कैसे होगी देश के संविधान की रक्षा?

देश की नई पीढ़ी को संविधान की मंशा और उसकी आत्मा की अनुभूति, तभी होगी जब संविधान निर्माण की चर्चा और बहस को देखा जाए। इसलिए आवश्यक है कि संविधान सभा की कार्यवाही को हमारे स्कूलों में दिखाया जाना चाहिए ताकि पता चले कि उस समय के विद्वानों ने किस आधार पर संविधान बनाया था।
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जब संविधान सभा का गठन किया गया था तब हमारा देश विभाजित नहीं हुआ था और अंग्रेजों की हुकूमत चल रही थी। बाद में 1947 में धर्म के आधार पर भारत के दो भाग बन गए, एक भारत और दूसरा पाकिस्तान। पाकिस्तान ने मोहम्मद जिन्ना की अध्यक्षता में जो भी संविधान बना होगा वह उनके धर्म के हिसाब से बना होगा। भारत ने अपना संविधान बनाने के लिए दिसंबर 1946 में डॉक्टर अंबेडकर की अध्यक्षता में एक संविधान सभा का गठन किया । इस सभा के द्वारा 1949 में संविधान का प्रारूप तैयार कर लिया गया था, लेकिन वह लागू हुआ 26 जनवरी 1950 को। 1947 से 1950 तक देश में अंग्रेजो द्वारा बनाया गया संविधान चलता रहा और उसके अनुसार भारत के पहले भारतीय गवर्नर जनरल राज गोपालाचारी थे।

अंग्रेजों द्वारा बनाए गए संविधान में ब्रिटिश राज की रक्षा के तो सारे उपाय थे लेकिन भारतीय जनमानस की आशाओं और अपेक्षाओं को कोई स्थान नहीं दिया गया था। भारत का संविधान अविभाजित भारत के संविधान की तरह बना था। जब पाकिस्तान और हिंदुस्तान का गठन धार्मिक आधार पर स्वीकार कर लिया गया था तो उसी आधार पर भारत का संविधान भी होना चाहिए था। यदि ऐसा ना होता तो फिर सनातन परंपरा में सारे देश के लिए एक जैसा कानून होता और देश एक परिवार की तरह रहता। लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ उसके बाद 1954 में एक अवसर आया कि भारत के संविधान को भारतीय भू-भाग की महत्वाकांक्षाओं के हिसाब से बनाया जा सकता था। लेकिन तब भी ऐसा नहीं किया गया और हिंदू समाज के लिए तो हिंदू कोड बिल और मुस्लिम समाज को सरिया के हिसाब से जीवन चलाने की आजादी रही। भले ही फौजदारी मामलों में देश का संविधान सब पर एक समान लागू किया गया, परंतु सिविल कानून को वैसे ही अलग रखा गया जैसे देश का विभाजन हुआ ही ना हो। व्यावहारिक कठिनाइयां आती रहीं और संविधान में संशोधन होते रहे, अब तक 100 से भी अधिक संशोधन हो चुके हैं।

वैसे संविधान बनाने की जिम्मेदारी तो संविधान सभा की थी, लेकिन इसकी रक्षा का दायित्व मूल रूप से न्यायपालिका का है। संविधान की व्याख्या बदला करती हैं, समय-समय पर अदालत तथा संविधान जैसे विषयों पर गोष्ठियां और सेमिनार हुआ करते हैं। ऐसा ही एक सेमिनार अभी कुछ समय पहले आंध्र प्रदेश के शहर हैदराबाद में हुआ है। अधिकतर अवसरों पर माननीय न्यायालय का विचार संसद को स्वीकार होता है लेकिन कई बार ऐसा नहीं भी होता।

जब देश के संविधान के विषय पर, न्यापालिका और संसद के बीच में टकराव की हालत आती है तब न्यायपालिका संविधान की रक्षक के रूप में मौजूद है। इसके बावजूद संविधान में 100 से अधिक बार संशोधन हो चुके हैं। वैसे संशोधन स्वीकार्य है यदि जनहित और देश हित में हो। यह मनुष्य द्वारा बनाया गया समाज की सुविधा के लिए एक दस्तावेज है, जिसको समय और आवश्यकता के अनुसार बदला जा सकता है। शायद इसी दृष्टि से श्रीमती इंदिरा गांधी जो तत्कालीन प्रधानमंत्री थीं, उन्होंने संविधान में बड़े परिवर्तन किए होंगे और उनमें से बहुत से परिवर्तन अभी भी संविधान मैं मौजूद है, कुछ को बाद में बदला भी गया है।

