अगर अब भी न ध्यान दिया तो धरती से खत्म हो जाएंगे प्रकृति के नन्हे सिपाही: डंग बीटल

गाँव, जंगल या खेत में गोबर को लुढ़काते दिखने वाले ये साधारण कीट असल में पर्यावरण के नायकों में से हैं। Dung Beetle, जिन्हें गुबरैला भी कहा जाता है, न सिर्फ मिट्टी की उर्वरता बढ़ाते हैं बल्कि ग्रीनहाउस गैसों को कम करने में भी मदद करते हैं। भारत में इनकी सैकड़ों प्रजातियाँ हैं, लेकिन शहरीकरण, रसायनों के बढ़ते उपयोग और जलवायु परिवर्तन के कारण इनकी संख्या घटती जा रही है।
Dung Beetle

गोबर की गेंद को इधर-उधर लुढ़काते ये कीट देखने में तो साधारण से दिखते हैं; आपने भी इसे गाँव, खेतों और जंगलों में देखा होगा, लेकिन जलवायु परिवर्तन के इस दौर में ये छोटे कीट किसी हीरो से कम नहीं होते हैं। 

ये हैं Dung Beetle, जिन्हें हम गुबरैला के नाम से जानते हैं, छोटे आकार के बावजूद पारिस्थितिकी तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे गोबर को जमीन में दबाकर न केवल मिट्टी की उर्वरता बढ़ाते हैं, बल्कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने में भी मदद करते हैं।

कभी सोचा है कि दुनिया में पालतू के साथ जंगलों में रहने वाले जानवरों की भी लाखों प्रजातियाँ पाईं जाती हैं, जिनसे हर दिन हज़ारों टन गोबर निकलता है; अगर ये कीट न होते तो उनका क्या होता? 

नेशनल जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व निदेशक डॉ अशोक चंद्र पिछले चार दशक से इन कीटों पर शोध कर रहे हैं, गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “ये बीटल बहुत रोचक होते हैं क्योंकि इसे हम अधिकतर गोबर के साथ देखते हैं। इनकी कुछ प्रजातियां बाल बना कर गोबर को रोल करती हैं, कुछ गोबर में ही गड्ढा बनाती हैं। इस ग्रुप में करीब 2000 से अधिक प्रजातियां हैं। अलग-अलग जगह, जैसे खेत, जंगल, हाथी के डंग, आदि में अलग-अलग स्पीशीज पाई जाती हैं।”

भारत में पशुपालन भी ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) के उत्सर्जन का एक बड़ा स्रोत भी बनता जा रहा है। दूध देने वाली भैंसें और देशी गायें, जो कुल मीथेन उत्सर्जन का 60% योगदान करती हैं।

हाल की कई रिसर्च में यह बात सामने आई है कि डंग बीटल्स — यानी गोबर खाने वाले कीट — गोबर से निकलने वाली इन गैसों को कम करने में मदद कर सकते हैं।

भारत में हैं इनकी सैकड़ों प्रजातियाँ 

भारत में गोबर बीटल्स की लगभग 500 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से 130 अकेले तो बेंगलुरु में दर्ज की गई हैं। हाल ही में, अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (ATREE) के वैज्ञानिकों ने हेसरघट्टा घासभूमि में गोबर बीटल की एक नई प्रजाति ‘Onitis visthara‘ की खोज की है। यह खोज घासभूमि पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण की ज़रूरत को दर्शाती है। 

इसके अलावा, मेघालय के नोंगखाइल्लेम वन्यजीव अभयारण्य में ‘Onitis bordati‘ नामक एक अन्य नई प्रजाति की खोज की गई है, जो पहले वियतनाम और थाईलैंड में पाई जाती थी। यह खोज पूर्वोत्तर भारत की जैव विविधता की समृद्धि को उजागर करती है। 

दुनिया भर में हो रहा डंग बीटल पर शोध 

दुनिया भर में गोबर बीटल्स की 5,000 से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं। ब्रिटेन में ‘मिनोटौर बीटल‘ नामक प्रजाति पाई जाती है, जो अपने तीन सींगों के लिए जानी जाती है। ये बीटल्स गोबर को जमीन में दबाकर मिट्टी की उर्वरता बढ़ाते हैं और बीजों के प्रसार में मदद करते हैं। 

हालांकि, कृषि में कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग के कारण इनकी संख्या में कमी आ रही है। 

दक्षिण अमेरिका के घासभूमि क्षेत्रों में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि जलवायु परिवर्तन के कारण गोबर बीटल्स की वितरण सीमा में कमी आ रही है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं में गिरावट हो सकती है। 

