एक समय था जब सारी दुनिया में ज्ञान और शिक्षा के मामले में भारत का डंका बजता था। उस समय दुनिया के कोने कोने से विद्यार्थी पढ़ने के लिए आया करते थे, कुछ घूमने के लिए भी आते थे। शिक्षा के लिए यहाँ बहुत बड़े-बड़े विश्वविद्यालय थे जैसे तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय। तक्षशिला विश्वविद्यालय जहाँ से पढ़कर चाणक्य, चरक और सुश्रुत दुनिया में मशहूर हुए थे।
भारत ने युद्ध कला में उतना विकास नहीं किया और विदेशी आक्रमणकारी कामयाब हुए, भारत पर कब्जा किया देश गुलाम हो गया। जब देश गुलाम हुआ तो उनकी भाषा भारतवासियों को सीखनी पड़ी और अपनी भाषा दुनिया को नहीं बता पाए, संस्कृत और पाली का महत्व उतना नहीं रहा और देश में अरबी फारसी और उर्दू की शिक्षा महत्वपूर्ण हो गई।
अंग्रेजों के चले जाने के बाद शिक्षा बदलनी चाहिए थी लेकन वह बदली नहीं । अंग्रेजों को ज़रूरत थी देश में अंग्रेजी पढ़े लड़कों की उपलब्धता और मैकाले ने कहा भी था ‘’We have to produce clerk”। वास्तव में आवश्यकता थी मौलिक चिंतन की और मौलिक चिंतन आता है, मातृभाषा में पढ़ाई से, वह ना तो मुगलों ने और ना अंग्रेजों ने होने दिया। यह संभव हो सकता था जब आजाद भारत की सरकार मातृभाषा के प्रति गंभीर होती, मगर ऐसा था ही नहीं। 1954 में मौका आया था जब शिक्षा के मामले में पूरे देश में कम से कम एकरूपता लाई जा सकती थी। मगर इच्छाशक्ति की कमी के कारण यह भी नहीं हो पाया।
मेरे बाबा पढ़े लिखे तो नहीं थे लेकिन वह मुझे पढ़ाना चाहते थे। उन्होंने उर्दू पढ़ने के लिए मुझे ठाकुर छत्रपाल सिंह के पास भेजा मैंने अक्षर लिखना सीख भी लिया, लेकिन हिज्जे लगाने में कठिनाई होती थी और एक दिन जब उन्होंने सजा दे दी, मुझे एक तमाचा मार कर। मैंने बाबा से कहा मैं उर्दू नहीं पढ़ूंगा तब उन्होंने मुंशी जालिम सिंह से बात की जो कुनौरा में कक्षा 1,2 और 3 को पढ़ाते थे, मेरा नाम वहाँ लिखा दिया।
मैं जंगल के रास्ते होता हुआ मुंशी जालिम सिंह के साथ स्कूल जाता था। उन दिनों स्कूल बहुत दूर-दूर थे प्राइमरी स्कूल भी मेरे गाँव से 3 से 4 किलोमीटर की दूरी पर था ।अमानीगंज से मैंने 1951 में कक्षा 5 पास किया। कक्षा 6, 7 और 8 की पढ़ाई के लिए 12 किलोमीटर की दूरी पर इटौंजा का मिडिल स्कूल था। यह स्कूल वहाँ के प्रधानाध्यापक मुंशी शारदा बक्श सिंह के नाम के कारण मशहूर था। मेरे पिताजी और दूसरे लोगों ने मुझे इटौंजा जाने की सलाह दी। मैंने इटौंजा से 1954 में मिडिल स्कूल यानी कक्षा 8 पास किया, अब आगे की पढ़ाई के लिए 50 किलोमीटर पर लखनऊ या इतनी ही दूरी पर दूसरे शहरों में संभावना थी। मैं लखनऊ पढ़ने के लिए गया और मेरे पिताजी ने एक परिचित के घर में मुझे रखा और वहीं पर मैं रहकर पढ़ता था। मेरी ही तरह हमारे पास पड़ोस के गाँव के बच्चे भी भटक रहे थे परेशान हो रहे थे ।