देश की नई पीढ़ी को संविधान की मंशा और उसकी आत्मा की अनुभूति, तभी होगी जब संविधान निर्माण की चर्चा और बहस को देखा जाए। इसलिए आवश्यक है कि संविधान सभा की कार्यवाही को हमारे स्कूलों में दिखाया जाना चाहिए ताकि पता चले कि उस समय के विद्वानों ने किस आधार पर संविधान बनाया था। संविधान में “एक देश में एक विधान एक प्रधान और एक निशान का अभाव है” यह बात डॉक्टर मुखर्जी ने कश्मीर के संदर्भ में कही थी, लेकिन सारे देश पर लागू होती है। 1954 में एक समय आया था जब देश में समान नागरिक संहिता लागू की जा सकती थी, लेकिन तब के प्रधानमंत्री नेहरू जी ने इस पर ज्यादा चिंतन और चर्चा नहीं की। नतीजा हुआ कि हिंदू समाज के लिए भारतीय संविधान और मुस्लिम समाज के लिए सरिया कानून बने रहे जैसा गुलाम भारत में था।

कुछ लोग आजकल यह कहते हुए सुने जाते हैं कि देश में आपातकाल जैसे हालात चल रहे हैं। उन्होंने आपातकाल देखा नहीं है। आज की तारीख में यात्रियों को बसों से उतार कर उनकी नसबंदी नहीं होती, लोगों को बिना कारण बताएं जेल में नहीं डाला जाता और अखबारों की खबरें डीएम द्वारा एडिट नहीं होती और जुबान को खोलने के पहले तीन बार सोचना नहीं पड़ता कि आलोचना करें या ना करें। जिन्होंने आपातकाल देखा है, वह कभी नहीं कहेंगे कि आज आपातकाल की हालत है। जिस तरह की भाषा का प्रयोग कर आजादी यूट्यूब पर और जिस तरह की आजादी अखबारों और टीवी पर लिखने, बोलने की है वह आपातकाल में कल्पना से बाहर थी। यदि आजादी होती तो इंडियन एक्सप्रेस के संपादक रामनाथ गोयनका को एडिटोरियल का कॉलम सादा नहीं छोड़ना पड़ता। इसलिए छोड़ा गया कि संपादक समझौता करने को तैयार नहीं थे।

सच है की अनाधिकृत बिल्डिंगों पर बुलडोजर चला है, लेकिन अदालत में शिकायत करने की आजादी मौजूद है, शायद कोई गया नहीं। लेकिन आपातकाल के समय जब आपातकाल में तुर्कमान गेट गिराया गया तो सरकार की शिकायत करने के लिए यह आजादी नहीं थी। संविधान लागू हुए 73 साल बीत चुके हैं, फिर भी इसकी पूरी तरह रक्षा नहीं हो पाई और समय-समय पर इसमें परिवर्तन भी होते रहें। आजकल कम्युनिस्ट विचारधारा वाले और समाजवादी सोच के लोग अभिव्यक्ति की आजादी की बात सबसे अधिक करते हैं। इसके लिए बस एक ही उदाहरण काफी होगा। जब मैं तेल और प्राकृतिक गैस कमीशन में कार्य करता था तो मेरे एक सहयोगी तिवारी जी ने बताया था कि उनका एक साथी लुमुम्बा विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए रूस गया हुआ था। रात को हॉस्टल के अपने कमरे में खुलकर बातचीत करता रहा और सवेरे वह गिरफ्तार हो गया। उसकी सारी बातचीत रिकॉर्ड हो गई थी। तो सोचिए इतनी थी अभिव्यक्ति की आजादी। कम्युनिस्ट देश की बात ना भी करें तो मध्य पूर्व के इस्लामी देशों में अभिव्यक्त की कितनी आजादी है इसका पता वहां यदि ईश निंदा के अपराध में कोई पकड़ा जाए तो पता चलता है। जहाँ तक प्रजातांत्रिक देश की बात है तो वहां यदि भारतीय , पाकिस्तानी या अन्य कोई नागरिक जाता है तो उसे वहां के संविधान के हिसाब से रहना और चलना पड़ता है। वहां पर्सनल लॉ को मान्यता नहीं है बल्कि यदि शादी की है तो उसका वैधानिक प्रमाण चाहिए होता है।

कुछ वर्ग यह चाहते हैं कि संविधान में कोई परिवर्तन ना किया जाए, जैसे कुरान शरीफ और बाइबिल में बदलाव नहीं किया जा सकता। यदि देशवासियों की सुविधा और सुरक्षा के लिए बदलाव किए जाएं तो वे वांछनीय होंगे । आखिर जब अंग्रेजों के नियम कानून की जगह भारतीय संविधान बनाया और लागू किया गया तो उसका उद्देश्य यही था कि हमारी परिस्थितियों के अनुसार हमारे लोगों की सुविधा, सुरक्षा और जीवन यापन करने की आजादी हो।

