सवाल राजतंत्र-प्रजातंत्र का नहीं है, जन कल्याण की गारंटी का है

अब तीसरा मौका है जब दो पार्टियाँ बन सकती हैं, लेकिन नेता कौन होगा, इस विषय को लेकर बात नहीं बन पाएंगी, यह पक्का लग रहा है। विदेश में अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस और दुनिया भर के तमाम प्रजातांत्रिक देशों में व्यक्तिगत अहंकार आड़े नहीं आता, केवल सिद्धांत आपस में जोड़ता है।

संसद के नए भवन में 18वीं लोकसभा के गठन के साथ ही एक ऐसे राष्ट्रीय विवाद में हमारे प्रतिनिधि उलझ गए हैं कि न्याय की प्रतीक राजा की छड़ी को अध्यक्ष के पीछे रखा जा सकता है या नहीं। विपक्ष का कहना है कि संविधान की कॉपी बड़ी सी रखी जानी चाहिए लेकिन कौन सा संविधान? वही जिसको 100 से अधिक बार संशोधित किया जा चुका है या फिर वह संविधान जिसे डॉक्टर अंबेडकर ने बनाया था। वास्तव में संविधान की तुलना, बाइबल या कुरान शरीफ से करना मूर्खतापूर्ण बात होगी, क्योंकि संविधान का उद्देश्य है, शासन को सुचारू रूप से चलाना और समय तथा परिस्थिति के हिसाब से उसमें परिवर्तन करते रहना। जो राजा की छड़ी रखी गई है उसे नहीं बदला जा सकता जैसे अशोक की लाट को नहीं बदला जा सकता है यह प्रतीक है, शासन चलाने का और यह प्रतीक हमें अपने कर्तव्यों को हर समय याद दिलाते हैं।

यदि कोई प्रतीक हमें बराबर याद दिलाता रहे की हमारा शासन न्याय पूर्ण होना चाहिए तो फिर उसमें राजतंत्र, प्रजातंत्र, साम्यवाद या अधिनायकवाद का सवाल नहीं है, सवाल है, न्याय पूर्ण शासन का, उस प्रतीक की कोई गलती नहीं है। हमें प्रजातंत्र चाहिए लेकिन क्या ऐसा कि वह हर समय सांसदों को झगड़ते रहने के लिए प्रेरित करें या ऐसा प्रजातंत्र जो प्रजा की समस्याओं पर चर्चा करें और शासक दल को उन पर काम करने के लिए बाध्य करें। कितना अच्छा होता कि यह सांसद सीधे देश की समस्याओं पर या फिर उससे निजात पाने के उपायों पर चर्चा आरंभ करते । इसके बदले विपक्षी सांसद प्रधानमंत्री के भाषण के समय उनकी बराबर हूटिंग करते रहे यह अनुचित और अनावश्यक था क्यों कि ऐसा करने के लिए जनता ने उन्हें नहीं भेजा है।

हमें ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी तंत्र अपने में अच्छा या बुरा नहीं होता उसे अच्छा या बुरा मनुष्य बनाते हैं । यदि प्रजातंत्र को मजबूत और सार्थक बनाना हो तो इन सभी विपक्षी पार्टियों को एक दल के रूप में आ जाना चाहिए जैसे स्वस्थ प्रजातांत्रिक देश में होता है । लेकिन ऐसा प्रयास किया ही नहीं गया कि देश में दो पार्टी सिस्टम बन पाए और स्वस्थ प्रजातंत्र स्थापित हो। जब हमारे देश में आजादी की लड़ाई चल रही थी तो सिद्धांतों का एक साथ आना हो गया था और उन सब का एक ही लक्ष्य था अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकना। लेकिन तब भी अपने-अपने कुछ सिद्धांत तो थे ही जैसे नेहरू जी समाजवाद में विश्वास करते थे और नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी उन्हीं आर्थिक नीतियों को मानते थे, लेकिन गांधी जी सनातन विचार वाले और रघुपति राघव राजा राम में विश्वास करने वाले थे। नेहरू जी ने नेताजी के बजाय गांधी जी के साथ रहना बेहतर समझा था, भले ही सिद्धांत पूरी तरह मेल नहीं खाते थे। यहीं पर मोहम्मद अली जिन्ना जो इंग्लैंड में नेहरू जी की ही तरह पढ़ लिख कर भारत आए थे, सेकुलर वादी विचारों को लेकर, परंतु गांधी जी का चिंतन उनकी समझ में नहीं आया और गांधी जी के विचारों को उन्होंने सेक्युलर नहीं माना। जिन्ना नेहरू के बीच में विचारों की खाई बढ़ती गई ।