बहुतों ने कक्षा 5 के बाद ही पढ़ाई बंद कर दी। मुझे बहुत अधिक लगन थी पढ़ने की और मैं घर की आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद आगे बढ़ता गया और लखनऊ में गवर्नमेंट जुबिली इंटर कॉलेज से इंटर पास किया 1958 में। भारत के शिक्षक उस सिद्धांत को मानते थे “ विद्यादानं सर्वदानेषु प्रधानम’’ उस समय शिक्षा का स्तर आज से कहीं बेहतर था। तब कक्षा 5 या कक्षा 8 पास करके अध्यापक बन जाते थे। वे अध्यापक शुद्ध हिंदी का इमला लिखाते थे, गणित ठीक से पढ़ाते थे ।
एक तरफ आजाद भारत को बड़ी संख्या में इंजीनियर, डॉक्टर ,अध्यापक और दूसरे कर्मचारी चाहिए थे तो दूसरी तरफ विद्यालयों की भारी कमी थी। ऐसे में सरकार शिक्षा को सही दिशा नहीं दे पाई और उसका स्तर ठीक नहीं हो पाया। शिक्षा के मामले में गाँव की बहुत ही बुरी हालत थी और अब भी अपेक्षा के अनुरूप व्यवस्था नहीं है। लड़कियों की शिक्षा तो ना के बराबर थी अगर वह चिट्ठी पत्री लिखना और पढ़ना जान जाती थी तो आगे उनके माता-पिता पढ़ाई के लिए दूसरे गाँव भेजने को तैयार नहीं होते थे।
आजादी के बाद बहुत से विद्यालय कॉलेज खुले, डिग्री कॉलेज खुले, और आईआईटी तथा मेडिकल कॉलेज भी सरकार द्वारा खोले गए, लेकिन इनमें से कितने सुदूर ग्रामीण इलाकों में खुले हैं यह बताना कठिन है। यह सच है कि गाँव में सड़क बनी हैं, बिजली आई है और पानी की भी व्यवस्था हुई है, पीने के लिए भी और सिंचाई के लिए भी। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में शहर और गाँव का जो अंतर पहले था वैसा ही अंतर आज भी है । कुछ ग्रामीण जिनके पास पैसा है अपने बच्चों को पढ़ने के लिए शहर भेज पाते हैं नहीं तो अधिकांश गाँव में मौजूद विद्यालयों तक ही अपनी पढ़ाई को सीमित रखते हैं। स्वाभाविक है कि ऐसे बच्चे इंजीनियर और डॉक्टर तो नहीं बन पाएंगे वह साधारण क्लर्क, पटवारी/ लेखपाल जैसी मामूली नौकरियाँ पा सकते हैं। चपरासी बाबू बन सकते हैं लेकिन देश के निर्माण के लिए जिस स्तर के प्रशासक और वैज्ञानिक चाहिए उनमें ग्रामीण बच्चे अधिक योगदान नहीं दे पाते।
देश में सर्व शिक्षा अभियान चलाया गया लेकिन साक्षरता दर कागज पर अधिक ज़मीन पर कम ही नहीं, बहुत कम है। गाँव में आज अगर चिट्ठी आती है तो दूसरों से पढ़ाने वालों की कमी नहीं है। शिक्षा का एक तरीका रूस और दूसरे कम्युनिस्ट देश का रहा है जो अपने देश की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा संस्थाएं खोलते हैं। आवश्यकता अनुसार डॉक्टर और इंजीनियर निकलते हैं इसलिए बेरोजगारी नहीं होती, इसके विपरीत हमारे देश में मनमाने ढंग से प्रोफेशनल टेक्नोक्रेट तैयार हुए और उनके लिए देश में काम न होने के कारण बेरोजगारी बढ़ती गई। दूसरी तरफ पश्चिमी देशों का एक तरीका एक मॉडल है जिसमें मिशनरी स्कूलों की संख्या कहीं अधिक है । वहाँ शिक्षित लोगों की उतनी कमी नहीं है जितनी हमारे देश में है क्योंकि हमारी सरकारों के लोगों ने ना तो कम्युनिस्ट मॉडल अपनाया और ना पूंजीवादियों का पश्चिमी देशों का मॉडल और हम अधर में रहे।
