लखनऊ। खेती में इस्तेमाल होने वाले डीजल, खाद, उर्वरक और कीटनाशकों के रेट में पिछले एक साल में 10-20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। जनवरी 2021 से जनवरी 2022 के बीच डीजल औसत 15-20 रुपए लीटर महंगा हुआ है। जबकि एनपीके उर्वरक की 50 किलो की बोरी 265 से 275 रुपए महंगी हुई है। जबकि साल 2022-23 के लिए गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में 40 रुपए प्रति कुंटल और पिछले साल (खरीद विपणन सीजन 2021-22) के लिए धान की एमएसपी में 72 रुपए प्रति कुंटल की बढ़ोतरी हुई थी। जबकि इस दौरान कीट, रोग और खरपतवार नाशक दवाओं में 10-20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।
खेती की बढती लागत के अलावा किसान एमएसपी से कम रेट पर बिकती फसलों से भी परेशान हैं। यूपी के बरेली जिले में गेहूं में छिड़काव के लिए यूरिया लेने आए 19 साल के रामवीर कहते हैं, “खेती में ऐसा है कि एक कुंटल धान बेचकर एक बोरी (50 किलो) डीएपी नहीं खरीद सकते। बस काम चल रहा है। एमएसपी कुछ भी हो, हमने तो 1000 रुपए में धान बेचा था।” डीएपी की सरकारी कीमत 1206 रुपए है लेकिन कई जगह वो 1400-1600 में बिकती है।
“खेती की लागत में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है, लेकिन फसल के दाम उस तरह नहीं बढ़े। महंगाई का आलम ये है कि गन्ने की फसल में घास (खरपतवार) मारने की एक दवा आती है वो पिछले साल 170 रुपए की 100 ग्राम थी, इस साल 270 रुपए की हो गई है। जबकि गन्ने पर 5 साल में सिर्फ 25-35 रुपए प्रति कुंटल बढ़े हैं यानि 5 रुपया कुंटल। अब बाकी हिसाब आप लगा लो।” बिजनौर के बुजुर्ग किसान कुलवीर सिंह प्रधान खेती में बढ़ते खर्च का खाका समझाते हैं।
कृषि में 3.9 फीसदी की ग्रोथ, लेकिन दूसरे सेक्टर की रफ्तार तेज
एक तरह जहां किसान खेती की लागत की महंगाई से परेशान हैं तो दूसरी आंकड़े भी बता रहे हैं कि खेती फिर घाटे का सौदा साबित हो रही है। 7 जनवरी 2022 में आए राष्ट्रीय आय के अनुमानित आंकड़ों के मुताबिक कृषि क्षेत्र में उत्साहजनक 3.9 फीसदी की ग्रोथ हुई लेकिन गैर कृषि क्षेत्र में औसत ग्रोथ 10 फीसदी के आसपास है। पिछले साल की अपेक्षा ये बढ़त अच्छी है, जिस पर सरकार अपनी पीठ भी थपथपा सकती है। राष्ट्रीय आय अनुमान के मुताबिक वित्त वर्ष 2022-23 में कृषि सकल मूल्य बद्री घन (GVA) में अपस्फीतिकारक 5.2 फीसदी बढ़ेगा जबकि गैर-कृषि जीवीए लगभग दोगुनी दर से 10 फीसदी बढ़ेगा। गैर-कृषि जीवीए में उद्योग (इंडस्ट्री) और सेवाओं (सर्विस सेक्टर) को शामिल किया जाता है। गैर कृषि क्षेत्र में उच्च मुद्रास्फीति के कारण दो वर्ष बाद किसानों के लिए इस वर्ष खेती फिर नुकसानदायक साबित होने वाली है। बढ़ती लागत ने किसान का बजट बिगाड़ दिया।
कृषि और दूसरे क्षेत्र के आंकड़ों के अंतर का सीधा सा मतलब है कि किसान ने खेती से जितना कुछ कमाया है, उससे ज्यादा वो डीजल-पेट्रोल, खाद, उर्वरक, घर का खर्च और बच्चों की पढ़ाई से लेकर दवा में खर्च रहा है।
भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM)अहमदाबाद में प्रोफेसर और सेंटर ऑफ मैनेजमेंट इन एग्रीकल्चर (cma) के पूर्व चेयरमैन प्रो. सुखपाल सिंह के मुताबिक पिछले 20 वर्षों में कृषि सेक्टर में 3-4 फीसदी से ज्यादा की ग्रोथ नहीं है। ये ग्रोथ ठीक है बशर्ते बनी रहे। खेती की दूसरे सेक्टर से सीधा तुलना नहीं करना चाहिए। क्योंकि खेती बहुत जोखिम का और कुदरत का धंधा है।