आजाद भारत के प्रारम्भिक दिनों में समाजवादी सोच के बहुत से लोग थे और उन सबको स्वाभाविक रूप से एक साथ रहना चाहिए था परंतु ऐसा हुआ नहीं। नेहरू जी की ही तरह जयप्रकाश नारायण, अशोक मेहता, जेबी कृपलानी और न जाने कितने ही समाजवादी, आजादी की लड़ाई में गांधी जी के साथ जुटे रहे। आजादी के बाद जयप्रकाश जी ने विनोबा भावे के साथ मिलकर भूदान यज्ञ में शामिल होना बेहतर समाजवादी रास्ता समझा। ज्यादा जमीन वालों से जमीन मांग कर भूमिहीनों में बांटना, यह विनोबा जी की सोच थी, जो जयप्रकाश जी को भी पसंद आ गया। लेकिन बाकी तमाम समाजवादी आजादी के बाद सरकार में रहे या सरकार से अलग रहे हो, सबने अपना अपना रास्ता पकड़ लिया, आखिर सबकी तो मंजिल एक ही थी, देश को समाजवादी रास्ते पर चलाकर उसे प्रगतिशील बनाना। इस समय जो विपक्षी लोग सरकार का विरोध कर रहे हैं वह किसी सैद्धांतिक आधार पर नहीं है, क्योंकि इसमें कम्युनिस्ट भी हैं, सोशलिस्ट भी है और ऐसे दूसरे लोग जो कांग्रेस से हमेशा लड़ते रहे हैं, वह भी हैं। लगभग यही हालत सत्ता पक्ष की भी है वहाँ भी परस्पर विरोधी विचारों के लोग इकट्ठे हुए हैं। इस चुनाव में विरोधी या विपक्षी लोगों के सामने एक ही लक्ष्य था मोदी हटाओ। उनका इससे कोई मतलब नहीं था, कि मोदी हटाने के बाद क्या होगा कौन सरकार बनेगी, किस विचारधारा की सरकार होगी और यदि कांग्रेस की ही सरकार बनानी है तो इतने पिछले सालों से क्यों नहीं बनी ।

70 के दशक में एक बार ऐसा अवसर आया था की दो पार्टी सिस्टम बन सकता था लेकिन तब भी नहीं बना। जब इंदिरा जी ने देश पर आपातकाल लगाया और जयप्रकाश जी ने तमाम विपक्षी दलों को इकट्ठा करके इसका विरोध किया, तो ऐसा लगा था कि दो पार्टियाँ बन जाएँगी, एक कांग्रेस और दूसरी जनता पार्टी। जनता पार्टी कुछ दिनों तक चली भी लेकिन उससे टूट कर चौधरी चरण सिंह कांग्रेस के साथ हो लिए जिसकी खिलाफत वह और बाकी लोग कर रहे थे । इतना ही नहीं जब आपातकाल समाप्त हुआ और जनता पार्टी भी टूट गई तो वह तमाम पार्टियाँ जो जनता पार्टी के रूप में इकट्ठी हुई थी फिर से तितर-बितर हो गई। उनके बीच में सिद्धांत का कोई बंधन नहीं था बल्कि एक नेता जयप्रकाश जी इधर और एक नेता इंदिरा जी उधर पर फिर भी दो पार्टी सिस्टम नहीं बना, शायद इसीलिए कहा गया है ‘’मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना यह हमारे देश के राजनेताओं पर पूरी तरह लागू होता है।

अब तीसरा मौका है जब दो पार्टियाँ बन सकती हैं, लेकिन नेता कौन होगा, इस विषय को लेकर बात नहीं बन पाएंगी, यह पक्का लग रहा है। विदेश में अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस और दुनिया भर के तमाम प्रजातांत्रिक देशों में व्यक्तिगत अहंकार आड़े नहीं आता, केवल सिद्धांत आपस में जोड़ता है। जैसे रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी उनके अंदर ऐसे लोग हैं जो भिन्न विचार रखते हैं, फिर भी सिद्धांत के नाम पर, नीतियों के नाम पर बिखरते नहीं। आजादी के बाद गांधी जी ने इतना कहा तो जरूर था, कि अब कांग्रेस को समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि इसका उद्देश्य था आजादी पाना और वह पूरा हो गया है। उस समय राजगोपालाचारी, वल्लभभाई पटेल, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन और यदि कहूं तो विनायक दामोदर सावरकर और डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि अनेक नेता एक मंच पर आ सकते थे और एक दक्षिणपंथी पार्टी बना सकते थे। शायद यदि गांधी जी को समय मिला होता तो वह यह काम भी कर देते लेकिन भाग्य ने उन्हें हमसे छीन लिया। गांधीवादी सोच से दूर जाने का साहस केवल नेताजी सुभाष चंद्र बोस को हुआ था, लेकिन परिस्थितियों ने और यहाँ तक कि देश के लोगों ने उनका साथ नहीं दिया अन्यथा वे एक पार्टी; राष्ट्रवादी और समाजवादी सोच को मिलकर बना सकते थे। लेकिन उनके बाद भी एक पार्टी नेहरू जी के नेतृत्व में समाजवाद को लेकर और दूसरी वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में राष्ट्रवाद और दक्षिण पंथ के मार्ग पर चल सकती थी और संभवतः इसी दक्षिणपंथी पार्टी में डॉक्टर अंबेडकर भी शामिल होना पसंद करते। मगर वल्लभभाई पटेल का स्वास्थ्य और असामयिक निधन इसके लिए बाधक बन गया और दो पार्टी सिस्टम एक सपना ही रह गया।

