धरती धंसती रही, सरकार सोती रही

उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग और टिहरी जिले देश के सबसे अधिक भूस्खलन खतरे वाले 147 जिलों में से पहले और दूसरे स्थान पर हैं। 2015 के बाद से, हिमालयी राज्य में कम से कम 3,601 बड़े भूस्खलन की घटनाएँ सामने आई हैं।
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अगस्त महीने के शुरुआती दिनों में उत्तराखंड के टिहरी जिले के चंबा शहर में सुमन खंडूरी अपनी पत्नी पूनम खंडूरी, नवजात शिशु सुमन सिंह और अपनी बहन सरस्वती देवी को लेकर पुलिस स्टेशन के पास वाले स्टैंड पर आए और उन्हें एक टैक्सी में बिठाकर वापस जाने लगे। उन्होंने उनसे कहा कि वह कुछ काम निपटाकर जल्दी उनके पास आ जाएंगे।

लेकिन कुछ ही पलों में खंडूरी को वो देखना पड़ा, जिसकी कल्पना तक करना उनके लिए मुश्किल था। पलक झपकते ही पहाड़ का एक पूरा हिस्सा टैक्सी स्टैंड पर गिर गया और उनकी बीवी, बेटी और बहन की जान चली गई।

इस तरह की दिल दहला देने वाली कहानियाँ गिनी-चुनी नहीं हैं। उत्तराखंड के आपदा चक्र में अब यह अक्सर होने वाली घटनाएँ बन गई हैं। पिछले अगस्त में कम से कम तीन भूस्खलनों में 30 से ज़्यादा लोग मारे गए या लापता हो गए।

भूस्खलन की क्रूरता किसी को भी नहीं बख्शती। गौरीकुंड की एक और दिल दहलाने वाली घटना से आपको इसका एहसास हो जाएगा। यह शहर रुद्रप्रयाग जिले में मौजूद पवित्र मंदिर केदारनाथ की यात्रा करने वालों के लिए आधार शिविर के रूप में काम करता है।

बिना किसी चेतावनी के 3 अगस्त की रात लगभग 11.30 बजे, दो दुकानें और एक ढाबा उफनती मंदाकिनी नदी में बह गए। यह घटना भूस्खलन के कारण हुई थी। इस घटना में 23 लोगों के मारे जाने की आशंका है। लेकिन अभी भी कई शव बरामद नहीं हुए हैं।

लगभग एक सप्ताह बाद केदारनाथ जा रहे गुजरात के तीर्थयात्रियों के एक समूह ने दर्दनाक मौत पाई थी। रुद्रप्रयाग जिले में राजमार्ग का 80 मीटर का हिस्सा फिर से ढह जाने से उनकी कार मलबे में दब गई। कार में एक ड्राइवर और राजस्थान का एक साथी तीर्थयात्री भी था। इस मामले में सभी पाँच शव बरामद कर लिए गए हैं।

हिमालयी क्षेत्र के राज्यों के मामले में अक्सर ऐसा होता है। दरअसल उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों का एक बड़ा हिस्सा पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील और प्राकृतिक आपदाओं से ग्रस्त है। पिछले दशक में खासतौर पर कुछ विनाशकारी आपदाओं ने उत्तराखंड और पड़ोसी हिमाचल प्रदेश को देश भर की सुर्खियों में ला दिया है।

अब लोगों को विश्वास हो चला है कि नदियों का उग्र होना, अचानक आने वाली बाढ़ या भूकंप लोगों के लिए बड़ा खतरा हैं। हालाँकि, जो लोग उत्तराखंड में रहते हैं और यात्रा करते हैं, वे आपको यह बताने में देर नहीं करेंगे कि अब उन्हें सबसे ज़्यादा डर भूस्खलन से लगने लगा है।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र, इसरो और राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग सेंटर (एनआरएससी) ने इस साल फरवरी में भारत की भूस्खलन एटलस प्रकाशित की थी। यह एटलस बताती है कि भूस्खलन के मामले में भारत और विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्र कितने अस्थिर हैं।

अपने आपदा प्रबंधन सहायता कार्यक्रम में एनआरएससी, इसरो द्वारा मैप किए गए भू-स्थानिक भूस्खलन सूची डेटाबेस में भारत के 80,000 भूस्खलनों को एटलस में रिपोर्ट किया गया है। डेटाबेस में भारत के 17 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों के हिमालय और पश्चिमी घाट के 147 जिलों में भूस्खलन के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों को शामिल किया गया है। डेटाबेस में 1998-2022 के लिए तीन तरह की भूस्खलन सूची शामिल थी- मौसमी, घटना आधारित और मार्ग-आधारित।

