गर्मी की तपिश का एहसास

देश में बढ़ती गर्मी को मापने का पैमाना सिर्फ कलर कोडेड हीट स्ट्रेस मैप या एयर-कंडीशनरों की बंपर बिक्री नहीं है। बढ़ती गर्मी और उससे होने वाली पीड़ा का एक मानवीय चेहरा भी है। और वह चेहरा अक्सर किसी प्रवासी मजदूर या दिहाड़ी मजदूर का होता है। अगर आप करीब से देखें तो इनमें से कई चेहरे ग्रामीण महिलाओं के भी मिलेंगे।
heat waves

जिस आसमान छूती बड़ी सी इमारत में मैं रहती हूं, वहां बाहर खड़े होकर लिफ्ट का इंतजार कर रही थी। तभी एक जानी-पहचानी आवाज ने कहा, “नमस्ते भाभी। कैसे हो?”

मैंने पीछे मुड़कर देखा, थोड़ा मुस्कुराई और कहा, “मैं अच्छी हूं। और तुम, राजू?”

मुंबई के उपनगरीय इलाके में स्थित हमारे परिसर में, मैं अकसर राजू को हाथ में चाबियों का गुच्छा लिए घूमते हुए देखती हूं। उसका काम गाड़ियां पर जमी धूल को झाड़ना और गाड़ियों को धोना है। यह कोई आसान काम नहीं है क्योंकि देश की वित्तीय राजधानी में हमेशा कुछ न कुछ ‘निर्माणाधीन’ बना रहता है। बाहर खड़ी कारें तो दूर की बात है, घरों के अंदर रखे किसी भी समान को धूल से बचा पाना संभव नहीं है।

हम दोनों लिफ्ट में चढ़ते हैं। पहले वह जब भी मुझसे मिलता, तो पूछने लगता “भाभी, बच्चे कैसे हैं” या “आप अपने माता-पिता से मिलने के लिए दिल्ली कब जा रही हैं।” लेकिन इस बार राजू के सवाल अलग थे। वह कहने लगा, “इस बार की गर्मी असहनीय है। गाँव में तो और भी बुरा हाल है, भाभी। सब बीमार पड़ हैं। कोई काम पर नहीं जा पा रहा है।”

राजू मूल रूप से बिहार का रहने वाला है। कई साल पहले वह मुंबई चला आया था, जैसे सैकड़ों हजारों लोग (इनमें से मैं भी एक हूं) शहर में रहने के लिए आते हैं। राजू के साथ मेरी कई बार बातचीत हुई है, लेकिन यह पहली बार था जब हम दोनों ही बेतहाशा पड़ रही गर्मी से परेशान थे।

इससे पहले, उसी दिन सुबह 7 बजे सोनी जब घर में आई, तो आते ही उसने रसोई की छत पर लगा पंखा चालू किया और शिकायत भरे लहजे में कहने लगी, “दीदी, बहुत गर्मी है। हम पूरी रात सो नहीं पाते हैं। हालात हर साल खराब होते जा रहे हैं। दिन भर काम करना मुश्किल हो जाता है।” थोड़ी देर रुकने के बाद, उसने कहा, “कम से कम मुंबई में हमारे पास बिजली तो है। गाँव में बिजली भी नहीं होती (क्योंकि गाँव में लंबे समय तक बिजली गायब रहती है)।” सोनी पश्चिम बंगाल की रहने वाली हैं। वह हमारे घर में खाना बनाने आती हैं।

पिछले कुछ दिनों से हीटवेव खबरों की सुर्खियां बनी हुई हैं। हमारे सोशल मीडिया फीड पर गहरे लाल और गहरे मैरून रंगों में रंगे इंटरएक्टिव मैप देश भर की ऐसी कई जगहों को दर्शाते हैं जहां पारा 43-45 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया है।

हमारी आधिकारिक मौसम पूर्वानुमान एजेंसी ‘आईएमडी’ (भारत मौसम विज्ञान विभाग) हीटवेव पर अलर्ट और चेतावनी जारी करती रही है। कुछ राज्यों ने एहतियात के तौर पर स्कूलों को बंद कर दिया है। अभी तो सिर्फ अप्रैल है और गर्मी अपने चरम पर नहीं पहुंची है। इस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून का पूर्वानुमान (‘सामान्य से कम’ बारिश की संभावना के साथ) बहुत आशाजनक नजर नहीं आ रहा है। लेकिन इसे आने में भी एक महीने से ज्यादा का समय है।

उन लोगों के बारे में सोचें जो हमारे श्रमिक कार्यबल हैं। शहरों में काम करने वाले सैकड़ों और हजारों सोनी और राजू जैसे लोगों का परिवार ग्रामीण भारत में रहता है। उनमें से ज्यादातर बाहर काम करते हैं। (आपको याद दिला दें- हमारी कुल आबादी का 65 फीसदी अभी भी ग्रामीण भारत में रह रहा है)।

अक्सर चढ़ते पारा और उसके प्रभाव को लेकर चर्चा इस बहस में फंस जाती है कि तापमान 1.5डिग्री सेल्सियस बढ़ेगा या 2 डिग्री सेल्सियस।

