अपने लिविंग रूम में बनी एक बड़ी सी खिड़की पर खड़े होकर, मैं मौसम के बदलते रंगों को निहार रही थी। खिड़की पर लगे काँच के पैनल मानसूनी हवाओं का स्वागत करने के लिए खुले हुए थे, मैंने काले भूरे बादलों को मुंबई के ऊपर आकाश में इकट्ठा होते देखा। वो एक दूसरे को आगे की ओर धकेलते हुए उत्तर की ओर तैरते हुए आगे बढ़ रहे थे। ऐसा लगा मानो वे इस साल मानसून के देर से आगमन की भरपाई करने की जल्दी में थे।
नमी से भरे मानसूनी बादलों को अक्सर आकाश की नदी कहा जाता है; एक ‘अदृश्य नदी प्रणाली’ जो भारतीय उपमहाद्वीप में 180 करोड़ से ज्यादा लोगों को जीवित रखती है, जो हमारी धरती पर सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है।
कुछ साल पहले, नई दिल्ली में आयोजित इंडिया रिवर वीक के दौरान, मैं पहली बार मनोज मिश्रा जी से मिली थी (हालांकि उनसे पहले कई बार ईमेल और फोन पर बातचीत हुई थी)। उन्होंने ‘मानसून: ए रिवर इन द स्काई’ पर एक प्रेजेंटेशन देने को कहा था। और इस तरह हमारी वार्षिक चर्चा और दक्षिण-पश्चिम मानसून की शुरुआत और उसकी प्रगति को लेकर संदेशों का आदान-प्रदान शुरू हो गया था।
इस साल जब मैंने मानसून के बादलों को आसमान में नाचते हुए देखा, तो मुझे अपने दिल में एक तेज़ टीस महसूस हुई, नुकसान और दुःख का गहरा एहसास हुआ। ठीक एक हफ्ते पहले, 4 जून को, मनोज जी, एक पूर्व भारतीय वन सेवा अधिकारी, जिन्हें प्यार से ‘रिवर वरियर’ के रूप में जाना जाता था, दूसरी दुनिया में चले गए । नदी के उस पार आकाश में जिसे मैं अपने 10वीं मंजिल के अपार्टमेंट की एक खिड़की पर खड़े होकर ताक रही थी।
नदियों और पर्यावरण के बारे में तो, मैं काफी सहजता से लिख लेती हूँ। लेकिन नदियों के लाल के लिए एक शोक समाचार लिखना मेरे लिए आसान नहीं था, जिनके कॉलम मैंने ‘गाँव कनेक्शन’ पर नियमित रूप से संपादित और प्रकाशित किए हैं।
आप उस निस्वार्थ संरक्षणवादी को कैसे अलविदा कह सकते हैं, जिसने अपना पूरा जीवन देश की बेज़ुबान नदियों के लिए लिखने, बोलने और उन्हें बचाने की अदालती लड़ाई में बिता दिया? जब आप अपने लैपटॉप पर ‘मनोज मिश्रा जी शोक संदेश’ नामक एक नए शब्द के साथ लेख तैयार करने के लिए बैठे और आपकी आँखों में आँसू न आए, ऐसा होने देना मुश्किल है। ऐसे कुछ लेख जिनके लिए आप जीवन में कभी तैयार नहीं होते!
मुझे हमेशा से ‘गाँव कनेक्शन’ में मनोज जी के कॉलम का इंतज़ार रहा करता था। एक बेहद जानकार शख्स, जिन्होंने नदियों, जल निकायों और पर्यावरण के बारे में बड़े ही सरल तरीके से लोगों को जागरूक बनाया और उनसे जुड़ते हुए अपने लेखों को एक नया रंग दिया। अधिकांश लेखन इसी तरह का होना चाहिए।
नदियों पर उनके लेख ऐतिहासिक घटनाओं, रहस्यमय ट्रेक, वास्तुकला, खेती और आजीविका, गाँवों और कस्बों के बारे में थे, जिन्हें वह बेहद मनोरंजक बना देते थे। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या आप गोंड आदिवासी रानियों, किलों और पारंपरिक बावड़ी के बारे में पढ़ते? या फिर एक हजार साल पुराने रहस्य और दुनिया के सबसे पुराने अभी भी काम कर रहे बाँध की पड़ताल पर लिखे उनके कॉलम में इतनी दिलचस्पी दिखाते?