भूस्खलन एटलस में इसरो ने भूस्खलन से जुड़े चार तरह के जोखिम का वर्गीकरण किया है। कुल आबादी, घरों की संख्या, पशुधन और सड़क जोखिम। इनमें से हर एक वर्ग को ध्यान में रखते हुए, उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग और टिहरी जिले भारी भूस्खलन जोखिम वाले 147 जिलों में से देश में पहले और दूसरे स्थान पर हैं।

दरअसल, इसरो के सूचकांक के अनुसार, शीर्ष के 30 सबसे अधिक भूस्खलन जोखिम वाले जिलों में से छह, जैसे-चमोली, उत्तरकाशी, पौड़ी और देहरादून 19वें, 21वें, 23वें और 29वें स्थान पर हैं। हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, सिक्किम, असम और मणिपुर के हिमालयी क्षेत्र के तेरह अन्य जिले शीर्ष 30 की सूची में शामिल हैं।

मगर विडंबना यह है कि उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में रहने वाले लोगों के लिए यह कोई ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं है कि वे ऐसी ज़मीन पर रहते हैं जो सचमुच उनके पैरों के नीचे से खिसक सकती है। सच तो यह है कि हिमालय क्षेत्र के संवेदनशील क्षेत्रों में होने वाले असंख्य बुनियादी ढांचे के निर्माण, सड़क को चौड़ी करने के काम और पनबिजली परियोजनाओं की तैयारी में अक्सर जल्दबाजी की जाती है।

वे यह सुनिश्चित करने के लिए कोई मेहनत नहीं करते कि निर्माण मजबूती के साथ और सुरक्षा को पहली प्राथमिकता को ध्यान में रख कर किए जाएँ। इस नासमझी भरे नज़रिए के पीछे कई कारण हैं। लेकिन देखा जाए तो इसके पीछे सभी लोगों की भावना पारिस्थितिक योजना के पक्ष में थोड़े समय के फायदे की इच्छा पर आधारित होती है जो सिर्फ पर्यावरण पर असर डालती है।

उदाहरण के लिए, चमोली जिले में तपोवन विष्णुगाड हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के निर्माण के लिए पहाड़ों के बीच एक विशाल सुरंग सुरंग खोदी गई थी। 2023 की शुरुआत के बाद से जोशीमठ के पड़ोसी क्षेत्र में और उसके आसपास भूस्खलन और भूस्खलन की चौंकाने वाली रिपोर्ट चिंताजनक दर से बढ़ गई हैं।

जोशीमठ के स्थानीय निवासी साफतौर पर मानते हैं कि भूस्खलन के लिए सीधे तौर पर यह एनटीपीसी परियोजना ही दोषी हैं। यह एक बहुत बड़ी सरकारी परियोजना है। फिर भी साफ तौर पर देखा जा सकता है कि इतनी बड़ी परियोजना के लिए भी बड़ी ही उदासीनता के साथ योजना बनाई गई और स्वीकृत की गई।

जब विकास, आपदाओं और जलवायु की तिकड़ी की बात आती है तो ‘दोषारोपण’ की रणनीति में शामिल होने की कोशिश किए बिना, उत्तराखंड सरकार एक कदम पीछे दिखती है। ऐसा नज़र आ सकता है जैसे राज्य सरकार पहले की तुलना में आपदा प्रबंधन बलों को तैनात करने में खासा तेज हो गई है। लेकिन यह अभी भी इस मुद्दे को सबसे आगे रखकर नहीं निपट रही है।

कहने का मतलब है कि जब चार धाम ऑल वेदर रोड या अन्य बड़ी परियोजनाओं की योजना बनाई जाती है या घोषणा की जाती है और मंज़ूरी दी जाती है, तो एक और जाँच होनी चाहिए जिसमें यह गारंटी दी जा सके कि ऐसे निर्माण संवेदनशील क्षेत्रों के लिए उपयुक्त हैं या नहीं।

शायद राजनेताओं के लिए अचानक आई बाढ़ से होने वाले विनाश को तर्कसंगत बनाना आसान हो जाता है क्योंकि बारिश और बादल फटने को जलवायु परिवर्तन की घटनाओं के रूप में देखा जाता है। हालाँकि, 2015 के बाद से उत्तराखंड राज्य में 3,601 बड़े भूस्खलन हुए हैं, इन घटनाओं से होने वाली हताहतों की संख्या और संपत्ति के नुकसान में भी वृद्धि हुई है। इसलिए हमें केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर अपना ध्यान टुकड़ों-टुकड़ों में काम करने की बजाय बेहतर योजना के साथ आगे बढ़ना चाहिए ताकि चीजें आगे चलकर बिगड़े नहीं।

अनूप नौटियाल उत्तराखंड के एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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