या, इस बारे में ‘बिजनेस से जुड़ी कहानियां’ हैं कि कैसे उपभोक्ता कंपनियां इस गर्मी में एयर कंडीशनर और वाटर कूलर की बिक्री में बढ़ोतरी कर रही हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उनका मुनाफा बढ़ेगा क्योंकि आने वाले सालों में तापमान नए स्तरों को छूने वाला है और आखिर में यह सब हमारे इस ग्रह को रहने लायक नहीं छोड़ेगा।

विश्व बैंक के मुताबिक, 2037 तक भारत में कूलिंग की मांग मौजूदा स्तर से आठ गुना ज्यादा होने की संभावना है। इसका मतलब है कि हर 15 सेकंड में एक नए एयर-कंडीशनर की मांग होगी, जिससे अगले दो दशकों में सालाना ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 435 फीसदी की अपेक्षित वृद्धि होगी।

हम भूल जाते हैं कि बढ़ती गर्मी सिर्फ कलर कोडेड हीट स्ट्रेस मैप या एसी बिक्री ग्राफ के बारे में नहीं है। देश में बढ़ती गर्मी और उससे होने वाली पीड़ा का एक मानवीय चेहरा है। और वह चेहरा अक्सर किसी शहर में रह रहे प्रवासी मजदूर का या फिर ग्रामीण भारत में दिहाड़ी मजदूर का होता है।

अगर आप करीब से देखेंगे, तो वह चेहरा एक ग्रामीण महिला का भी होगा क्योंकि तेज गर्मी का सबसे अधिक खामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ता है। अब चाहे वह कृषि श्रम रोजगार के नुकसान के कारण हो, पानी या जलाऊ लकड़ी की तलाश में एक लंबा रास्ता तय करने का हो, या बूढ़े और बच्चों को खिलाने -पिलाने, उनकी देखभाल की जिम्मेदारी के रूप में हो। ये सब काम महिलाओं के जिम्मे होते हैं क्योंकि पुरुष तो काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर गए होते हैं।

इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन (ILO) की 2019 की रिपोर्ट – वर्किंग ऑन ए वार्मर प्लेनेट – द इम्पैक्ट ऑफ़ हीट स्ट्रेस ऑन लेबर प्रोडक्टिविटी एंड डिसेंट वर्क – में चेतावनी दी गई है कि भारत में हीट स्ट्रेस के कारण 2030 में 5.8 प्रतिशत काम के घंटे कम होने की उम्मीद है। अपनी बड़ी आबादी के चलते देश के लिए यह आंकड़ा 2030 में 3.4 करोड़ पूर्णकालिक नौकरियों के जाने के बराबर होगा।

इतना ही नहीं, विश्व बैंक की 2022 की एक और रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि 2030 तक, पूरे भारत में सालाना 16 से 20 करोड़ से ज्यादा लोगों के घातक गर्मी की चपेट में आने की संभावना है।

सबसे ज्यादा खामियाजा खेतिहर मजदूर, निर्माण मजदूर और दिहाड़ी मजदूर को भुगतना पड़ेगा, जो बाहर काम करते हैं और तंग इलाकों में बनी झोपड़ियों में रहते हैं। उनके लिए, एक दिन की मजदूरी का नुकसान अक्सर उस दिन परिवार के लिए भोजन नहीं होने में तब्दील हो जाता है। बढ़ती गर्मी से कृषि उत्पादकता में भी कमी आने की आशंका है।

हीटवेव के आसपास हमारी अधिकांश चर्चा और योजना शहरों के लिए हीट वेव एक्शन प्लान पर ध्यान देने से जुड़ी है। हैरानी की बात है कि ग्रामीण भारत के बारे में नहीं सोचा जाता है।

तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया भीषण गर्मी से जुड़ी अपनी रिपोर्टिंग में शायद ही कभी ग्रामीण नागरिकों पर ध्यान केंद्रित करता हो, खासकर गांवों के खेतिहर मजदूरों और दिहाड़ी मजदूरों पर। जब गर्मी लंबी और भीषण हो जाती हैं तो उनकी आजीविका और स्वास्थ्य का क्या होता है? यह किसी की चिंता नहीं है। ‘राहत’ और ‘अनुकूलन’ रणनीतियों पर चर्चा करने के लिए दुनिया की बेहतरीन जगहों पर आयोजित सीओपी (जलवायु परिवर्तन पर पार्टियों का सम्मेलन) में भाग लेने वाली सरकारों और नीति निर्माता भी इनके बारे में न के बराबर सोचते हैं।

चलिए वापस लौट आते हैं, जहां आंकड़े कुछ अच्छी कहानी बयां नहीं कर रहे हैं। अध्ययन के मुताबिक, भारत में 2000-2004 और 2017-2021 के बीच अत्यधिक गर्मी के कारण होने वाली मौतों में 55 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। गर्मी के संपर्क में आने से 2021 में भारतीयों के बीच 167.2 बिलियन संभावित श्रम घंटों का नुकसान हुआ. इसकी वजह से देश की जीडीपी के लगभग 5.4 प्रतिशत के बराबर आय का नुकसान हुआ है।

बढ़ती गर्मी का नुकसान चिंताजनक है। हमारे कामगार पहले से ही मजदूरी के नुकसान, घटते खाद्य बजट और सेहत पर होने वाले खर्च के रूप में इसकी कीमत चुका रहे हैं। वह दिन दूर नहीं है जब इनमें मैं और आप भी शामिल हो जाएंगे।

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