को बताया महामारी के दौरान जो राशन मिला वह काफी कम था जो भरण पोषण का एकमात्र स्रोत था क्योंकि दो साल कोई पर्यटक नहीं आए।

अभी मांझी ने गांव कनेक्शन से बताया, “कई सरकारी योजनाएं घोषित की गई हैं, लेकिन हम तक कुछ नहीं पहुंचता है। बीजू आवास योजना के तहत पक्के मकानों के निर्माण के लिए धन मुहैया कराने की स्कीम थी, लेकिन कुछ नहीं हुआ है।” उसने बताया, “अब कई कारीगर कस्बों में काम करने लगे हैं।” एक अन्य ढोकरा कलाकार गुरबारी मांझी ने शिकायती लहजे में बताया कि अधिकारियों के प्रतिनिधित्व और शिकायतों पर कान नहीं धरे गए।

ढोकरा कला को बढ़ावा देने के लिए 2018 में जब ओडिशा सरकार ने नबाजीबनपुर में एक नुमाइश हॉल का निर्माण कराया तो उम्मीद की एक किरण दिखाई दी। हालांकि, हॉल अभी तक बंद ही पड़ा है।

ढेंकनाल जिले की विरासत कला और ऐतिहासिक स्मारकों पर शोध करने वाले प्रद्युम्न रथ के अनुसार इन कलाकारों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए राज्य सरकार की पहल पर नुमाइश हॉल का निर्माण किया गया था।

रथ ने गांव कनेक्शन को बताया,”विचार यह था कि यह कलाकारों और आर्ट क्यूरेटरों के लिए एक मीटिंग स्थल बन सकता है। अगर यह खुल जाता है, तो कलाकारों को अपने काम को बेचने के लिए दूर-दराज के महानगरों की यात्रा नहीं करनी पड़ेगी। ढोकरा कला को जोखिम उठाने के लिए दूरियां और खर्च भी कारण हैं।”

गुरबारी मांझी ने कहा कि उन्हें यकीन है कि अगर प्रदर्शनी हॉल का संचालन शुरू हो जाता है तो कलाकार आगे बढ़ सकेंगे और वह सरकारी अधिकारियों और बिचौलियों के रहम-ओ-करम पर नहीं रहेंगे।

गुरबारी ने बताया, “हॉल एक मीटिंग स्थल की शक्ल में होगा जहां कलाकार पर्यटकों, उद्यमियों और क्यूरेटर से सीधे बातचीत कर सकते हैं।” उसने बताया, “इस हॉल में प्रदर्शनियां काफी देर तक चल सकती हैं ताकि लोग आ सकें और हमारी कला को देख सकें कि हम इसे कैसे बनाते हैं। हमारी मौजूदगी सिर्फ लाभार्थियों के तौर पर नहीं होगी। हम आजाद हो सकते हैं।

लेकिन, नुमाइश हॉल का विशाल परिसर हमेशा सुनसान रहता है।

ढेंकनाल के जिला कलेक्टर सरोज कुमार सेठी ने गांव कनेक्शन को बताया, “मैं इस बारे में कुछ नहीं बता सकता कि हॉल को खोलने में देरी क्यों हुई।” उन्होंने वादा किया, ” हम इस कला को बढ़ावा देने के लिए कुछ कार्यक्रम और मेलों का आयोजन करने जा रहे हैं।”

कला को जिंदा रखें

इस दरमियान, पुराने ढोकरा कलाकारों को अपनी युवा पीढ़ी को आर्ट सीखने के लिए प्रेरित करने में मुश्किल आ रही है।

आठवीं कक्षा के छात्र शुभंकर गदटिया ने बताया, “मैं सैनिक बनना चाहता हूं और अपने देश की सेवा करना चाहता हूं, उसने बताया कि उसे युद्ध के विषय पर बॉलीवुड फिल्में देखना पसंद है। उनके माता-पिता दोनों ढोकरा कलाकार हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन को कबूल किया,”इसके अलावा, मैं इसके बारे में ज्यादा नहीं समझता। इसे बनाने की प्रक्रिया मेरे लिए बहुत जटिल है।”

सुमन प्रधान ने बताया, “फिलहाल आर्ट एक व्यवहारिक कमाई के विकल्प की तरह नहीं लगता है। लेकिन, अगर बच्चे अपने परिवार को मुनाफा कमाते हुए देखते हैं, तो वे कला को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी ले सकते हैं।” उनके अनुसार नुमाइश हॉल का उद्घाटन गेम चेंजर होगा। वह इस नतीजे पर पहुँचे, “यह कला के रूप को महफूज करने में एक महान कदम होगा।” 

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