“पिछली बार लॉकडाउन की वजह से तीन महीने दिल्ली में फंस गया था। गाँव की ज़मीन और पत्नी के जेवर बेचकर ऑटो की किस्त व कमरे का किराया और कर्ज चुका पाया था। इस बार वैसा कुछ न हो इसलिए लॉकडाउन लगते ही अपनी पत्नी-बच्चे व 4 और लोगों के साथ ऑटो से ही घर के लिए निकल पड़ा।” गाँव कनेक्शन को अपनी ये पीड़ा बताते हुए बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बड़का गाँव के रहने वाले सुरेश कुमार की आंखें भर आई।
देश में बढ़ते कोरोना के मामलों को रोकने के लिए अलग-अलग राज्यों की ओर से लॉकडाउन व नाइट कर्फ्यू का विकल्प अपनाया जा रहा है। सबसे ज्यादा प्रभावित महाराष्ट्र में पहले से ही 1 मई तक लॉकडाउन जैसी पाबंदियां लागू हैं। फिर भी मामले कम नहीं होता देख मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे आज (बुधवार 21 अप्रैल) संपूर्ण लॉकडाउन की घोषणा कर सकते हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में 500 से ज्यादा एक्टिव केस वाले शहरों में नाइट कर्फ्यू और पूरे प्रदेश में वीकेंड लॉकडाउन की घोषणा की जा चुकी है। वहीं मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, झारखंड समेत कई राज्यों ने अपने-अपने राज्यों के हालात को देखते हुए लॉकडाउन और नाइट कर्फ्यू जैसी पाबंदियां लगा रखी हैं।
आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि सुरेश कुमार 19 अप्रैल की रात 10 बजे दिल्ली से अपने छोटे से ऑटो में 7 लोगों के साथ, जिसमें सामान भी था, चले थे। पूरी रात करीब 426 किमी ऑटो चलाने के बाद वे 20 अप्रैल की दोपहर करीब 12 से 1 बजे के बीच एनएच-24 पर सीतापुर के पास पहुंचे और आराम करने के लिए रुके थे। लगातार गाड़ी चलाने की वजह से उनके हाथ-पैरों में सूजन आ गई थी। अभी उन्हें 600 किमी का सफर और करना है। सुरेश कुमार अकेले ऐसे नहीं हैं जो अपने घर की ओर निकले हैं।
मुजफ्फरपुर जिले के सुरेश ने आंसू पोछते हुए गाँव कनेक्शन को आगे बताया, “मैं दिल्ली में करीब 20 साल से ऑटो चला रहा हूं और पत्नी और बच्चे के साथ रहता हूं। पिछले साल (2020) की शुरुआत में मैंने किस्त पर ऑटो खरीदा था। लेकिन कोरोना के चलते लॉकडाउन लग गया। सोचा था महीना-15 दिन में हालात सामान्य हो जाएंगे, लेकिन लॉकडाउन बढ़ता गया। निकलने की सोचा तो पुलिस की मार के डर से हिम्मत नहीं हुई । मेरे कमरे का किराया बढ़ता चला गया और आमदनी शून्य हो गई, जिसके कारण कर्ज लेकर परिवार चलना पड़ा था। कल निकला तो दिल्ली से मुरादाबाद तक ऑटो सीएनजी पर चला, सीएनजी खत्म होने पर यहां से पेट्रोल पर करना पड़ा, जो काफी महंगा है।” वहीं जब सुरेश अपना दर्द बयां कर रहे थे तो उस समय उनका 8 साल का बेटा सत्यम उनसे पूछता है, पापा हम गांव कितनी देर में पहुंचेंगे? बच्चे के सवाल पर सुरेश की आँखे फिर नम हो जाती हैं।
पीएम ने लॉकडाउन को बताया आखिरी विकल्प
हालांकि मंगलवार 20 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के नाम अपने संबोधन में राज्यों से साफ अनुरोध किया कि लॉकडाउन को वे अंतिम विकल्प के रूप में इस्तेमाल करें। इसके अलावा उन्होंने प्रवासी कामगारों से भी आग्रह किया कि वे जहां हैं, वहीं रहें। मंगलवार को ही झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन ने 22 अप्रैल से 29 अप्रैल तक लॉकडाउन घोषणा की। इसे हेमंत सोरेन ने स्वास्थ्य सुरक्षा सप्ताह का नाम दिया है।
गाँव कनेक्शन ने एनएच-24 पर बिताया एक दिन
गाँव कनेक्शन ने उत्तर प्रदेश के सीतापुर से निकल रहे एनएच-24 का रुख किया तो कई और लोग मिले, जो लॉकडाउन के चलते अपने घरों को निकले थे। दिल्ली से एक ट्रक (डीसीएम टोएटा) के जरिए 560 किलोमीटर का सफ़र तय करके कुछ लोग सीतापुर कांशीराम आवास के पास स्थित एक ढाबे के पास 20 अप्रैल को पहुंचे और खाना खाने के लिए रुके। इस ट्रक में 33 लोग सवार थे। ट्रक पूरी तरह से प्रवासी मजदूरों से भरा था, अंदर जगह न मिलने के बाद कुछ लोगों ने ट्रक के अंदर ही ऊपर की ओर रस्सियों से जाल बिछाकर बैठने की व्यवस्था कर रखी थी।