कई बार कुछ लोग अपने विशेष अधिकार कायम रखना चाहते हैं और कोई परिवर्तन नहीं स्वीकारते। उदाहरण के लिए जब शाहबानो प्रकरण में तीन तलाक की व्यवस्था को अदालत में ना मंजूर करते हुए भारतीय संविधान के अनुसार शाहबानो को मुआवजा दिलाया, तो वह समाज, जो सरिया नियमों में विश्वास करता था उद्वेलित हो गया। अब सवाल है की संविधान में परिवर्तन हो या ना हो और यदि हो तो कितना हो, इसका फैसला कौन करेगा। सरकार का काम था संविधान बनाना सो उसने बना दिया और अदालतों का काम है उसकी व्याख्या करना वे करती रहती हैं। यह फैसला कि संविधान में परिवर्तन होना है या नहीं उन पर छोड़ना चाहिए, जिनके लिए यह बना है। बिना जनमत संग्रह के संविधान में परिवर्तन यदि किया जाएगा और वह भी निहित स्वार्थ के कारण तो वह मान्य नहीं होगा। हमारा संविधान नई परिस्थितियों में बदले हुए स्वरूप को ध्यान में रखते हुए बनना चाहिए था। उदाहरण के लिए संविधान में यह इच्छा जाहिर की गई है कि समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास किया जाएगा, लेकिन इतने वर्षों में कितनी बार यह प्रयास किया गया? वैसे यह संविधान यदि अविभाजित भारत में लागू किया गया होता तो शायद देश का बंटवारा नहीं होता।

1975 आते-आते देश के संविधान में संशोधन नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर परिवर्तन हुए। यहां तक के प्रस्तावना में समाजवाद डाला गया और भारत सरकार और राजा महाराजाओं के बीच का प्रवीपर्श का समझौता समाप्त किया गया, इतना ही नहीं, 1975 में आम आदमी को जीने का मूलअधिकार भी नहीं रहा, तब की सरकार ने संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन कर डाले, लेकिन न्यायाधीश कुछ नहीं कर सके, न्यायपालिका संविधान की रक्षा नहीं कर पाई। तब संविधान की रक्षा कौन करेगा? क्यों कि रक्षा करने के लिए पुलिस और सेना पर जजों का कंट्रोल नहीं है और यह कंट्रोल सरकार के पास है, जो अपने हितों की रक्षा करने में संविधान में बदलाव करना चाहेगी। हमारे देश के लोगों ने राजतंत्र, परतंत्र और प्रजातंत्र देखा है। राजतंत्र में राजा की इच्छा ही नियम होता है और परतंत्र में शासन अपने नियम बनाकर देश पर ठोकता है, लेकिन प्रजातंत्र में प्रजा की इच्छाओं, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं के हिसाब से बनाया गया संविधान ही सर्वमान्य नियम होता है।

शासन व्यवस्था चलाने के लिए सरकारों के पास अलग-अलग नियम कानून होते हैं। उदाहरण के लिए इस्लामिक देश में फौजदारी कानून बहुत ही सख्त हैं और यहां तक के ओल्ड टेस्टामेंट में कहा गया है कि आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत। इस्लाम में तो मध्य पूर्व के देशों में चोरी के लिए हाथ काटने या और बड़े अपराधों के लिए गला काटने तक की सजा है। जब हमारे संविधान में फौजदारी के कानून सेकुलर आधार पर बनाए गए जो मानवीय हैं तो किसी ने इसका विरोध नहीं किया, कि यह कानून सरिया के आधार पर होने चाहिए। लेकिन जब पर्सनल लॉ की बात आती है तो फिर शरिया कानून के बाहर जाने में ऐतराज है। यह तो हमारे गांव की “कहावत कड़वा-कड़वा थू और मीठा-मीठा गड़प्प” जैसा हुआ ।

हमारा संविधान सनातन मूल्य से प्रेरित सत्य और अहिंसा के सिद्धांत पर बना होगा, ऐसा माना जा सकता है। ऐसी हालत में सर्वमान्य होना चाहिए था, लेकिन संविधान में बराबर कुछ कमियां दिखाई पड़ीं, यही कारण था कि समय-समय पर संशोधन होते रहे और विवाद भी होते रहे। समय-समय पर जन आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बनाया गया दस्तावेज स्थाई होता है, लेकिन कहते हैं इंग्लैंड का कोई लिखित संविधान नहीं है। इसके विपरीत भारत का संविधान सबसे बड़ा और व्याख्यात्मक है। इसलिए इसमें बार-बार परिवर्तन की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी । लेकिन कुछ फैसला महत्वपूर्ण थे फिर भी भविष्य के लिए छोड़ दिए गए। भले ही देश भर में एक प्रधान एक विधान एक निशान जैसी बातों को लागू ना किया जा सके, एक राष्ट्रभाषा ना बन सके और एक राष्ट्र धर्म ना हो सके लेकिन समान नागरिक संहिता जैसे विषय पर सहमति होनी ही चाहिए।

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