ओडिशा के इस गाँव में मुस्लिम समुदाय पूरा करता है रथ यात्रा की ख़ास रस्म

ओडिशा की जानी-मानी रथयात्रा झारसुगुड़ा के रेमांडा गाँव में काफी मायने रखती है। यह पुरी रथयात्रा के तीन दिन बाद शुरू होती है जिसे एक ख़ास रस्म के बाद निकाला जाता है। बड़ी बात ये है कि यात्रा की पारंपरिक रूप से पूरी ज़िम्मेदारी गाँव के मुस्लिम समुदाय की होती है। यह उत्सव इस साल 23 जून को मनाया गया था।
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माथे पर चंदन का टीका लगाए धोती और कुर्ता पहने मोहम्मद अख़्तर काफी व्यस्त हैं। यह आषाढ़ द्वीतिया के तीन दिन बाद आषाढ़ पंचमी का शुभ अवसर है यानी इस साल 20 जून को निकली पुरी की रथ यात्रा का तीसरा दिन।

अख़्तर बड़ी तेज़ी से अपने गले में पड़ी गेंदे के फूलों की माला और कंधे के गमछे को ठीक करने में लगे थे। माला अख़्तर के गले में फँस गई थी, जिसे ठीक करने में उन्होंने जरा सा समय भी नहीं गवांया और छेरा पाहन राई की रस्म को पूरा करने में लग गए। उनके इस काम में भगवान जगन्नाथ, भगवान बलराम और देवी सुभद्रा के रथों के चारों ओर झाड़ू लगाना और पवित्र जल छिड़कना शामिल है।

पुरी से 420 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में झारसुगुड़ा ज़िले के गाँव रेमांडा में अख़्तर का घर है। इसी गाँव में यह रथ उत्सव या रथयात्रा पुरी की रथयात्रा के तीन दिन बाद शुरू होती है। यह रथ उत्सव पिछले सप्ताह 23 जून को मनाया गया था।

छेरा पाहनरा करने वाले मोहम्मद अख़्तर वारस मोहम्मद के वंशज हैं। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने 1900 ईस्वी के आसपास रेमांडा में रथ यात्रा की परंपरा शुरू की थी। इन सालों में रेमांडा गाँव के मुसलमानों, हिंदुओं, आदिवासियों और अन्य समुदायों ने सौहार्द की एक मिसाल कायम की है और इसके लिए सद्भावना श्रीक्षेत्र का सम्मान हासिल किया है। यहाँ सभी लोग मिल-जुलकर एक साथ रथयात्रा के उत्सव को मनाते हैं।

अपने गाँव रेमांडा में, अख़्तर बिल्कुल वही काम कर रहे हैं जो गजपति महाराजा (देवताओं के प्रमुख उपासक माने जाते हैं) पुरी के जगन्नाथ मंदिर में करते हैं। लेकिन यहाँ थोड़ा सा अंतर है। जहाँ महाराजा सोने से बनी झाड़ू का इस्तेमाल करते हैं, वहीं अख़्तर की झाड़ू नारियल के पत्तों से बनी है। अख़्तर के छेरा पाहनरा की रस्म पूरी करने के बाद उनके गाँव की रथयात्रा शुरू होती है।

रस्म पूरी हो चुकी है। अख़्तर खड़े होकर 12 फीट ऊँचे रथ नृत्य, गायन और झांझ, शंख और ढोल की आवाज़ के साथ आगे बढ़ते रथ को देख रहे हैं। बरगद के पेड़ की जड़ों ‘बारा गच्चा ओहला’ से रथ को बाँधा गया हैं और लगभग 20 मुस्लिम परिवारों और लगभग 40 हिंदू परिवारों के लोग मिलकर इन रस्सियों से बंधे रथ को आगे खींचने में लगे हैं।

मोहम्मद रूफ ने गाँव कनेक्शन को बताया, “सांप्रदायिक सद्भाव और भाईचारा हमारे सामाजिक जीवन की पहचान है। हम न सिर्फ रथ उत्सव मनाते हैं, बल्कि नुआखाई (पश्चिमी ओड़िशा का) और ईद जैसे त्योहार भी उसी उत्साह और उल्लास के साथ मनाते हैं।”

रूफ समहति मंच के सदस्य हैं। वे रेमांडा में लगभग 15 डेसीमल (लगभग 6,533 वर्ग फीट) जमीन पर जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा के लिए एक मंदिर बनाने की तैयारी कर रहे हैं। इस बीच, 30 सदस्यीय रथ यात्रा परिचलन परिषद गाँव में उत्सव का आयोजन करने में लगी है।

ट्रांसपोर्ट बिजनेस के साथ जुड़े अख्तर ने कहा, “मेरे पिता गौंटिया मोहम्मद जमीउल्लाह ने 2021 तक छेरा पाहनरा किया था। लेकिन मेरी माँ की कोविड की वजह से मौत हो गई ,उसके बाद से उन्होंने ऐसा करना बंद कर दिया। गाँव की एक बैठक में यह निर्णय लिया गया कि मुझे अब इस काम को जारी रखना होगा। 2022 में एक पूजा में मेरे पिता ने मुझे अपना गमछा सौंप दिया था। यह मुझे ज़िम्मेदारी सौंपने का एक प्रतीकात्मक इशारा था।”

