उत्तराखंड में तेज़ी से फैलने लगी है सख़्त भू-कानून की मांग, युवाओं ने सोशल मीडिया को बनाया माध्यम

उत्तराखंड के हजारों युवा और कई सामाजिक संगठन चाहते हैं कि हिमाचल प्रदेश के Himanchal Land Act जैसा सख्त भू-कानून उत्तराखंड में भी बने ताकि राज्य में बाहरी लोग जमीन न खरीद सकें।
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बीते महीने हिमालयी राज्य उत्तराखंड में पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर प्रदेश के युवाओं द्वारा तेज़ी से सोशल मीडिया विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर शुरू हुई #उत्तराखंड_मांगे_भू_कानून की मांग अब ज़मीन पर भी दिखने लगी है। रविवार राजधानी देहरादून के विभिन्न चौक-चौराहों व विधानसभा के बाहर पर भारी संख्याबल में युवाओं ने हाथों में तख्तियां, पोस्टर व बैनर लेकर राज्य सरकार व भाजपा के नवघोषित मुख्यमंत्री पुष्कर धामी से राज्य में जल्द कठोर भू-कानून लाने कि अपील की।

प्रदर्शन में शामिल युवा मनीष रतूड़ी कहते हैं, “राज्य के नवनिर्वाचित सीएम युवा हैं और उन्हें राज्य की बेहतरी के लिए युवाओं की निःस्वार्थ मांग पर गौर करना चाहिए, हम सिर्फ अपनी देवभूमि की अस्मिता और संस्कृति को बचाने के लिए एक कठोर भू-कानून की मांग कर रहे है।”

वहीं प्रदर्शन में शामिल अन्य युवा आशीष नौटियाल राज्य सरकार को चेतावनी देते हुए आगे कहते हैं, “प्रदेश सरकार युवाओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए उत्तराखंड में कानून लागू करे अन्यथा, आगामी 2022 विधानसभा चुनावों में परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें।”

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रविवार को देहरादून में प्रदर्शन करते युवा।

क्या उत्तराखंड में पहले से है ज़मीन खरीद-फ़रोख़्त में आज़ादी?

9 नवंबर 2000 को पहाड़ी जनता के लंबे दशकों से आंदोलन को उस दिन सफलता मिली जब उत्तर प्रदेश से अलग पृथक राज्य की मांग कर रहे आंदोलनकारियों को नवराज्य उत्तराखंड के रूप में भारतीय मानचित्र में अपनी अलग संस्कृति, बोली-भाषा के दम पर राज्य घोषित किया गया। हालांकि, राज्य बनने के बाद अब राज्य आंदोलनकारियों सहित प्रदेश के कई बुद्धिजीवियों को अब अपनी ज़मीन भू-माफिया के हाथों में जाकर संस्कृति पर खतरे का भय मंडराने लगा।

वहीं प्रदेश में बड़े पैमाने पर हो रही कृषि भूमि की खरीद फ़रोख़्त, अकृषि कार्यों और मुनाफ़ाख़ोरी की शिकायतों पर वर्ष 2002 के दौरान प्रदेश में बनी प्रथम निर्वाचित कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री दिवंगत एन.डी तिवारी द्वारा संज्ञान लेते हुए वर्ष 2003 में ‘उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम,1950’ में कई बंदिशें लगाई गईं जिसके बाद किसी भी गैर-कृषक बाहरी व्यक्तियों के लिए प्रदेश में भूमि खरीद की सीमा 500 वर्ग मीटर की गयी। इसके बाद वर्ष 2007 में बनी प्रदेश की दूसरी निर्वाचित भाजपा सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.सी. खंडूरी ने अपने कार्यकाल में पूर्व में घोषित सीमा को आधा कर 250 वर्ग मीटर कर दिया। हालांकि ये सीमा नगरीय क्षेत्रों में लागू नहीं थी।

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वर्ष 2018 में हुआ बड़ा बदलाव

वर्ष 2017 में घटित विधानसभा चुनावों में प्रदेश की जनता ने भारी बहुमत से एक बार फ़िर भाजपा सरकार को सत्ता सौंपी, जिसमे 57 विधायकों वाली पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत सरकार ने 04-06 दिसंबर 2018 को उत्तराखंड की विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दौरान ‘उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम,1950 में संशोधन का नया विधेयक पारित करवाया, जिसने भू-कानून के ताबूत में आखिरकार आखिरी कील ठोकने का काम कर दिया।

गौरतलब है, इस संशोधन के तहत उक्त विधेयक में धारा 143(क) जोड़ कर यह प्रावधान कर दिया गया कि अब औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमिधर स्वयं भूमि बेचे या फिर उससे कोई भूमि क्रय करे तो इस भूमि को अकृषि करवाने के लिए अलग से कोई प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ेगी। औद्योगिक प्रयोजन के लिए खरीदे जाते ही उसका भू उपयोग स्वतः बादल जाएगा और वह अकृषि या गैर कृषि हो जाएगा। इसके साथ ही उक्त अधिनियम में धारा 154(2) जोड़ी गयी, जिससे कि यानी अब यानी पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया गया। अब कोई भी राज्य में कहीं भी भूमि खरीद सकता है. साथ ही इसमें उत्तराखंड के मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंहनगर में भूमि की हदबंदी (सीलिंग) खत्म कर दी गई। इन जिलों में तय सीमा से अधिक भूमि खरीदी या बेची जा सकेगी।