“पिछली बार लॉकडाउन लगा था तो मांग-मांग कर खाना पड़ा था, कहते तो सब हैं हमने खाना बांटा, लेकिन देता कोई नहीं है। बाहर निकलते थे तो पुलिस डंडा मारती थी। वैसे भी हर जगह कोरोना है मेरे यहां बंगाल में कोरोना नही है। वहां चुनाव है, तो कोई लॉकडाउन नहीं है। मोदी जी ने भी पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार किया। दिल्ली में कुछ भी होता है तो कोरोना है, कह कर लॉकडाउन लग जाता है। हमारे यहां 26 अप्रैल को चुनाव है और 22 तारीख का हमारा टिकट था। पिछली बार भी लॉकडाउन बढ़ा दिया गया था। क्योंकि इस बार कोरोना ज्यादा फैल रहा है। इसलिए मुझे ट्रेन पर भरोसा नहीं था। तब हमने 1500 रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से पैसे इकट्ठा कर ट्रक कर लिया। ऐसे में डंडा खाने से पहले ही हम घर पहुंच जाएंगे। नहीं कमाएंगे, नहीं खाएंगे, बीवी-बच्चों के साथ रहेंगे।” ये कहना है इस ट्रक में सवार वेस्ट बंगाल के मालदा टाउन निवासी 28 वर्षीय एस. के. मेराजुल का, जो दिल्ली में ई-रिक्शा चलाते हैं।
मेराजुल आगे बताते हैं, “पिछली बार के लाकडॉउन में 30 रुपये किलो में मिलने वाला चावल 50 रुपये किलो की दर से मिल रहा था। वही 120 रुपये लीटर मिलने वाला तेल 200 रुपये में लेकर खाना पड़ा था। इसलिए हम लोग ट्रेन (ट्रेन का ई-टिकट दिखाते हुए) छोड़ कर कर निजी साधन से जा रहे हैं। क्या भरोसा सरकार कब ट्रेन बंद कर दे।”
कोरोना महामारी के चलते पिछले साल (2020) में कई देशों ने महीनों का लॉकडाउन झेला। वहीं भारत में लगे लॉकडाउन की वजह से मजदूरों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। सितंबर 2020 में केंद्र सरकार ने लोकसभा में बताया कि 2020 में लॉकडाउन के चलते पूरे देश से 10466152 प्रवासी मजदूर अपने घरों को लौटे थे।
गाँव कनेक्शन ने पिछले वर्ष लॉकडाउन के बाद ग्रामीण भारत में इसका प्रभाव जानने के लिए देश के 25 राज्यों में 25000 से ज्यादा लोगों के बीच सर्वे कराया था, जिसमें पता चला था कि लगभग हर चौथा (कुल 23 फीसदी लोग) प्रवासी लॉकडाउन के बाद पैदल अपने घरों को लौटा था, जबकि महज 12 फीसदी को श्रमिक ट्रेन की सुविधा मिली थी। (पूरा सर्वे यहां पढ़ें)
एनएच-24 पर ही दिल्ली से 445 किलोमीटर दूर सीतापुर के पास हेमपुर रेलवे क्रासिंग के पास दिल्ली से चली एक निजी बस 20 अप्रैल की सुबह 6 बजे खराब हो गई। आप यकीन नहीं मानेंगे इस कोरोना काल में बस में कुल 119 लोग बिना कुछ खाए-पिए सफर कर रहे थे। ये बस बहराइच जा रही थी। करीब 12 घंटे से ज्यादा इंतजार करने के बाद शाम 5 बजे के बाद दूसरी बस आई तब सभी उससे निकल गए।
“1000 से 1200 रुपये किराया देकर हम लोग 19 अप्रैल की दोपहर 12 बजे निकले थे, बिना कुछ खाये-पिये। बस में कुल 119 लोग सवार है। कहीं भी पैर रखने की जगह नहीं है। कल से इस बस में दिक्कत हो रही है, कहीं बैरिंग फंस रहा है, कभी कुछ हो रहा है। यहां सीतापुर में सुबह 6 बजे बस खराब हो गई। तब बस वाला कह रहा है दूसरी बस आ रही है, लेकिन शाम 5 बजे तक नहीं आई है। भूख-प्यास भी बढ़ती जा रही है।” यह कहना है दिल्ली के महिपालपुर में एक फार्म हाउस में मजदूरी करने वाले विनय शुक्ला का, जो बहराइच जिले के हंसरामपुर गाँव के रहने वाले हैं।
विनय ने आगे बताया, “मैं गाँव से दोबारा शहर सात महीने पहले ही आया था। अचानक से लॉकडाउन की वजह से बस पकड़नी पड़ी। पिछली बार दिल्ली से 120 किलोमीटर पैदल चलकर आना पड़ा था, तब जाकर साधन मिला था। वो मंजर याद करके हम लोग वही गलती फिर से नही करना चाहते है।”
“दिल्ली में ई-रिक्शा चलाते थे। जब लॉकडाउन की सूचना मिली तो घबराए और अपना सामान बांध कर अपने कमरे से निकल केशवपुर मंडी पहुचे। यहां एक निजी बस में भूखे ही सवार हो लिए। एक हजार रुपये किराया और 1500 रुपये सामान का भाड़ा बस चालक ने लिया, तब जाकर बस में बैठ पाया”, इतना कहकर दिल्ली में ई-रिक्शा चलाने वाले राजेश सिंह भावुक हो जाते है। वे आगे कहते है कि इससे अच्छा तो मेरा गांव है। रोजगार नहीं है तो क्या, अपनों का प्यार तो है। एक रोटी के लिए अब शहर की तरफ़ इतनी जल्दी मुंह उठाकर नहीं देखूंगा।
इस बीच, जब गाँव कनेक्शन ने सुरेश कुमार से दोबारा संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि उनका ऑटो गोरखपुर से पहले खलीलाबाद नाम की जगह में खराब हो गया है। वे उसे धक्का दे रहे हैं। यहां से उनका शहर मुजफ्फरपुर अब भी करीब 300 किलोमीटर की दूरी पर है।