भारत में नदियों के किनारों पर लाखों कहानियाँ बसती हैं और मनोज जी ने अपने काम और अपनी रचनाओं से उन लोककथाओं को जीवित रखा। क्योंकि वे जानते थे कि वे कहानियाँ ही हैं जो लोगों को अपनी नदियों से बाँधती हैं। एक ऐसा संबंध जिसे मजबूत करने की जरूरत है। अगर नदियों को भारत में निरंतर बहते देना है, और सूखने नहीं देना है तो, ऐसा करना ही होगा।
हालाँकि ज्यादातर लेख बड़ी नदियों – गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा, आदि- पर लिखे गए हैं, लेकिन मनोज जी ने समय-समय पर छोटी नदियों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए इसे एक बिंदु बनाया (वे अपने ‘यमुना जिये’ अभियान के लिए भी जाने जाते हैं)। उन्होंने यमुना की एक कम जानी-पहचानी सहायक नदी के बारे में ‘कथा’ लिखी और यमुना की एक अन्य सहायक नदी हिंडन के बारे में भी बहुत कुछ लिखा। उन्होंने ठीक ही कहा था कि ‘एक नदी उतनी ही स्वस्थ है जितनी कि उसकी पतली सी धारा’।
धीरे-धीरे हमारी नदियों को खत्म करने वाली गलत नीतियों/कार्यक्रमों की जब आलोचना की बात आई तो मनोज जी ने कभी अपनी बात नहीं रखी। उन्होंने यमुना नदी के किनारे एक एलिवेटेड रोड सहित विभिन्न विकास परियोजनाओं पर कड़ी आपत्ति जताई।
उन्होंने गाँव कनेक्शन में बताया कि ‘नमामि गंगे जैसा कोई भी “वनीकरण” प्रयास, जहाँ नदियों के सक्रिय बाढ़ के मैदानों में पेड़ उगाए जाते हैं, पूरी तरह से गलत है और इससे बचा जाना चाहिए। उन्होंने यमुना के किनारे सेनेटरी लैंडफिल बनाने के खिलाफ चेतावनी दी थी।
मुझे याद है जब हमने मनोज जी से ‘गाँव कनेक्शन’ के लिए लिखे गए उनके कॉलम के लिए मानदेय लेने का अनुरोध किया था। लेकिन उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया और कहा, “निधि जी, मैं नदियों के बारे में लिखना अपना कर्तव्य मानता हूँ और इसके लिए कोई भुगतान कभी स्वीकार नहीं कर सकता।”
अपने शाँत और सौम्य व्यवहार के अलावा, उनमें विनम्रता भी थी। भले ही वह मुझसे दो दशक से अधिक बड़े और कहीं अधिक जानकार और निपुण थे, फिर भी उन्होंने हमेशा मुझे “निधि जी” कहकर ही बुलाया था।
पिछली जुलाई में मैं एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए कुछ दिनों के लिए भोपाल में थी। मैंने फैसला किया कि मैं उनके घर जाकर उन्हें सरप्राइज़ दूँगी। दरअसल मैं उनकी माँ से मिलना चाहती थी, जिनके बारे में वह अक्सर सोशल मीडिया पर पोस्ट करते रहते थे। मनोज जी उनके द्वारा बनाए गए पकवानों और त्योहारों के दौरान खास तौर पर तैयार किए गए व्यंजन को पोस्ट किया करते थे।
यह मनोज जी और उनकी माँ के साथ भोपाल, मध्य प्रदेश में उनके घर पर बिताई गई सबसे बेहतरीन शामों में से एक थी। वह काफी पढ़ी लिखी महिला थीं। अपनी बातचीत के दौरान, मैंने मनोज जी से पूछा कि उन्होंने अपने करियर के चरम पर आईएफएस की नौकरी क्यों छोड़ी और क्या उन्हें कभी अपने फैसले पर पछतावा हुआ।
तब उन्होंने एक आईएफएस अधिकारी के रूप में अपने जीवन और मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ के अलग होने के बारे में बात की, और कहा, “शायद अगर मैंने नौकरी नहीं छोड़ी होती, तो मैं नदियों और नदी प्रणालियों के लिए खुद को पूरी तरह से समर्पित नहीं कर पाता।”
उन्होंने न सिर्फ नदियों और जल प्रणालियों के बारे में लिखा, बल्कि दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया। कुछ महीने पहले, उन्होंने मुझे यह बताने के लिए फोन किया कि वह जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 के 50 वर्षों पर अपनी अगली किताब पर काम कर रहे हैं। और मुझसे पर्यावरण रिपोर्टिंग के अपने दो दशकों के आधार पर ‘महिला और जल’ पर एक चैप्टर लिखने का अनुरोध किया।
मुझे यकीन नहीं था कि मैं इसे थोड़े समय में लिख पाऊँगी या नहीं, लेकिन मनोज जी की निरंतर सहयोग के साथ, मैं चैप्टर लिखने में कामयाब रही। वह मेरे लेख से काफी खुश थे। उन्होंने कहा कि वह जल्द से जल्द किताब पूरी करना चाहते हैं। वह अभी भी किताब पर काम कर रहे थे। लेकिन इस साल अप्रैल में कोरोना ने उन्हें बीमार कर दिया और एक महीने तक जूझने के बाद, उन्होंने पर्यावरण दिवस से एक दिन पहले अपनी अंतिम सांस ली। मानों पर्यावरण संरक्षण और बातचीत की जिम्मेदारी हमें सौंप कर जा रहे हैं।
मनोज जी हम आपकी इस लड़ाई को आगे बढ़ाएँगे।
रेस्ट इन पॉवर