गौंटिया मोहम्मद जमाइउल्लाह ने याद किया कि उन्होंने 1983 में अपने पिता मोहम्मद खलील गौंटिया के निधन के बाद छेरा पाहनरा करना शुरू किया था।

“काफी समय तक रेमांडा पास के सुनारी गाँव से तीन देवताओं की मूर्तियाँ उधार लेकर इस रथ यात्रा को निकाला करता था, क्योंकि उनके पास अपनी मूर्तियाँ नहीं थीं।” अख़्तर के चचेरे भाई सज्जाद बादशाह ने गाँव कनेक्शन को बताया, “लेकिन 1996 में हमें अपनी मूर्तियाँ मिल गईं। इन्हें हमारे पुजारी सुभाष सतपथी के घर पर रखा गया और वहीं इनकी पूजा की जाती है।”

पहले मूर्तियों को पुजारी के घर से ले जाया जाता है, फिर रथ पर रखा जाता है। इसके बाद रथ को लगभग 400 मीटर तक खींचा जाता है। फिर वापसी यात्रा से पहले उन्हें नौ दिनों के लिए एक क्लब हाउस में रखा जाता है।

पुजारी सतपथी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “उसके बाद, देवता मेरी ठाकुर गुड़ी (वेदी) पर लौट आते हैं, और बारा गाचा ओहला (रथ को खींचने वाली रस्सियाँ) का विसर्जन गाँव के तालाब में किया जाता है।” पुजारी पास के पंडरी गाँव के सरकारी हाई स्कूल में शिक्षक भी हैं। उन्होंने कहा, “रथ साल की लकड़ी से बना है। लेकिन इसके कई हिस्सों की मरम्मत हर त्योहार के बाद नीम की लकड़ी से की जाती है।”

रेमांडा में समहति मंच गाँव में देवताओं के लिए एक मुख्य मँदिर और उनकी मौसी माँ के लिए एक और मँदिर बनाने की योजना बना रहा है। ये देवता यहाँ आते हैं और रथ यात्रा के बीच के नौ दिन इसी गॉँव में बिताते हैं।

समहति मंच और रथ यात्रा परिचलन परिषद के सचिव ललित दानी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हमने मुख्य मँदिर और मौसी माँ मँदिर की स्थापना के लिए अस्थायी रूप से एक करोड़ रुपये का बज़ट रखा है।”

उनके मुताबिक, इसके अलावा पुरी समहति मंच से लगभग 35,000 रुपये की लागत से देवताओं की तस्वीरें खरीदने की योजना है। समहति मंच के एक अन्य सदस्य राधाकांत माझी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “रिमांडा पंचायत के लोग दान के ज़रिए इस काम के लिए धन जुटाएंगे।”

गोंड समुदाय माझी ने बताया, “गुंडिचा यात्रा के दौरान हम 30,000 रुपये से अधिक खर्च करते हैं, जो देवताओं की उनकी मौसी के घर तक की आगे की यात्रा है। लेकिन उनकी वापसी यात्रा या बाहुदा यात्रा, अधिक संस्कारों और अनुष्ठानों के कारण अधिक महँगी है। इसका ख़र्चा लगभग 45,000 रुपये बैठता है।”

पिछले साल झारसुगुड़ा के जिला प्रशासन ने रथयात्रा आयोजित करने के लिए उत्सव स्थल पर नागरिक सुविधाएँ स्थापित करने के लिए लगभग 15 लाख रुपये दान किए थे। उस उत्सव में आसपास के गाँवों से भी 8,000 से ज़्यादा लोग शामिल हुए थे।

राज्य सूचना और जनसंपर्क विभाग के निदेशक और झारसुगुड़ा के पूर्व कलेक्टर सरोज कुमार सामल ने गाँव कनेक्शन को जानकारी देते हुए बताया, “समहति मंच ने सामुदायिक हॉल, शौचालय और सेप्टिक टैंक बनाने के लिए पैसे का इस्तेमाल किया था।”

हर साल इसलिए निकलती है रथयात्रा

पौराणिक कथाओं के मुताबिक द्वापर युग में एक बार भगवान् जगन्नाथ (कृष्ण) की बहन सुभद्रा ने उनसे द्वारका देखने की इच्छा जाहिर की। बहन को द्वारिका घुमाने के लिए जगन्नाथ जी अपने बड़े भाई बलभद्र (बलराम) और सुभद्रा को रथ पर बैठाकर नगर घूमने निकले। इस दौरान वे अपनी मौसी के घर गुडिंचा भी गए और सात दिन तक वहाँ रुके। तब से रथ यात्रा निकालने की परम्परा चली आ रही है।

कुछ कहानियाँ ये भी कहती हैं कि भगवान कृष्ण मामा कंस के बुलाने पर रथ से मथुरा गए थे। वे अपने भाई के साथ मथुरा जाते हैं तभी से ये रथ यात्रा शुरू हुई।

बलराम रोहिणी के बेटे और श्री कृष्ण के बड़े भाई थे। बलभद्र के सगे सात भाई और एक बहन सुभद्रा थीं जिन्हें चित्रा भी कहते हैं।

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