इन Green Heros के सामने हैं कई मुश्किलें 

बढ़ते शहरीकरण और कंक्रीट के जंगल और कीटनाशकों के बढ़ते इस्तेमाल के कारण गोबर बीटल्स के आवास नष्ट हो रहे हैं। इसके अलावा, पशुओं को दिए जाने वाले एंटी-पैरासाइटिक दवाओं के अवशेष गोबर में मौजूद होते हैं, जो गोबर बीटल्स के लिए हानिकारक हैं। 

डॉ अशोक चंद्र बताते हैं, “अगर हम 40 साल पहले की बात करें, तो उस समय डंग बीटल्स की संख्या बहुत अधिक थी। उस समय खेतों में पेस्टीसाइड्स, इनसेक्टिसाइड्स और अन्य रसायनों का प्रयोग बहुत कम होता था। लोग खेतों में पैदल जाते थे, बैल से हल चलाते थे, घास काटते थे, एक जीवंत जैविक तंत्र था, जिसमें डंक बीटल्स की महत्वपूर्ण भूमिका थी।

“अब समय बदल गया है। अब ट्रैक्टरों और मशीनों का युग है। बैल और हल अब शायद ही दिखते हैं। खेतों में पैदल जाना भी कम हो गया है। इस वजह से प्राकृतिक खुदाई, गोबर का विघटन और जैविक खाद बनाने की प्रक्रिया प्रभावित हुई है। इसके कारण डंक बीटल्स की संख्या में भारी कमी आई है, “डॉ अशोक ने आगे कहा। 

जबकि सच्चाई यह है कि ये कीट किसानों के लिए बहुत लाभकारी होते हैं। ये खेत की मिट्टी को उलट-पलट कर प्राकृतिक जुताई करते हैं, गोबर को डीकंपोज कर खाद में बदलते हैं, और खेतों में कई प्रकार की बीमारियों को रोकने में मदद करते हैं। जब गोबर प्राकृतिक रूप से मिट्टी में मिलता था, तो यह धीरे-धीरे सड़कर एक उत्कृष्ट जैविक खाद में बदल जाता था। 

सदियों पुराना है इनका इतिहास 

प्राचीन मिस्र में डंग बीटल, जिसे Scarab Beetle कहा जाता था, को पवित्र और आध्यात्मिक प्रतीक माना जाता था। मिस्रवासियों ने देखा कि यह कीट गोबर के गोले को लुढ़काता है, और इसी प्रक्रिया को उन्होंने सूर्य देवता रा (Ra) से जोड़ा—जैसे डंग बीटल गोले को घुमाता है, वैसे ही रा प्रतिदिन सूर्य को आकाश में लुढ़काते हैं।

इसके अलावा, जब उन्होंने देखा कि बीटल अपने अंडे गोबर के भीतर देता है और वहीं से नया जीवन उत्पन्न होता है, तो उन्हें यह पुनर्जन्म और आत्मिक पुनरुत्थान का प्रतीक लगा। 

इनको बचाने के लिए अभी बहुत कुछ कर सकते हैं 

डंग बीटल्स के संरक्षण के लिए उनके आवासों की सुरक्षा, कीटनाशकों के उपयोग में कमी, और जैव विविधता को बढ़ावा देने वाले कृषि पद्धतियों को अपनाना आवश्यक है। इसके अलावा, स्थानीय समुदायों को इनके महत्व के बारे में जागरूक करना और संरक्षण प्रयासों में शामिल करना भी महत्वपूर्ण है। 

डॉ अशोक विदेशों में हो रहे डंग बीटल पर हो रहे शोध पर बताते हैं, “ऑस्ट्रेलिया और अन्य कई देशों में डंक बीटल्स का कल्चर (संवर्धन) और ब्रीडिंग करके उन्हें खेतों में छोड़ा गया था। उनका एक बड़ा प्रोजेक्ट चला था, जिसमें अंडों से कोकून, फिर लार्वा, और अंत में वयस्क बनाए गए। भारत में ऐसा कोई बड़ा प्रयास अब तक नहीं हुआ है, जबकि इसकी अत्यंत आवश्यकता है। यदि सरकार इस दिशा में कोई नीति बनाए, तो यह किसानों और वनों दोनों के लिए अत्यंत लाभकारी होगा।”

ये बीटल छोटे होते हुए भी पारिस्थितिकी तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने, और बीजों के प्रसार में मदद करते हैं।लेकिन, शहरीकरण, कृषि रसायनों के बढ़ते इस्तेमाल, और जलवायु परिवर्तन के कारण इनकी संख्या में गिरावट आ रही है। 

इनके संरक्षण की ज़रूरत है, ताकि वे अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाओं को निभाते रहें और पारिस्थितिकी तंत्र संतुलित बना रहे।

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