तब प्रजातंत्र हमारे देश में कभी भी स्वस्थ रूप से दूसरे देशों की भाँति कैसे चल पाएगा? हमारे यहाँ राजतंत्र तो अनेक बार कामयाब हुआ है; चाहे राम राज्य की बात कहें, अशोक की, हर्षवर्धन विक्रमादित्य अथवा दूसरे अनेक राजा, जिन्होंने प्रजा के हितों की रक्षा की थी और वह एक वैकल्पिक सिस्टम था। आज की परिभाषा में जनमत का महत्व माना गया है और सही कहें तो सनातन सच में भी हर व्यक्ति को ईश्वर अंश जीव अविनाशी मानते हुए समाज को ईश्वर का रूप माना गया है। इसलिए समाज के द्वारा चलाई जाने वाली व्यवस्था प्रजातंत्र ही हो सकती है फिर चाहे वह दलगत हो या सर्वदलीय हो।

दुनिया के तमाम साम्यवादी देशों में कुछ गिने-चुने लोगों का ग्रुप होता है जो शासन करता है, फिर चाहे वह रूस ,चीन, क्यूबा या अन्य कोई कम्युनिस्ट देश हो। इस व्यवस्था में आम आदमी को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं होता, वह किसी मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। कई अच्छे लेखक सोवियत संघ रूस से देश इसलिए छोड़कर भाग गए थे, क्योंकि उनके विचार सरकार को बर्दाश्त नहीं थे। प्रजातंत्र को आदर्श व्यवस्था माना जाता है, लेकिन प्रजातंत्र में जन कल्याण पर भी आम सहमति न होने पर संसद में मारपीट तथा कुर्सियों चलने लगती है  कार्यवाही में, हो हल्ला करना, बाधा डालना, चर्चा न होने देना, यह आदर्श व्यवस्था नहीं कहीं जा सकती।

नेहरू जी के मित्र दुनिया भर में थे, जैसे यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो, घाना के क्वामेनक्रूमा , मिश्र के अब्दुल गमाल नासिर, इंडोनेशिया के सुकर्णो और ऐसे ही अनेक लोग जो प्रजातांत्रिक व्यवस्था के बजाय, एकाधिकार संपन्न व्यवस्था चलाते थे। इनमें से बहुतों ने अपने देश के लिए अनेक अच्छे काम भी किए थे। यदि अच्छा हो! तो राजतंत्र अच्छा है, एकाधिकार व्यवस्था ठीक है, और प्रजातंत्र तो ठीक है ही, लेकिन यदि उसे चलाने वाले लोग ही ठीक नहीं है, तो जन कल्याण नहीं होता।

18वीं संसद का आरंभ जिस तरह हुआ है और चल रहा है उससे तो कम ही आशाएं हैं कि जनकल्याण के नियम बनाए जा सकेंगे, और विधि-विधान से संसद चल पाएगी। जनता अपने सांसदों को अनेक अपेक्षाओं के साथ संसद भेजती है और अंततः उपेक्षा ही मिलती है। यदि हमारे देश में स्वस्थ प्रजातंत्र की स्थापना होनी है, तो दो या तीन से अधिक राजनीतिक दल नहीं होने चाहिए। इस प्रकार की व्यवस्था पश्चिमी देशों में है जहाँ दो या तीन राजनीतिक दल होते हैं और हमारे देश में भी जयप्रकाश नारायण ने 1975 में ईमानदार कोशिश की थी कि, दो पार्टी सिस्टम बन जाए लेकिन स्वार्थ के कारण सभी पार्टियाँ एक होने के बाद फिर से बिछुड़ गयीं। अब यदि सचमुच देश में मोदी शासन का विरोध करना चाहते हैं, तो इन सभी लोगों को अपने झंडे-डंडे किनारे रख कर एक राजनीतिक दल जिसका एक सिद्धांत हो, बनाना चाहिए। स्वार्थ वस अगर इकट्ठे होंगे तो 1978 की भाँति फिर से बिखर जाएंगे और दिशा हीन प्रयास करते रहेंगे और किसी मंजिल पर नहीं पहुंच पाएंगे।

Recent Posts



More Posts

popular Posts