सतना (मध्य प्रदेश)। डीजे की धुन वाली शहरों की होली से इतर गांव के भारत में होली का अपना ‘रंग’ है। मध्य प्रदेश के बघेलखंड में इस उत्सव की अलग ही खुमारी है। यहां नगड़िया की डुग…डुग की आवाज फागुन आते ही सुनाई देने लगती है। इसी के साथ फाग की तान भी छेड़ी जाती है, जिसमें रिश्तेदारों, संबंधियों और पड़ोसियों की बुराई गाने के माध्यम से की जाती है, हालांकि आधुनिकता की दौड़ में यह चलन धीरे-धीरे सिमट रहा।
फागुन, फाग और होली का आपस में गहरा नाता है। यह खेती से भी जुड़ा हुआ है। पहले गांव में मनोरंजन के कोई साधन नहीं थे लोग त्योहारों में लोकगीत, लोक कलाओं के प्रदर्शन के माध्यम से ही खेती के कामों से फुरसत हो कर इन्हीं माध्यमों से मन बहलाते थे।
80 साल के किसान नत्थू लाल नामदेव गांव के जाने माने फाग गायक हैं। फाग मंडली को देखकर उनके पाँव रुक ही जाते हैं।सतना में ही मसनहा गांव के निवासी प्रभाकर शुक्ला के खेत में बने मकान में जब इकठ्ठा फाग मंडली इकट्टा हो रही थी, इस बीच गांव कनेक्शन की टीम भी पहुंच गई।
नत्थू लाल बताते हैं, “देखिये इस समय चना, मसूर, अरहर आदि फसलें पक जाती हैं। इन अगेती फसलों की कटाई भी लगभग-लगभग किसान कर चुके होते हैं। रह जाती है तो गेहूं की फसल उसमें थोड़ी बहुत हरियाली रहती है। ऐसे में थोड़ा फुरसत पाकर किसान होली के रंग खेल लेता है।”
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60 साल के राम विश्वास कुशवाहा भी फाग गायक हैं। कोई राह चलते उनसे फाग सुनाने के लिए कह दे तो एक दो कड़ियां सुना देते हैं, लेकिन उन्हें पुराने समय जैसा माहौल नहीं मिल पा रहा है, जिससे वह दुखी हैं। फाग गाना उन्होंने अपने बाबा से सीखा था।
गांव कनेक्शन के सवालों का जवाब देने के लिए राम विश्वास ने पहली गहरी सांस ली फिर बोले “हमारे पुरखे फाग गाते चले आ रहे हैं। इसी से हम लोग भी सीखते चले आए। पहले तो गांव में चौपालें होती थीं। इसी में गांव वाले आकर बैठते, चर्चा करते इसी बीच नगड़िया, ढोलक लाकर फाग गाते थे। यह होली से पहले ही शुरू हो जाता था। अभी भी फाग होती है, लोग गाते हैं लेकिन अब वैसा उत्साह नहीं है।”
पिछले 35 सालों से फाग गाते चले आ रहे रामविश्वास को आस पास के गांव से भी फाग गाने के लिए बुलाया जाता है। वह मध्यप्रदेश के सतना जिले के मसनहा गांव के निवासी हैं।
सात दिन पहले गाड़ते हैं डांड, रंग गुलाल के साथ लगाते हैं राख
गांव में एक और बात होली से जुड़ी हुई हैं। गांव की बस्ती से दूर डांड गाड़ी जाती हैं। यह लकड़ी का खंबा होता है जिसे गांव में डांड बोलते हैं। इसे होलिका दहन से 7 दिन पहले गाड़ा जाता है। इसी के इर्द गिर्द गांव के लोग लकड़ी, घास फूस और सूखे पेड़ पौधे इकट्ठा करते हैं और होलिका दहन की रात गांव के लोग फाग गाते हुए पहुँचते हैं। ऐसी मान्यता है कि होलिका दहन के साथ ही बुराई भी जल जाती है।