खाद्य महंगाई बढ़े या फिर किसानों की फसल की अच्छी कीमत मिले- प्रो. सुखपाल सिंह
खेती में बढ़ती लागत और मुनाफे के सवाल पर प्रो. सुखपाल कहते हैं, “किसान की आय का मतलब है लागत निकालकर फसल बेचकर जो आमदनी हो। समस्या है इनपुट कास्ट काफी ज्यादा है। यही किसानों की लड़ाई है कि लागत बढ़ रही है और हमें जो मिल रहो है उससे किसानों का कोटा (हिसाब) पूरा नहीं हो रहा है। जब तक खाद्य पदार्थ की कीमतें नहीं बढ़ेगी किसान की आमदनी कैसी बढ़ेगी, उसका कोटा कैसे पूरा होगा। लेकिन समस्या ये है कि सरकार फूड इन्फ्लेशन की अनुमति नहीं देती, कीमतें बढ़ने पर इंपोर्ट शुरु जाता है।”
खेती के घाटे को पूरा करने के लिए प्रो. सुखपाल सिंह कुछ उपाय भी सुझाते हैं। वो कहते हैं, “इसके 2 तरीके हैं या तो आप उसी खेती से ज्यादा उत्पादन करें, जो कम समय में संभव नहीं, क्योंकि देश में उस तरह के बीज,तकनीकी और एक्सटेंशन नहीं है। ऐसे में 2-3 चीजें बचती हैं। या तो आप खेत से ज्यादा माल निकला या फिर जो पैदा हो रहा है उसकी अच्छी कीमत लें, एक तरीका ये भी हैं कि हाई वैल्यू यानि ऐसे फसलें उगाएं जिनकी कीमत अच्छी है। लेकिन समस्या कई हैं। न खेत बढ़ सकते हैं न तुरंत सिंचाई का रकबा बढ़ाया जा सकता है। एसे में मंडियां बहुत जरुरी है, मंडिय़आ ठीक जो जाएं। किसान तो पैदा करे उसकी कीमत मिल जाए तो काम ठीक हो जाएगा।”
लेकिन समस्या यहीं आ जाती है, किसान के खेत से निकलते ही इन चीजों के दाम गिर जाते हैं। देश में सबसे ज्यादा गेहूं धान पैदा होता है जिसका औसत रेट खुले बाजार में 1000-1500 के बीच रहा है। मध्य प्रदेश की मंदसौर मंडी में लहसुन और प्याज 50 पैसे किलो से लेकर 4 रुपए किलो तक बिका है।
खबर लिखने के वक्त (2 फरवरी 2022) में महाराष्ट्र के धुले जिले में किसानों ने व्यापारियों को पपीता देना बंद दिया है क्योंकि व्यापारी किसान के खेत में 3 रुपए किलो का थोक रेट दे रहे जबकि किसानों के मुताबिक उनकी लागत ही 5-6 रुपए किलो की आती है। धुले जिले के किसान विकी राजपूत कहते हैं, “रेट इतना कम था कि किसानों ने कहा तोड़ाई नहीं करेंगे, व्यापारी वापस जा रहे हैं। पके फल खराब हो रहे हैं लेकिन उन्हें बेचकर भी तो घाटा ही हो रहा है।”
फल और सब्जियों को नगदी फसलें माना जाता है। पिछले वर्षों में सरकार का जो फसल विविधीकरण के तहत ऐसे फसलों को प्रोत्साहन दे रही है, ताकि किसान धान-गेहूं के अलावा दूसरी फसलें उगाएं लेकिन कई जगह किसानों ने इसे आजमाया लेकिन बाजार जाने पर उन्हें निराशा हाथ लगी। यूपी में मक्का, हरियाणा में ज्वार-बाजरा, राजस्थान में मूंगफली समेत कई फसलों को लेकर कम खरीद और मंडियों से नकारात्मक खबरें आती रहती हैं।
धान गेहूं से आने वाली आमदनी घटी- एस महेंद्र देव
मुंबई में स्थित इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (IGIDR) के निदेशक और कुलपति एस. महेंद्र देव के मुताबिक कृषि में व्यापार के लिए प्रतिकूल शर्तें मोटे तौर पर बताती हैं कि किसान की फसलों से होने वाली आमदनी के मुकाबले कृषि आदान (इनपुट) और स्वास्थ्य-शिक्षा पर खर्च ज्यादा हो रहा है।
एस महेंद्र देव गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, “राष्ट्रीय आय के अनुमान के मुताबिक 2020-21 की कृषि ग्रोथ 3.6 से 3.9 है। इसमें फसल, पशुपालन और मत्स्य पालन के आंकड़े जुड़े हैं। अगर आप सिर्फ गेहूं धान और बागवानी जैसी फसलों का देखेंगे तो पाएंगे पशुपालन और मत्स्य आदि में बढ़त ज्यादा है। इसके अलावा मजदूरी से हिस्सा भी आमदनी की बढ़ा है। एनएसओ की रिपोर्ट भी बताती है कि किसान की आमदनी में फसलों से आने वाली आमदनी घटी है।”
