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आख़िर दवाइयों को आजीवन खाने की ज़रूरत पड़ती ही क्यों है?

समय के साथ गाँव वालों का खानपान बदला और जानवरों की संख्या घटती गई आदमियों की संख्या बढ़ती गई। दूध की जगह चाय के प्रयोग का परिणाम, कुपोषण और अधिकाधिक बच्चों की मृत्यु में बदलता गया। अब यही कारण था कि देश के लोगों की औसत आयु पश्चिमी देशों की अपेक्षा बहुत कम थी, लेकिन अब बच्चों के मृत्यु में कुछ हद तक रोक लगी है, इसलिए देशवासियों की औसत आयु भी बढ़ी है।

पश्चिमी देशों के लोग कहा करते थे कि एनिमल प्रोटीन के बिना जीवित रहना संभव नहीं है, लेकिन अब विचार बदल रहा है और प्लांट आधारित भोजन ही श्रेष्ठ भोजन माना जाने लगा है। हमारे देश में पोषक तत्वों के संतुलन पर हमेशा से ध्यान दिया जाता रहा है। जब दाल, चावल, सब्जी और रोटी खाते हैं तो दाल से प्रोटीन, चावल से कार्बोहाइड्रेट, सब्जी से विटामिन और खनिज लवण, इसी तरह दूध और दही भी पोषक तत्वों में वृद्धि करता है।

हमारे देश में हजारों साल से दूध और दूध आधारित भोजन ग्रहण किया जाता रहा है, जिसे अब पश्चिमी देश भी सम्पूर्ण भोजन मानने लगे हैं। देश में निर्धन लोग भी गाय और भैंस पालते थे, जिसके कारण घर के बच्चे दही-मट्ठा आदि का सेवन कर पाते थे, लेकिन अब चाय पीकर बच्चे स्कूल चले जाते हैं तो उनके बौद्धिक और शारीरिक विकास की अधिक अपेक्षा नहीं की जा सकती है।

समय के साथ गाँव वालों का खानपान बदला और जानवरों की संख्या घटती गई आदमियों की संख्या बढ़ती गई। दूध की जगह चाय के प्रयोग का परिणाम, कुपोषण और अधिकाधिक बच्चों की मृत्यु में बदलता गया। अब यही कारण था कि देश के लोगों की औसत आयु पश्चिमी देशों की अपेक्षा बहुत कम थी, लेकिन अब बच्चों के मृत्यु में कुछ हद तक रोक लगी है, इसलिए देशवासियों की औसत आयु भी बढ़ी है। भोजन में अब दूध दही की जगह मैगी, मैक्रोनी और दूसरे चाइनीज़ फूड जिसमें मैदा अधिक होता है, प्रचलित होते चले गए। वर्तमान में वह सभी भयानक बीमारियाँ जैसे मधुमेह, कैंसर, जो प्राय: शहरों में आया करती थी, अब गाँवों में आम बात हो गई हैं।

पहले गाँव वाले जब स्वस्थ जीवन बिताते थे तो अस्पतालों की कमी खटकती नहीं थी। लेकिन अब बीमारियाँ बढ़ रही हैं, मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है और जो प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र गाँव में उपलब्ध है वहाँ कोई सुविधा नहीं, उनके देखरेख की व्यवस्था और प्रशासन सब मंद गति से चलता रहता है। छोटी तकलीफों के लिए भी मरीज के तीमारदारों को दवाई खरीदने के लिए भागना पड़ता है। यदि इन प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों को और साथ ही प्राइमरी पाठशालाओं तथा मदरसों को पंचायत के नियंत्रण में रखा जाए तो शायद हालात कुछ सुधर सकती है। इसका एक उदाहरण गोवा में देखने को मिला जहाँ यह प्रारम्भिक सुविधाएं और व्यवस्था, पंचायत के अधीन बहुत ही अच्छे ढंग से हैं।

उत्तर प्रदेश और दूसरे प्रदेशों के लोग भी पंचायती राज सिस्टम का अध्ययन गोवा में कर सकते हैं और गाँव वालों को बेहतर सुविधा उपलब्ध करा सकते हैं। जन स्वास्थ्य के मामले में आहार-विहार तथा परिवेश का बहुत महत्व है, लेकिन इनके द्वारा उपचार नहीं हो सकता कम हो सकता है लेकिन केवल इनके द्वारा सम्भव नहीं है। यदि शरीर में फोड़ा हो जाएगा तो उसका ऑपरेशन करना ही पड़ेगा और इस क्षेत्र में बहुत अधिक उन्नति हुई है। मुझे याद है जब मेरी बाई जाँघ में बड़ा फोड़ा हो गया था और गाँव के एक ज़र्राह दरगाही बाबा ने उसे चीरा था, बहुत ही दर्दनाक तरीका था, लेकिन अब सर्जरी का उपयोग वैज्ञानिक ढंग से करके समस्याओं का समाधान किया जा रहा है।