बतादें, सदन में इस विधेयक के विरोध में सरकार द्वारा पहाड़ों की भूमि को बेचने की बुरी मंशा पर सवाल उठाते हुए कांग्रेस से केदारनाथ विधानसभा विधायक मनोज रावत के जवाब ने तत्कालीन दिवंगत कैबिनेट मंत्री प्रकाश पंत ने कहा था, “पर्वतीय क्षेत्रों में रोज़गार नहीं मिल पा रहा है, रोज़गार केवल इंडस्ट्री के माध्यम से आ सकता है, उनको लाने में हमे कुछ प्रबंध करना होगा। रोज़गार के लिए इंडस्ट्री 250 वर्ग मीटर में कैसे लगेगी? हमें प्रबंध करना होगा। रोज़गार लगाएंगे तो स्कूल खुलेंगे, हेल्थ टूरिज़्म लगेगा इसके साथ ही हमारे यहां पलायन रुकेगा। यह तभी संभव है जब हम उनको कुछ सुविधाएं देंगे।”

वहीं भाकपा (माले) के नेता इंद्रेश मैखुरी सरकारी पक्ष के इस तर्क के जवाब में सवाल उठाते हुए गांव कन्नेक्शन से कहते है, “भाजपा सरकार वही रटा-रटाया तर्क देती है कि पूंजी निवेश के लिए भूमि खरीद संबंधी कानून बदले गए। जबकि ऐसा कोई अबतक इन्वेस्टर्स समिट से इतना बड़ा कोई निवेश नहीं आया। जिस निवेश के नाम पर ज़मीनों की खुली बिक्री के कानूनों को उचित ठहराने की कोशिश की जा रही है, अगर वह भी नहीं हो रहा है तो प्रश्न यह है कि ये ज़मीनों की खुली बिक्री के कानून बना कर सरकार किसका हित साधना चाहती है? कहीं ज़मीनों की खुली, बेरोकटोक बिक्री जमीन के सौदागरों और बड़े भू भक्षियों के चांदी काटने की राह आसान करने के लिए तो नहीं है?”

विपक्ष भी कर रहा भू-कानून की मांग

2018 में सदन की कार्यवाही के दौरान विधेयक का विरोध करने वाले विपक्षी दल से केदारनाथ विधानसभा के कांग्रेसी विधायक मनोज रावत गांव कन्नेक्शन से कहते हैं, “मैं सभी युवाओं का आभार प्रकट करता हूं, उन्होंने चाहे देर से सही लेकिन कठोर भू-कानून की मांग को सोशल मीडिया के माध्यम से जगाने का काम किया है। जो कि भाजपा सरकार की गलतियों को बेपर्दा करता है।”

मनोज रावत आगे कहते हैं, “तत्कालीन त्रिवेंद्र सरकार ने सदन में प्रदेश में नए विधेयक के आने से बड़े पूंजी-निवेश के दावे किए थे। मैं सरकार से मांग करता हूँ कि कम-से-कम वे व्हाइट पेपर तो जारी करे कि भूमि-कानून में खुली छूट से प्रदेश में अबतक कितना निवेश आया और इससे पलायन जैसे गंभीर मुद्दे पर कितनी सफलता मिली।”

उधर विपक्ष भी अब लगातार युवाओं की मांग में सुर मिलाते हुए प्रदेश सरकार पर हमलावर है। कई मीडिया साक्षात्कार में भू-कानून पर अपना समर्थन जता चुके प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व कद्दावर कांग्रेस नेता हरीश रावत भी सोशल मीडिया पोस्ट के ज़रिए 2022 विधानसभा चुनावों में जाने से पहले इस मुद्दे को हवा देने की ओर इशारा कर चुके है। वही कांग्रेस के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष व वनाधिकार आन्दोलन के प्रणेता किशोर उपाध्याय गांव कनेक्शन से इसी मुद्दे पर कुछ अन्य अहम बिंदुओं को जोड़ते हुए कहते हैं, “हमारे पास उत्तराखंड में अभी कृषि भूमि का रकबा लगभग 9 प्रतिशत है और जो प्रदेश में हम मांग बीते कुछ वर्षो से वनाधिकार कानून को लागू करने की मांग कर रहे हैं वह भी भू-कानून का एक अभिन्न हिस्सा है।”

किशोर उपाध्याय आगे कहते हैं, “देखे प्रदेश के युवा 9 प्रतिशत भूमि को बचाने की मांग कर रहे हैं, जबकि हम यह चाहते हैं कि बची हुई 91 प्रतिशत भूमि भी तो हमारी है। उसपर हमें मुआवज़ा मिले व उसपर हमारा अधिकार हो। आखिर जल, जंगल, ज़मीन पर अधिकार प्रदेश की जनता का है। उत्तराखंड में 72 फीसदी वन भूमि है, लेकिन उत्तराखंडियों को Forest Dwellers नहीं माना जा रहा है। हमारी मांग है प्रदेश में वनाधिकार कानून सख्ती से लागू हो, भू-कानून स्वयं सख़्त हो जाएगा।”

