“11 अप्रैल को मेरे माता-पिता दोनों की तबीयत खराब हुई, जिन्हें दुबग्गा के एक अस्पताल में किसी तरह भर्ती कराया, 14 को मां की मौत हो गई। पिता का इलाज अब भी जारी है। अब तक दोस्तों और रिश्तेदारों से मांग कर 3 से साढ़े तीन लाख रुपये खर्च कर चुका हूं। अब तो उधारी के डर से रिश्तेदार भी फोन नहीं उठा रहे।” रजनीश गौतम ने फोन पर मायूसी के साथ बताया।
रजनीश (35 वर्ष) उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में रहते हैं। गांव कनेक्शन से पहली बार उनकी बात 22 अप्रैल को हुई, जब वो अपने पिता मातादीन गौतम के लिए ऑक्सीजन का इंतजाम करने के लिए दर-दर भटक रहे थे। रजनीश के मुताबिक महीना भर पहले तक वो लखनऊ के ही संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस में एक सर्जन के यहां नौकरी (अटेंडेट) करते थे, जिसके लिए महीने के 10,000 रुपए मिलते थे। पिता 2011 में रायबरेली की लिमिटेड फर्म से सेवानिवृत्त हुए थे, जो पैसे मिले उससे लखनऊ में हरदोई रोड दुबग्गा पर एक छोटा सा घर बनवा लिया। पेंशन मिलती नहीं थी तो पूरा परिवार रजनीश की कमाई पर निर्भर था। माता- पिता दोनों मधुमेह (डायबिटीज) से पीड़ित थे, उनकी तबीयत बिगड़ने पर रजनीश काम पर नहीं गए।
“अभी हम लोग इतना परेशान हो गए हैं कि कुछ सूझ नहीं रहा है। किसी तरह उधार मांग कर इलाज करा रहा हूं। पिता जी को रेमडेसिविर के 10 इंजेक्शन लग चुके हैं। पिछले कई दिनों से मेरा काम सिर्फ इतना है कि कहीं से पैसे का जुगाड़ करो और ऑक्सीजन का इंतजाम हो। अस्पताल वाले अच्छे हैं मेरा पूरा सहयोग कर रहे हैं।” हताश रजनीश ने थोड़ी तसल्ली के साथ कहा।
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रजनीश के परिवार में अब पिता के अलावा एक बड़ा भाई, उसके दो छोटे बच्चे और छोटी बहन है। “मां अब नहीं रहीं, ये बात हमने पिता जी को नहीं बताई है। भाई की तबीयत भी ठीक नहीं रहती है। अस्पताल में मेरी छोटी बहन रहती है और मैं इधर उधर भटकता हूं।” रजनीश ने आगे कहा।
रजनीश फोन पर बताते हैं, “अस्पताल में जब तक ऑक्सीजन रही कोई दिक्कत नहीं हुई, लेकिन अब रोज सिलेंडर भरवाने पड़ते हैं। अगर 2 लीटर प्रति घंटा पर भी ऑक्सीजन चलाते हैं तो 12 घंटे एक सिलेंडर (बड़ा वाला) चलता है। पिता जी की तबीयत में सुधार है तो डॉक्टर ने कहा है कि एक ऑक्सीजन कंडेनसर का इंतजाम हो जाए तो काफी सहूलियत हो जाएगी, क्योंकि इन्हें अभी कई दिनों तक ऑक्सीजन के सहारे की जरूरत हो सकती है।”
रजनीश की बहन पायल ने गांव कनेक्शन को फोन पर बताया, “मां नहीं रहीं, अब बस कुछ भी करके पापा बच जाएं।”
लखनऊ में 10-11 अप्रैल के बाद से ही ऑक्सीजन की भारी किल्लत शुरू हो गई थी। सरकारी अस्पतालों में बेड नहीं मिल पाने की वजह से बहुत सारे लोगों ने निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम का रुख किया। हालांकि एक बड़ी आबादी उनकी भी है, जिन्हें न सरकारी में बेड मिला और न ही किसी नर्सिंग होम में भर्ती करा पाए। ऐसे कई लोगों ने बिना इलाज के ही दम तोड़ दिया। गांव कनेक्शन को कई लोगों ने फोन पर बताया कि उनके जो परिचित किसी निजी अस्पताल में भर्ती हैं उनका रोजाना का खर्च 20 से 40 हजार रुपये तक का आ रहा है।
अकेले लखनऊ की ही बात करें तो यहां ऑक्सीजन, कोविड से संबंधित दवाएं, ऑक्सीमीटर, काढ़ा, आदि की भारी किल्लत है। एक तीमारदार ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि उसने अपने मरीज के लिए एक रेमडेसिविर इंजेक्शन 30000 रुपये का खरीदा। इतनी ही नहीं जिन कंपनियों के ऑक्सीमीटर 15 दिन पहले तक 1000-1500 रुपये के बीच थे वो अब लखनऊ में 2200 से 3000 के बीच भी मुश्किल से मिल रहे हैं।