शिक्षा की संस्थाओं को नॉन प्रोडक्टिव संस्थान माना गया जबकि सच्चाई यह है कि देश के प्रत्येक क्षेत्र में शिक्षित लोगों की आवश्यकता है। कष्ट की बात यह है की शिक्षा पर होने वाला व्यय देश के बजट का बहुत मामूली भाग होता है। कभी तीन तो कभी पाँच प्रतिशत, लेकिन इतने कम बजट से भी कुछ काम हो सकता था ,यदि अध्यापकों के वेतन पर अधिक से अधिक खर्च ना हो गया होता। उपकरण, साज-सज्जा ,बिल्डिंग इत्यादि पर खर्च उस अनुपात में नहीं होता जिस अनुपात में वेतन पर होता है। शिक्षा में कमजोरी का एक और भी महत्वपूर्ण कारण है वह यह कि अध्यापकों को आरंभ से ही शिक्षण कार्य के अतिरिक्त अनेक जिम्मेदारियाँ दी जाती रही ,जैसे जनसंख्या का कार्यक्रम, टीकाकरण जागरूकता, चुनाव आदि-आदि। इस तरह एक तो वेतन के लिए अध्यापकों की इच्छा बढ़ी और काम करने के लिए उनकी इच्छा घटती चली गई भारत की परंपरा के ठीक प्रतिकूल यह सब काम होते रहे। इतना ही नहीं कितने ही अध्यापक गाँव में और एक हद तक शहरों में भी कोचिंग चलाते हैं, ट्यूशन पढ़ाते हैं, खेती करते हैं, दुकान भी चलाते हैं और विद्यालय भी जाते हैं।
आखिर वह कौन सा उपाय होगा कि गाँव के गरीब बच्चों को भी अच्छी शिक्षा मिल सके जैसी शहर के लोगों को मिलती है। बिहार के लालू यादव ने एक प्रयोग किया था चरवाहा विद्यालय आरंभ करके, लेकिन वहाँ के विद्यार्थी न चरवाहा बन सके ना छात्र बन पाए। यह कोई उपयोगी उपाय नहीं था। कहने को सरकार ने गाँव -गाँव में विद्यालय खोल रखे हैं वहाँ बिल्डिंग है, अध्यापक हैं, बैठने की साज सज्जा है मगर वह अध्यापक शायद इस बात के लिए प्रशिक्षित नहीं है कि पढ़ाना कैसे हैं।
परिषदीय विद्यालयों में गरीब बच्चों को फीस बचाने के लिए उनके अभिभावक सरकारी स्कूलों में भजते हैं, लेकिन वे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं । प्राइवेट स्कूलों को कुछ शीट गरीब बच्चों के लिए सुरक्षित करने का निर्देश सरकारों ने दे रखा है लेकिन उसका लाभ कैसे मिलेगा जब गाँव में अच्छे प्राइवेट स्कूल ही नहीं है । बच्चों को भोजन की व्यवस्था देकर सरकार सोचती है कि वह विद्वान बन जाएंगे, उनको यूनिफॉर्म और मुफ्त की किताबें भी दी जा रही हैं लेकिन इन सब का लाभ तब होगा जब समर्पित अध्यापक होंगे उन्हें ठीक प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाएगा और उनका परीक्षा परिणाम प्राइवेट स्कूलों के बराबर होगा।
बोर्ड परीक्षाओं में प्राइवेट विद्यालयों की अपेक्षा सरकारी स्कूलों के परीक्षा फल कैसे होते हैं यह सुनिश्चित करने का कोई तरीका होना चाहिए और अध्यापकों की वेतन वृद्धि उनका प्रमोशन इसी पर निर्भर होना चाहिए अगर वह स्वतः समर्पित अध्यापक नहीं है तो उनके मन में कुछ ना कुछ अंकुश रहना चाहिए। यह सब तभी होगा जब विद्यालयों का ठीक प्रकार से निरीक्षण होगा। अंग्रेजों के जमाने में डिप्टी साहब आ रहे हैं ,डिप्टी साहब आ रहे हैं, इससे हड़कंप मच जाता था लेकिन अब जो निरीक्षण होता