इसके इतर ट्विटर से सोशल मीडिया पर भू-कानून की मुहिम को जनांदोलन बनाने वाले युवाओं में शामिल पौड़ी गढ़वाल स्थित युवा विपिन घिल्डियाल गांव कन्नेक्शन से कहते हैं, “प्रदेश के नागरिकों की आर्थिकी को बेहतर व सुधारने के लिए भू-कानून महज़ एक बिंदु है, जिससे भू-माफिया के बुरे इरादों पर ज़रूर रोक लगेगी लेकिन राज्य के नागरिकों को इससे ज़्यादा कुछ हासिल नहीं हो पाएगा।” साथ ही विपिन मुहीम को विस्तार से समझाते हुए आगे कहते है, “देखिए जब हमने इस ट्रेंड व मुहिम की शुरुआत की तो हमारा प्रयास पहाड़ी किसानों की आर्थिकी सुदृढ़ बनाने का लक्ष्य था। जिसमे न केवल भू-कानून बल्कि चकबंदी, कृषि-बागवानी की नई निति को संयुक्त रूप से व मज़बूत बनाने का लक्ष्य शामिल है, क्यूंकि जबतक कृषि भूमि की नीतियां हमारे यानी पहाड़ी किसानों के पक्ष में नहीं होगी तबतक प्रदेश की वर्षों से बानी हुई गंभीर समस्या पर भी रोक नहीं लगेगी।”

क्या कहता है हिमाचल प्रदेश का भू-कानून?

प्रदेश के युवा सोशल मीडिया पर लगातार पडोसी राज्य हिमाचल प्रदेश को मॉडल बनाकर राज्य सरकार से भू-कानून में बदलाव की मांग कर रहे है। आपको बता दें, 1971 में अस्तित्व में आए पडोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में कानूनी प्रावधानों के चलते कृषि भूमि की खरीद-फ़रोख़्त लगभग नामुमकिन है। हिमाचल प्रदेश टिनैन्सी एंड लैंड रिफार्म एक्ट 1972 की धारा 118 में यह प्रावधान है कि कोई भी जमीन जो कि कृषि भूमि को किसी गैर कृषि कार्य के लिए नहीं बेची जा सकती। धोखे से यदि बेच दी जाये तो जांच के उपरांत यह जमीन सरकार में निहित हो जाएगा। साथ ही गैर हिमाचली नागरिक को यहां जमीन खरीदने की इजाजत नहीं, हालांकि कमर्शियल प्रयोग के लिए आप जमीन किराए पे ले सकते हैं।

क्या कहते हैं प्रदेश के प्रबुद्धजन

मशहूर पर्यावरणविद व पद्मश्री सम्मानित डॉ अनिल जोशी युवाओं द्वारा सोशल मीडिया पर शुरू हुई भू-कानून की मांग पर गांव कन्नेक्शन से कहते हैं, “हिमालयी राज्य उत्तराखंड का पारिस्थतिकी व पर्यावरणीय तंत्र मैदानी भू-भाग से अलग है जो की बेहद संवेदनशील है और केवल पहाड़वासी ही समझ सकते हैं, लेकिन वर्तमान में जिस तरह से भू-माफिया व कई धनाढ्यों ने राज्य की भू को धंधा बना दिया है। वह कही-न-कहीं जाकर विध्वंसकारी साबित होगा या हो भी रहा है। जिसपर जितना जल्द हो सके लगाम लगने की आवश्यकता है।”

डॉ जोशी विस्तार से आगे कहते हैं, “देखिए हमें अन्य किसी राज्यवासियों से दुश्मनी नहीं है, हमारे लोग भी बाहर रहते है। हमारा सभी के लिए राज्य में स्वागत है लेकिन ये भू-माफियाई धंधा बंद हो और संवेदनशील पहाड़ों में धक्कापेल नवनिर्माण बंद हो, जिससे हमारी प्रकृति सुरक्षित रहे। विदित रहे जब ज़मीन, जंगल, पानी बचेगा तभी तो हम भी रहेंगे।”

वही राज्य आंदोलनकारी व उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी मंच के जिलाध्यक्ष प्रदीप कुकरेती गांव कन्नेक्शन से कहते हैं, “देखिए सभी राज्य आंदोलनकारी चाहते हैं जो पहाड़ो की ज़मीने बेचने की साज़िश 2018 में विधेयक लाकर की गई है वो तुरंत वापस हो, साथ ही इससे पहले 250 वर्ग मीटर सीमा का जो कानून लागू था दोबारा उसे ही अमल में लाया जाए।”

प्रदीप कुकरेती आगे कहते हैं, “इसके लिए हमने प्रदेश के नए मुख्यमंत्री पुष्कर धामी से भी मुलाक़ात की है और उन्होंने हमे इसपर प्रदेश के सुरक्षित भविष्य के लिए चर्चा का आस्वाशन दिया है जिससे प्रदेश का भला हो।”

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