वैसे तो भारत के सुश्रुत नाम के ऋषि को सर्जरी का पितामह माना जाता है, लेकिन देश में इस कला का विकास नहीं हुआ, इसी प्रकार चरक द्वारा आरम्भ की गई औषधि विज्ञान का भी उचित विकास नहीं हो पाया है। अब आवश्यकता है कि विज्ञान के जो आधुनिक उपकरण हैं, चाहे शरीर के छोटे से छोटे अंग के बारे में देखने, जानने और समझने की बात हो, उन सभी का भरपूर उपयोग होना चाहिए, लेकिन चिकित्सा के मामले में हम जानते हैं कि बहुत सी दवाइयों के विषय में लिखा रहता है कि वह कारसी जनक है अर्थात कैंसर को जन्म दे सकती हैं।

ऐसी दवाई किस काम की जो कैंसर, मधुमेह और लिवर तथा किडनी पर आक्रमण करके उसे कमजोर कर दें। नतीजा यह होता है कि कई दवाइयाँ चाहे थायराइड की हो ब्लड प्रेशर की या फिर किडनी का डायलिसिस हो इसे आजीवन झेलना पड़ता है, यह कैसा इलाज है? कि बैसाखी दे दो और जीवन भर लगाते हुए चलते रहो आयुर्वेद ऐसा नहीं कहता। लेकिन आयुर्वेद को आजाद भारत में जो सम्मान मिलना चाहिए था वह मिला ही नहीं और आयु का वेद आगे बढ़ नहीं सका, सारे बजट एलोपैथी पर लगाते रहे। इस बात पर सघन रिसर्च होनी चाहिए की दवाइयों को आजीवन खाने की आवश्यकता क्यों पड़ती है? इससे निजात कैसे मिल सकती है।

जब तक हम लक्षणों का इलाज करते रहेंगे और रोग को निर्मूल करने का भारतीय पुरातन तरीका नहीं अपनाएंगे तब तक जन स्वास्थ्य और जनकल्याण की कल्पना नहीं की जा सकती। कई बार यह प्रयास होता हुआ देखने में मिला है कि एलोपैथी, आयुर्वेद और यहाँ तक कि होम्योपैथी का सहारा लेकर एक समग्र चिकित्सा का मार्ग अपनाया जाए। मुझे पता नहीं कि वह प्रयास आगे क्यों नहीं बढ़ सका? चिकित्सा की समस्या केवल रोग और निदान तक सीमित नहीं है, बल्कि गाँव के गरीब लोगों के पास ऐसे गम्भीर रोगों से निपटने के लिए पैसा नहीं है। यहाँ तक कि वह किसान खेत-खलिहान बेचकर शहरों में इलाज के लिए आते हैं, तो गली-गली में जो नर्सिंग होम खुले हुए हैं, उनकी जेब काटने के लिए तैयार बैठे हैं।

देखा यहाँ तक गया है कि नर्सिंग होम के सामने गरीब पड़ा रहता है और पैसे की कमी के कारण भर्ती नहीं करा पाता या फिर गर्भवती महिलाएँ नर्सिंग होम के सामने चीखती और तड़पती रहती हैं और अनेक बार वहीं पर जमीन पर बच्चा पैदा कर देती हैं। वैसे तो सरकार ने आयुष्मान योजना बनाई है, जो लोग समझदार और कुछ पैसे वाले हैं वह बीमा भी करा लेते हैं, जिससे उनका इलाज हो जाता है। नर्सिंग होम वाले कितना पैसा मांगेंगे इस पर सरकार का तनिक भी नियंत्रण नहीं है, कम से कम स्कूलों के फीस के मामले में तो कुछ गाइड लाइन बनी है, लेकिन डॉक्टरों द्वारा ली जाने वाली फीस और नर्सिंग होम द्वारा लिया जाने वाला किराया-भाड़ा इस पर कोई नियंत्रण नहीं है।