एस महेंद्र देव, केंद्र सरकार के कृषि एवं लागत मूल्य आयोग के पूर्व चेयरमैन रह चुके हैं। यह आयोग ही देश में फसलों की लागत तय करता है और आयोग की अनुशंसा पर न्यूनतम समर्थन मूल्य तय होता है।
एस महेंद्र देव ने जिस मजदूरी की आमदनी का जिक्र किया है वो भी समझना बहुत जरूरी है। राष्ट्रीय सांख्यिकी बताते हैं कि किसान परिवार की आय में मजदूरी से होने वाली आय हिस्सा बढ़ा है। भारत जहां 67 फीसदी आबादी अभी गांवों में रहती है, वहां का एक बड़ी आबादी रोजगार और आजीविका के लिए खेती पर निर्भर है। आबादी बढ़ रही है, शहरीकरण और पारिवारिक बंटवारे में जमीन खेत बंट रही हैं।
भारत में 42.6 फीसदी लोग रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर- पाकिस्तान, चीन से बद्तर हालात
संयुक्त राष्ट्र संघ की एजेंसी अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के साल 2021 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 42.6 फीसदी लोग कृषि पर निर्भर हैं। पाकिस्तान में ये आंकड़ा 36.92, चीन में 25.33 फीसदी है। कनाडा में 1.51 फीसदी जबकि अमेरिका में महज 1.3 फीसदी लोग खेती से रोजगार चलाते हैं। यानि चीन, अमेरिका, कनाडा में सर्विस सेक्टर, मैन्यूफैक्चरिंग जैसे दूसरे क्षेत्रों ज्यादा लोगों के घर चल रहे हैं। नीचे ग्राफ देंखे
उत्तराखंड से सटे यूपी के बिजनौर में सरकारी चीनी मिल ट्राली में गन्ना लेकर आए 36 साल के विकास कुमार दो भाई हैं उनके पास 40 बीघा (8 एकड़) जमीन है। विकास कहते हैं, “हमारे खेती के अलावा कोई रोजगार ही नहीं है। इंडस्ट्री के नाम पर गन्ना फैक्ट्री हैं। खेती के अलावा कोई जरिया ही नहीं है फायदा हो या नहीं।”
किसान के बेटे की नौकरी लग रही हो तो वो खेत बेच देता है, खेती पलायन हो रहा- किसान नेता
इसी जिले से किसान नेता दिगंबर सिंह कहते हैं, पिछले 15-20 वर्षों में ईंट,लोहा या कुछ ले लो उसकी महंगाई 20-30 गुना बढ़ी है जबकि किसानों की फसलों की की महंगाई 5 गुना बढ़ी है तो किसान 15 गुना माइनस में है। कभी खेती को उत्तम पेशा माना जाता था लेकिन अब किसान के बेटे की नौकरी लग रही होती है तो वो खेत बेच देता है। किसान पढ़ाई के लिए खेत बेच देते हैं। खेती से पलायन जारी है।”
डीजल से लेकर सोने तक की महंगाई को गिनाते हुए वो आगे कहते हैं, “यहां तो अब ऐसे हालात हैं कि खेत के लिए मजदूर नहीं मिलते,मिले भी क्योंकि क्योंकि महंगाई के मुकाबले किसान मजदूर को पैसा नहीं दे पा रहा मजदूर को दूसरे क्षेत्र में ज्यादा मजदूरी मिल रही। गांव से इसी तरह पलायन जारी रहा तो खेती और खाद्य सुरक्षा कॉरपोरेट के हाथ में चली जाएगी। गरीब और गरीब, अमीर और अमीर होता चला जाएगा।”
आमदनी बढ़ाने का वादा था लेकिन यहां तो कम हो गई- विजय जवांधिया
महाराष्ट्र के किसान नेता और कृषि अर्थशास्त्री विजय जावंधिया फोन पर बताते हैं, “फसलों की लागत के मुकाबले न एमएसपी है ना बाजार भाव, तो घाटा होना तो तय है। खेती के अलावा भी तो खर्च बढ़ रहे। सरकारी कर्मचारियों का डीए हर 3-6 महीने में बढ़ रहा है। इस सब की तुलना में गांव और शहर का अंतर बढ़ता जा रहा है। मोदी जी (पीएम नरेंद्र मोदी) का आरोप रहा है कि मनमोहन सिंह सरकार (यूपीए-1 और 2) अंतर बढ़ा लेकिन उनके 10 साल और उनके 7 साल में नया क्या हुआ है? ये तो 2022 तक किसान की आमदनी दोगुनी करने वाले थे, आमदनी दोगुनी के बजाए आधी होती जा रही है।”