सतना जिले के उचेहरा ब्लॉक के पिथौराबाद गांव के दिलीप द्विवेदी (52 वर्ष) गांव कनेक्शन को बताते हैं, “गांव में होली दहन के लिए सात दिन पहले से गांव का ही बड़ा या बुजुर्ग खाली जगह में लकड़ी का खंबा गाड़ आता है। इस खंबा को क्षेत्रीय भाषा में डांड बुलाया जाता है। इसे यहां होरी (होली) सूचना (इकट्ठा ) कहा जाता है। होलिका दहन के बाद बची हुई राख को लोग एक दूसरे को लगाते हैं। रंग गुलाल भी खेलते हैं इसके साथ ही फाग शुरू हो जाती है जो रात तक चलती रहती है। “
“परंपराओं से नहीं, नई पीढ़ी को हुड़दंग से मतलब”
नगड़िया की डुग डुग की आवाज बड़े बुजुर्गों को आज भी प्रभावित कर रही है लेकिन नई पीढ़ी को इससे कोई लेना देना नहीं है। उन्हें नगड़िया की धुन सुनने में अच्छी लगती है लेकिन आधुनिक वाद्य यंत्र ज्यादा प्रभावित कर रहे हैं।
फाग मंडली के सदस्य 51 साल के नारायण शुक्ला बताते हैं, “समय के साथ फाग कम होती जा रही है। नई पीढ़ी को तो मंडलियों में बैठने तक की फुरसत नहीं है। वजह मनोरंजन के अन्य आधुनिक साधन उपलब्ध हैं।”
हालांकि नारायण शुक्ला की बातों पर युवक पलटवार कर रहे हैं उनका कहना है कि पुरानी पीढ़ी के लोगों ने नई पीढ़ी को इससे परिचय ही नहीं कराया है।
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे दिदौन्ध गांव के आशीष सिंह (24 साल) ने गांव कनेक्शन को बताया, “नगड़िया की धुन सुनने में अच्छी लगती है लेकिन गाते क्या हैं यह समझ नहीं आता। इसकी वजह यह है कि इन सब से हमारी पीढ़ी को परिचय नहीं कराया गया।”
आशीष की बातों में अपनी बात जोड़ते हुए त्रयंबकेश्वर मिश्रा (23 साल) कहते हैं, “चौपालें कैफे हो गईं। ऐसे में पिछली बातों को कौन याद रखना चाहता है। इसलिए इस बात को ऐसे कह सकते हैं कि जनरेशन गैप है।”
फाग में हर जाति समूह का योगदान
फाग पहले चौपालों में होती थी लेकिन इनके खत्म होने के साथ ही गांव के किसी बड़े आदमी के घर में फाग का आयोजन होने लगा है। इसमें गांव में रहने वाली सभी जाति समुदाय के लोग भाग लेते हैं जिसमें बढ़ई, लोहार, चर्मकार, कोल, अहिर, गड़रिया, कुम्हार आदि का बड़ा योगदान होता था।
पद्यश्री बाबूलाल दाहिया अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं, “जिस गांव में सात जातियां (बढ़ई, लोहार, चर्मकार, कोल, अहिर, गड़रिया, कुम्हार) रहती थीं उस गांव को समृद्ध माना जाता था। इन्हीं से जुड़ा होता था यह त्योहार फाग गाने में सभी समाज रहता था लेकिन इनका विशेष योगदान होता था। आज भी जिन गांव में ये सात जातियां हैं वहां फाग होता है और भी गांव में होता है लेकिन सब सिमट रहा है।”
नगड़िया को लेकर पदमश्री दाहिया ने बताया, “नगड़िया का नीचे का हिस्सा मिट्टी का होता है जो कुम्हार बनाता है। ऊपर का हिस्सा चर्मकार समाज, रस्सी गड़रिया और नगड़िया बजाने की दो लकड़ियां बढ़ई समाज देता था। इस तरह से फाग का समन्वय बनता था।”