कठिनाई तब और भी अधिक हो जाती है जब सरकारी अस्पताल विकल्प के रूप में उपलब्ध नहीं होते जहाँ लिए जाने वाले पैसे पर कुछ अंकुश तो है। वहाँ तो पर्चा बनवाकर, जाँच कराने तथा दवाई कराने का प्रबंध है परन्तु अस्पताल कहाँ हैं? अगर बड़े कस्बों में कम से कम एक सरकारी अस्पताल खोलना सुनिश्चित कर दिया जाए तो भी पास पड़ोस के गाँवों का कुछ भला हो सकता है। चिकित्सा के क्षेत्र में नियन्त्रण तभी होगा जब डॉक्टरों द्वारा ली जाने वाली फीस की रसीद अनिवार्य कर दी जाय और उनके बेड का किराया भी नियंत्रित किया जाय। जब मरीज को डिस्चार्ज किया जाता है तो उसके साथ पूरा विवरण दिया जाए, किस काम का कितना रुपया लिया गया अन्यथा यह मनमाना तरीका गाँव के लोगों को हमेशा ही दवा और इलाज से वंचित रखेगा।

एक और बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि हर छोटे बड़े मर्ज के लिए गाँव वालों को शहर ना दौड़ना पड़े, इसलिए जो प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र हैं उनकी मौजूदा हालात को सही किया जाए और कम खर्चीली चिकित्सा पद्धतियों को प्रोत्साहित करके गाँवों में व्यवस्था की जाए। प्राकृतिक चिकित्सा, योग और आहार विशेषज्ञ सप्ताह में या दो सप्ताह में एक बार प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र में उपलब्ध रहें ताकि उस इलाके में फैली हुई बीमारियों और उनके फैलने के कारणों तथा इससे बचने के उपायों की जानकारी हो सके और साथ में आहार का चयन भी ठीक प्रकार से हो सके। सर्जरी को छोड़कर बाकी मामलों में एलोपैथी का विकल्प सामने आना ही चाहिए, केवल खर्चे के लिए नहीं बल्कि दवाइयों से पैदा होने वाली रिएक्शन और अन्य विविध बीमारियों से बचने के लिए भी यह आवश्यक है।

मैं समझता हूँ कि भारत का 10000 साल पुराना अनुभव जो वनस्पति आधारित भोजन पर आग्रह करता है आज भी श्रेष्ठ है। अब पश्चिम के अनेक लोग इसे स्वीकारने लगे हैं। जहाँ तक व्यायाम का विषय है शरीर के लिए वह भी अत्यन्त आवश्यक है लेकिन जिम और अधिक श्रम आधारित व्यायाम के बजाय मध्यम गति से किया जाने वाला योगाभ्यास तथा अन्य योग क्रियाएं अधिक उपयोगी होंगे। हमारे देश में कम भोजन करने पर जोर दिया गया है विशेष कर विद्यार्थियों के लिए। कहा गया है ‘’स्वल्पाहारी, गृहत्यागी, श्वान निद्रा तथैव च’’,यह गुण सभी छात्र-छात्राओं में आदत के रूप में होने चाहिए। इसी प्रकार देश की जलवायु को ध्यान में रखते हुए जीवन चर्या का निर्धारण भी किया गया है।

पहले 100 साल तक जीवित रहना एक सामान्य बात हुआ करती थी। इसी प्रकार दिनचर्या में सूर्योदय के पहले उठना, शौच आदि क्रिया से निवृत होकर स्नान करना और स्वल्पाहार करके काम में लग जाना यह दैनिक कार्यक्रम होता था। अब तो हमारे देशवासी आधी रात के बाद तक जागते रहते हैं और सूर्योदय के घंटे दो घंटे बाद उठते हैं। ऐसी हालत में उन्हें अपने पूर्वजों के अनुभव का लाभ तो नहीं मिल सकता।

अब देखना यह होगा कि भविष्य में हमारे देश के कर्णधार कौन सी चिकित्सा व्यवस्था को बढ़ावा देते हैं और किस प्रकार का डाइटिशियन का मशविरा आता है। जो भी होगा कम से कम पूर्वजों के अनुभव का लाभ तो उठाना ही चाहिए, चाहे फिर वह भारतीय परम्पराओं में हो अथवा विदेशी अनुभवों पर आधारित हो। इतना अवश्य है कि चिकित्सा व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसके लिए किसानों को अपने खेत और गरीबों को अपने बेटे न बेचने पड़े जैसा आजकल हो रहा है। महिलाएँ अस्पतालों के सामने प्रसव पीड़ा से तड़पती ना रहे और कितने ही गरीब अस्पताल के दरवाजे पर दम न तोड़ दें, यह तो कम से कम होना ही चाहिए।

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