नई दिल्ली (इंडिया साइंस वायर)। वैश्विक महामारी कोविड-19 से जुड़ी एक दुखद बात यह है कि इससे ग्रस्त होकर हर दिन सैकड़ों लोगों की मृत्यु हो रही है। कई स्थानों पर तो देखा गया है कि शवदाह-गृहों में अपने परिजनों के अंतिम संस्कार के लिए लोगों को लंबा इंतजार करना पड़ रहा है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), रोपड़ ने एक कंपनी के साथ मिलकर शवदाह के लिए एक ऐसी पद्धति विकसित की है, जिससे शवदाह की अवधि घटकर आधी रह गई है। शवदाह की इस पद्धति को परंपरागत तरीकों की तुलना में ईको-फ्रेंडली एवं किफायती बताया जा रहा है।
आईआईटी रोपड़ के औद्योगिक परामर्श, प्रायोजित अनुसंधान एवं उद्योग संपर्क (आईसीएसआर ऐंड आईआई) विभाग के डीन प्रोफेसर हरप्रीत सिंह ने कुछ वर्षों पहले तक उपयोग में लाए जा रहे विक-स्टोव की तकनीक से प्रेरित होकर यह ईको-फ्रेंडली शवदाह सिस्टम तैयार किया है। विक-स्टोव तकनीक से कुछ वर्ष पहले तक खाना बनाया जाता था। उसमें केरोसीन के साथ हवा के जरिये स्टोव को जलाया जाता था।
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प्रोफेसर हरप्रीत ने बताया कि “धुआं-रहित शवदाह प्रणाली में सहायता के लिए यह अपनी तरह की पहली तकनीक है। इस प्रणाली को तैयार करने में करीब 10 दिन लगे हैं। हमारी कोशिश रही है कि पर्यावरण के अनुकूल होने के साथ यह प्रणाली लोगों के लिए कम खर्च वाला विकल्प साबित हो सके। यह प्रणाली कूलिंग सहित 48 घंटे की सामान्य प्रक्रिया की तुलना में आमतौर पर 12 घंटों के भीतर शवदाह प्रक्रिया को पूरा करने में सक्षम है।” प्रोफेसर हरप्रीत ने इस प्रणाली का नाम ‘नोबल-कॉज’ रखा है।
‘नोबल-कॉज’ शवदाह प्रणाली 1000 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर काम कर सकती है। इसमें स्टेनलेस स्टील इंसुलेशन मौजूद होने से लकड़ी की कम खपत होगी। प्रोफेसर हरप्रीत कहते हैं कि आमतौर पर एक शव को जलाने के लिए लकड़ी पर लगभग 2500 रुपये का खर्च आता है। कई बार गरीब लोगों को यह रकम जुटाने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ता है, और पर्याप्त लकड़ी न उपलब्ध होने के कारण आंशिक रूप से जले शवों को नदियों में बहा दिया जाता है। उन्होंने बताया कि एक शवदाह में 400 किलो से अधिक लकड़ी का उपयोग होता है। जबकि, इस नयी ईको-फ्रेंडली शवदाह प्रणाली में यह खर्च और समय आधा हो जाता है।
‘नोबल-कॉज’ को निर्मित करने वाली कंपनी चीमा बॉयलर्स लिमिटेड के प्रबंध निदेशक हरजिंदर सिंह चीमा ने बताया कि “कोरोना संक्रमण के दौरान कई ऐसी खबरें देखने को मिल रही हैं, जिनमें संसाधनों के अभाव में अंतिम संस्कार भी पूरा नहीं हो पा रहा है। आईआईटी रोपड़ के साथ मिलकर हमने पारंपरिक रूप से शवदाह करने के लिए नयी प्रणाली विकसित की है, जो बेहतर और किफायती सिद्ध हो सकती है। इसकी खास बात यह है कि इसमें पहिए लगे हैं, जिसकी वजह से इसे शहर से लेकर गाँव तक किसी भी कोने में लेकर जाया जा सकता है। इस शवदाह प्रणाली में लकड़ी की खपत आधी हो जाने से इसका खर्च वहन करना आसान हो गया है।”
हरजिंदर सिंह चीमा ने बताया कि “इस प्रणाली के एक प्रोटोटाइप यानी प्रतिरूप को विकसित करने में हमें लगभग 10 लाख रुपये खर्च करने पड़े हैं। लेकिन, हम इसे दो लाख रुपये में मुहैया करा रहे हैं। अपना पहला प्रोटोटाइप क्रेमेशन सिस्टम हमने रोपड़ के जिला प्रशासन को मुहैया कराया है।”
चीमा बॉयलर्स लिमिटेड को बिहार सरकार से दो, दिल्ली से दो और चंडीगढ़ जिला प्रशासन से तीन ईको-फ्रेंडली शवदाह प्रणाली बनाने का आर्डर मिला है। हरजिंदर इस बारे में कहते हैं कि हमारे पास 400 इंजीनियर की टीम है, और हमारी कंपनी बॉयलर निर्मित करती है। इस लिहाज से हमारे पास प्रतिदिन 10 शवदाह प्रणाली बनाने की क्षमता है। इस प्रकार जिस तरह से हमारे पास ऑर्डर आएंगे, उसी अनुसार हम इसे तैयार कर सकते हैं।