है उसमें केवल हस्ताक्षर हो जाते हैं और बाकी ना कोई सुझाव ना कोई आदेश और ना किसी को दंड। अध्यापकों की हड़तालों को और छात्रों की हड़तालों को जब तक प्रतिबन्धित नहीं किया जाएगा तब तक कोई सुधार संभव नहीं है। यह हड़तालों का तरीका साम्यवादी सोच का परिणाम है जो कहते थे हर जोर जुल्म के टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है। लेकिन गुरु और उनके शिष्य अगर हड़ताल करेंगे तो देश हड़ताल पर चला जाएगा प्रगति उसकी रुक जाएगी शिक्षा पंगु हो जाएगी।
अध्यापकों के चयन में जब तक आरक्षण बना रहेगा तब तक गुणवत्ता की बात सोचना भी ठीक नहीं है । देश के प्रधानमंत्रियों में पंडित जवाहरलाल नेहरू ही एकमात्र ऐसे थे जिन्होंने खुलकर आरक्षण का विरोध किया था, लेकिन मजबूर होकर उन्हें भी आरक्षण स्वीकार करना पड़ा था। क्या प्रजातंत्र और वोट की राजनीति के चलते गुणवत्ता परक शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती? सरकार को यह स्पष्ट सोचना होगा कि वह शिक्षा में प्राइवेट स्कूलों को प्रोत्साहित करना चाहती है या हतोत्साहित करना चाहती है । यदि ग्रामीण क्षेत्रों में प्राइवेट स्कूलों को प्रोत्साहित करना है तो यहाँ पर मान्यता के मानक वह नहीं रह सकते जो शहरों में होते हैं यहाँ पर अगर उन मानकों को पूरा करता हुआ कोई व्यापारी आएगा तो गरीब छात्रों का भला नहीं होगा। ज़रूरत है कि ज़्यादा से ज़्यादा प्राइवेट स्कूल गाँव में खुलें और इसके लिए गाँव के स्कूलों को मान्यता देते समय मानक अलग से निर्धारित होने चाहिए जो यहाँ संभव हो।
यह सोचें कि खैरात बांटने से अध्यापक समर्पित हो जाएंगे और छात्र विद्वान हो जाएंगे बहुत ही ना समझी का परिणाम है। जरूरत है कड़ाई से देखने की कि शिक्षा विभाग का सिस्टम पूरा तंत्र कैसे प्रभावी ढंग से काम करे । विद्यालय में पढ़ाई मनोरंजन, व्यक्तित्व विकास और खेल कूद जैसी तमाम गतिविधियों की व्यवस्था होनी जरूरी है l बच्चों के व्यक्तित्व विकास के लिए पुराने जमाने में रोज पी.टी., लेजम और दौड़ हुआ करती थी प्रतिस्पर्धाएं ब्लॉक स्तर पर, जिला स्तर पर होती थी। अब सारे टूर्नामेंट बंद हो गए हैं और विद्यालयों में खेलकूद भी बंद है यहाँ तक कि नियमित पी.टी. भी नहीं होती।
बच्चों को भोजन देने के बजाय अपने देश की पुरातन परंपरा को अपनाना होगा। जिसमें गाँव का मुखिया रात में जब सुनिश्चित कर लेता था की सब ने भोजन कर लिया तब वह भोजन खुद करता था। क्या हमारी सरकार, हमारे पंचायती अधिकारी ऐसा कर पाएंगे? यदि नहीं तो फिर खैरात की संस्कृति विकसित करने का कोई लाभ नहीं होगा और राष्ट्र निर्माण में 10 प्रतिशत से कम बजट शिक्षा के लिए देना पर्याप्त नहीं होगा। इसलिए आवश्यकता समग्र रूप से अपनी सनातन और पुरातन व्यवस्थाओं को ध्यान में रखते हुए, आज की टेक्नोलॉजी के विकास को ध्यान में रखते हुए शिक्षा और शिक्षण संस्थानों की व्यवस्था बनाने की है। तब शायद बेहतर शैक्षिक वातावरण बनेगा।