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दवा और इलाज के लिए कर्ज़ में डूबने वाले रजनीश अकेले नहीं हैं
किसी अपने को बचाने के लिए उधार मांगने और कर्ज़ के बोझ तले दबने वालों में रजनीश अकेले नहीं है। अस्पताल और दवाओं के बढ़ते कर्ज़ में कई परिवार डूब गए हैं तो कुछ लोग अपने ठीक हो चुके लोगों के लिए पैसों का इंतजाम करने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं।
“मेरा भाई जिस अस्पताल में भर्ती है उसका बिल ही ढाई लाख हो गया है, जबकि मैं दवाओं का भी खर्च पूरा नहीं कर पा रहा। जो परिचित थे, दे सकते थे सबसे पैसा ले चुका हूं।’ दबी सी आवाज में हेमंत शुक्ला (38 वर्ष) गांव कनेक्शन को बताते हैं।
“ढाई लाख सिर्फ अस्पताल का बिल हो गया है और मैं तो रोज की दवाइयों का ही इंतजाम नहीं कर पा रहा”
हेमंत ने हाल में एक व्यक्ति से मदद की गुहार लगाई थी, जिसने उनका नंबर गांव कनेक्शन के साथ साझा किया। हेमंत बताते हैं, “इससे पहले मैं ऑक्सीजन के चक्कर में दो अस्पताल बदल चुका हूं, जिस अस्पताल से यहां (मौजूदा अस्पताल) आया था उसे डेढ़ लाख का बिल देकर आया था। मोटा-मोटा पिछले 15-16 दिनों में 5 लाख के आसपास पैसा खर्च हो चुका होगा, जिसमें से कुछ बचत और बाकी सब उधार है।”
हेमंत का छोटा भाई फिलहाल शहीद पथ पर एक अस्पताल में भर्ती है, उन्हें सीने में इंफेक्शन के अलावा पेशाब में जलन थी और खून आने लगा है, जिसके लिए अलग से जांच हो रही हैं।
मूल रुप से उत्तर प्रदेश में अंबेडकर नगर में रहने वाले हेमंत लखनऊ में एक कंपनी में मार्केटिंग का काम करते हैं। उनके छोटे भाई प्रशांत शुक्ला (35 वर्ष) ट्यूशन पढ़ाता थे। 15 दिन पहले प्रशांत को बुखार आना शुरू हुआ। शुरुआत में घर पर इलाज किया फिर हालात बिगड़ने पर अस्पताल पहुंचे। कोरोना वायरस कितना खतरनाक है और कैसे लोगों का इलाज हो रहे हैं, हेमंत की आपबीती में उसकी भी झलक मिलती है।
“शुरु में बुखार आया तो दवा खाई फिर दिक्कत हुई तो सरकारी में जांच (RT PCR) कराई, लेकिन रिपोर्ट ही नहीं आई। फिर हमने एंटीजन कराया जो नेगेटिव रिपोर्ट आई। फिर हमने विवेकानंद पॉलीक्लिनिक में आरटी पीसीआर जांच कराई, वो भी निगेटिव आई। बहुत दिक्कत होने पर लखनऊ के ही टेढ़ी पुलिया इलाके में एडमिट कराया। जहां आईसीयू में रखा गया और एक विशेष सीटी स्कैन हुआ जिसमें कोविड के बारे में पता चला कि उनके सीने में इंफेक्शन है। वहां इलाज शुरू हुआ लेकिन ऑक्सीजन की दिक्कत होने पर दूसरे अस्पताल ले गए।”
हेमंत के मुताबिक वो अपने भाई को 6 रेमडेसिविर इंजेक्शन लगवा चुके हैं। “अब जान बचानी है तो जो डॉक्टर कहेंगे या जो हो सकेगा सब करेंगे। हमने 6 इंजेक्शन लगवाए, जिसमें एक 6000 का था, उसके बाद जैसे जैसे दिक्कत बढ़ती गई, उसके दाम बढ़ते गए.. उसके लिए 18000 से 20000 रुपये तक भी दिए।”
पिछले साल कोरोना लॉकडाउन के बाद लोगों को लेना पड़ा था उधारी और कर्ज़
साल 2020 में गांव कनेक्शन ने ग्रामीण भारत में कोरोना का असर जानने के लिए 25 राज्यों के 25000 लोगों के बीच देशव्यापी सर्वे कराया था जिसमें 23 फीसदी लोगोंने कहा था उन्हें कर्ज़ या उधार लेना पड़ा था। सर्वे में जिन 23 फीसदी ने बताया उन्हें कर्ज़ या उधार लेना पड़ा उनमें से जिसमें 71 फीसदी लोगों के मुताबिक उन्होंने ये पैसा घरेलू खर्च के लिए लिया,जबकि 10 फीसदी ने दवाओं, अस्पताल खर्च और 8 फीसदी कृषि कार्य जबकि 11 फीसदी लोगों ने कर्ज़-उधारी की दूसरी वजहें बताईं। वहीं चार फीसदी लोगों का कोई जवाब नहीं आया। गांव कनेक्शन सर्वे की विस्तृत खबर यहां पढ़ें-